भीमकाय जल दैत्य व्हेल की चर्चा जन्तु जीवन में अत्यन्त रोमाँच और कौतूहल के साथ ही की जाती है, वह कभी उद्धत हो उठे और आक्रमण कर बैठे तो उसके मार्ग में आने वाले बड़े-बड़े जहाज भी सहज ही जलमग्न हो सकते हैं। मामूली नावों को तो उसका एक हलका सा झटका ही रसातल को पहुँचा सकता है। दुस्साहसी शिकारी ही अपनी जान की बाजी लगाकर उसका पीछा करते हैं, उनका दाँव लग गया तो फिर एक ही व्हेल का तेल, माँस चमड़ा, अस्थिपंजर आदि की बहुमूल्य सम्पत्ति उन्हें मालामाल कर देती है। कोई-कोई व्हेल तो एक छोटे मोटे द्वीप जितनी विशालकाय पाई जाती है। उसकी सामर्थ्य का तो कहना ही क्या। सौ हाथियों की सम्मिलित शक्ति भी उसकी तुलना में तुच्छ होती है।
संसार के इतिहास में पहली बार जो घायल व्हेल जीवित स्थिति में किसी प्रकार पकड़ी गई थी वह मात्र 18 घन्टे जिन्दा रही। दूसरी बार यह विशालकाय व्हेल 16 जुलाई 1964 में सेटर्ता द्वीप के समीप पकड़ी गई और उसे कैद करके वैक्यूओबर सागर तट के निकट ‘ड्राइडाक’ जलयानों की मरम्मत के लिए बनाई गयी एक छोटी सी खाड़ी में रखा गया। ड्राईडाक कम्पनी ने इसके लिए उस स्थान को जल्दी खाली कर देने में जो शीघ्रता एवं तत्परता बरती और उसे व्हेल का उपयुक्त कैद खाना बना दिया वह भी एक स्मरणीय सफलता ही कही जायेगी।
सैम्युअल व्यूरिख कोई पेशेवर शिकारी नहीं था। वह एक माना हुआ मूर्तिकार, कलाकार था। वैक्यूओवर के सार्वजनिक मछली घर की ओर से उसे व्हेल मछली की मूर्ति बनाने का काम सौंपा गया था। वे मात्र कल्पना के आधार पर नहीं व्हेल की यथार्थ आकृति को देखकर तदनुसार कलाकृति विनिर्मित करने का उनका मन था। इसी प्रयोजन के लिए वे व्हेल का शिकार करने के लिए आवश्यक नौका, सज्जा एवं अस्त्र शस्त्रों के साथ समुद्र में उतरे और जहाँ व्हेल रहती थी, उस क्षेत्र की ओर चल पड़े।
कई दिनों की ढूंढ़ खोज के बाद आखिर उन्हें सफलता मिल ही गई। एक विशालकाय व्हेल समुद्र की लहरों को चीरती हुई मुँह से पानी के ऊँचे फव्वारे उड़ाती हुई तूफानी गति से सामने ही दौड़ती हुई दिखाई दी। स्याह मूसा पत्थर से बनी काली चिकनी मूर्ति की तरह वह मृत्युदूत जैसी लगती थी। खोजी लोग एक बार तो उसे देखकर काँप गये, पर दूसरे ही क्षण उन्होंने साहस बटोरा और हारपून भाला उसे लक्ष्य करके चलाया। हवा में सनसनाता हुआ यह भाला उस जल दैत्य के दाहिने कन्धे में जा घुसा। एक मिनट के लिए श्मशान जैसी निस्तब्धता छाई, फिर थोड़ी ही देर में घायल मछली ऐसा क्रुद्ध कुहराम मचाने लगी मानो वह समुद्र को ही मथ डालेगी। घाव से रक्त की एक नाली सी बह रही थी और उसका बिखराव लहरों पर लाल रंग के झरने की तरह अपना प्रभाव छोड़ रहा था।
नाविकों ने ‘हारपून’ भाले की पूँछ में बँधे हुए रस्से को मजबूती से सँभाला। न जाने यह घायल मृत्युदूत इस क्रुद्ध स्थिति में क्या कर गुजरे, इसी आशंका से उस शिकारी नाव में बैठे सभी कर्मचारी काँप रहे थे।
तीन हजार पौण्ड भारी घायल व्हेल ने आक्रमणकारी नौका पर उलटकर प्रत्याक्रमण किया। अपने विकराल मुख को फाड़कर वह ऐसी झपटी मानो नाव और नाविकों का अस्तित्व इस समुद्र के गर्भ में ही विलीन करके रहेगी। प्रतिशोध और दर्द ने उसे रुद्र रूपधारी बना दिया था, ऐसी भयानकता को देखकर धैर्य भी अधीर हो सकता था।
दूसरे नाविक इस जीवन और मृत्यु की संधिवेला में अपने बचाव और आक्रमण को निरस्त करने के सम्भव उपाय बरत रहे थे। पर व्यूरिख ज्यों का ज्यों अविचल बैठा रहा। मानो उसकी पुतलियाँ दत्तचित हो व्हेल का चित्र स्मृतिपटल पर उतारने में कुशल कैमरा मैन की तरह तन्मय हो। यह क्षण बिजली की गति धारण किये हुये थे। आक्रमण का परिणाम कुछ ही मिनटों की अपेक्षा कर सकता था। नाविकों में से एक ने मछली की ओर मशीनगन दागनी आरम्भ की। दूसरे ने हारपून के रस्से को झटका ताकि घाव का दर्द बढ़कर उसे लौटने को विवश करे। तीसरा नाव को आक्रमण की दिशा से हटा रहा था। सभी अपने अपने ढंग के प्रयास कर रहे थे।
पर व्यूरिख को न जाने क्या हुआ। वह किसी भाव प्रवाह में बह रहा था। व्हेल में न जाने उसने कितना अद्भुत सौंदर्य देखा और यह उसकी कार्य संरचना पर एक प्रकार से मुग्ध हो ही गया। एक क्षण को उसे लगा कोई मत्स्य कन्या आकाश में उड़ रही है और अपने ऊपर अकारण हुए अन्याय का मर्मस्पर्शी उलाहना दे रही है। कलाकार की करुणा पिघल पड़ी, उसकी आँखों में से आँसू ढुलक पड़े उनमें न जाने कितनी आत्म ग्लानि भरी थी और कितनी मोह ममता। लगा हारपून उसी के कन्धे में चुभा हुआ है। एक बार वह कराह उठा। नाव में बैठे साथी चकित थे कि और नई विपत्ति क्या आई? व्यूरिख को अचानक यह क्या हो गया?
इस हलचल ने क्या नया मोड़ लिया। धावमान व्हेल की गति रुक गई। माना उसे व्यूरिख की भाव भरी अन्तर्व्यथा को समझा हो और दोष दुर्भाग्य को देती हुई वह भी इस कलाकार के प्रति अपना प्रेम प्रतिदान प्रस्तुत कर रही हो। हारपून उतना ही गहरा घुसा था। रक्त धारा उसी क्रम में बह रही थी पर उसका प्रत्याक्रमण और क्रोध मानो समाप्त हो गया था। नाविक समझे शायद वह मर रही है। अवसर से लाभ उठाकर वे नये शस्त्र चलाना चाहते थे पर व्यूरिख ने उनका हाथ रोक दिया।
व्हेल पूर्णतया जीवित और सजग थी, पर वह मन्त्रमुग्ध की तरह नौका के निकट चली आई। पानी में से उसकी चमकीली आँखें उस कलाकार की ओर इस प्रकार टकटकी लगाये टिकी हुई थी मानो वह अपनी मर्म कथा कवि जैसी संवेदनाओं के साथ व्यक्त कर रही है। व्यूरिख को वस्तुस्थिति समझने में देर न लगी। उसे विश्वास हो गया कि आक्रमण प्रत्याक्रमण का दौर समाप्त होकर भाव भरा आदान-प्रदान चल रहा है। घायल मछली पालतू कुत्ते की तरह नाव के इर्द गिर्द चक्कर लगा रही थी। इस स्थिति से डरे और घबराये हुए नाविक को कलाकार यही आश्वासन देता रहा भावना ने आक्रोश को जीत लिया, सद्भावना के प्रवाह में दुर्भावना बहकर चली गई। अब डरने की कोई जरूरत नहीं रह गई। दया ने अब घृणा का स्थान ग्रहण कर लिया है।
व्यूरिख ने नाव में लगे ट्रान्समीटर द्वारा वैक्यूओवर के अधीक्षक न्यूमेन को सूचित किया कि घायल व्हेल को जीवित पकड़ लिया गया है अब उसके निवास की व्यवस्था की जाय। रेडियो सुनने वाले को विश्वास नहीं हुआ कि यह क्या कहा जा रहा है। कहीं जीवित व्हेल भी कैद की जा सकती है। बहुत समय पूर्व एक अति घायल मछली को मरणासन्न स्थिति में जीवित पकड़ा गया था वह भी सिर्फ 18 घंटे जीवित रही। क्या अब व्हेल को सचमुच ही जीवित पकड़कर उसे निकट से देखना और उस पर अनुसंधान करना स्वप्न न रहकर एक सचाई बनने जा रहा है?
न्यूमैन हवाई जहाज लेकर घटना स्थल की ओर दौड़े उन्होंने आसमान से देखा कि व्यूरिख की नाव के पीछे व्हेल शान्त चित्त चुपचाप पालतू बिल्ली की तरह चली आ रही है। उन्हें अपनी आँखों पर विश्वास नहीं हुआ। पर जो दीख रहा था उससे इन्कार भी कैसे करते?
ड्राईडाक झील तक नाव के साथ साथ व्हेल चली आई। जहाँ यह अनुभव किया गया कि नाव के साथ जुड़ा हुआ हारपून का रस्सा व्हेल को किसी प्रकार का कष्ट पहुँचा रहा है उसके सुधार की उचित व्यवस्था की गई। नाव को इसी ख्याल से बहुत धीमे चलाया गया। कुछ ही घंटों में पूरी हो सकने वाली वह यात्रा 17 घण्टे में पूर्ण हुई। वैक्यूओवर तट पर इस अद्भुत दृश्य को देखने के लिए हजारों व्यक्ति खड़े हर्ष ध्वनि कर रहे थे। हर किसी को यह एक जादुई घटना प्रतीत हो रही थी।
बन्दी गृह के रूप में बनी हुई उस खाड़ी में व्हेल आ गई अब उसके शरीर में गहरे घुसे हुए हारपून भाले को निकालने का प्रश्न था ताकि उसे कष्ट मुक्त किया जा सके और जीवित रखा जा सके। इसके लिए एक बहुत बड़ा ऑपरेशन आवश्यक था। डॉ. पैट मेकमीर के नेतृत्व में डाक्टरों का एक दल जान हथेली पर रखकर इसके लिए तैयार हुआ। उन्हें लोहे के सन्दूक में बिठाकर व्हेल तक पहुँचाया गया। उन्होंने बड़ी फुर्ती से वह कई गज चौड़ा आपरेशन किया और गहरे घुसे हुए भाले को निकाला। लोग आश्चर्यचकित थे कि मछली किस शान्त भाव से किसी समझदार रोगी की तरह उस ऑपरेशन को बिना हिले डुले सम्पन्न करा रही है। घाव बहुत बड़ा था। उसके विषाक्त होने का खतरा था। इस जोखिम से बचने के लिए पेन्सलीन की एक बड़ी मात्रा बारह फीट लम्बे बाँस में भरकर उस जख्म में भरी गई।
इतना सब हो चुकने और कई दिन जी चुकने के बाद यह विश्वास कर लिया गया कि उसे व्हेल जीवन के विशाल अनुसंधान के लिए बहुत समय तक पालतू रखा जा सकता है। तब यह सोचा गया कि उसका नामकरण किया जाय और यह पता लगाया जाय कि वह नर है या मादा। काफी ढूंढ़ टटोल के बाद उसे मादा पाया गया। तदनुसार उसका नाम ‘माँबी डाल’ रखा गया। इस नामकरण के अवसर समारोह पर भारी वर्षा में पन्द्रह हजार लोग अनुमति पत्र पाकर उस मत्स्य कन्या को देखने आये और लाइन लगाकर बहुत समय में इस अपने ढंग की अनोखी विश्व सुन्दरी के दर्शन का लाभ ले सके।
‘माँवी डाल’ की गतिविधियों के अनुसंधान ने मानव जाति को व्हेल जीवन की दुर्लभ जानकारियाँ दी हैं। साथ ही एक और उच्च स्तर का सत्य सामने प्रस्तुत किया है कि सद्भावनाओं की शक्ति अपार है उनके आधार पर मृत्यु को अनुचरी बनाया जा सकता है और घृणा को ममता में परिवर्तित किया जा सकता है। यह प्रयोग न केवल मनुष्य-मनुष्य के बीच सफल होता है वरन् प्राणि जगत का कोई भी जीवधारी सद्भावनाओं की पकड़ से बाहर नहीं हो सकता, भले ही वह अविकसित मनोभूमि या क्रुद्ध प्रकृति का ही क्यों न हो। जादू की चर्चा बहुत होती रहती है पर स्नेह और सद्भावना से बढ़कर बिरानों को अपना बना सकने का शक्ति सम्पन्न जादू शायद ही और कोई कहीं हो।