सेवक बनने की इच्छा -
स्वामी रामतीर्थ को विद्यार्थी जीवन में अनेक कठिनाइयाँ उठानी पड़ीं। कभी-कभी तो स्थिति इतनी विकट आ जाती थी कि दीपक के तेल के खर्च की पूर्ति के लिए भोजन में कटौती करनी पड़ती थी, फिर भी अध्ययन के प्रति उनकी रुचि बढ़ती ही रही।
लाहौर महाविद्यालय के प्राचार्य ने स्वामी रामतीर्थ के बुद्धि कौशल से प्रभावित होकर सिविल सर्विस की परीक्षा हेतु उनका नाम भेजने का निर्णय कर लिया था। जब इन्हें इस निर्णय की सूचना मिली तो वह दौड़े-दौड़े प्राचार्य के पास गये और बड़े नम्र शब्दों में बोले- ‘मैंने अपनी फसल इसलिए तैयार नहीं की है कि उससे लाभ कमाया जाये अथवा बेचकर आय में वृद्धि की जाये। मैं तो उसे मिल बाँटकर खाना चाहता हूँ और मेरे परिश्रम का उद्देश्य भी यही है। मैं अधिकारी बनने का स्वप्न नहीं देखता और न मेरी इच्छा ही है। मैं अपने को सेवक मानता हूँ क्योंकि सेवा करना मानव मात्र का धर्म है फिर मैं इस धर्म से विचलित कैसे हो सकता हूँ। मैं तो अध्यापक बनकर सेवा करना चाहता हूँ अतः आप सिविल सर्विस की परीक्षा हेतु मेरा नाम प्रस्तावित न कीजिए।’
प्राचार्य के खूब समझाने पर भी स्वामी जी ने अपना निर्णय नहीं बदला।