तथागत विहार करके दीर्घकाल बाद श्रावस्ती पहुँचे। वहाँ उनकी भेंट विशाखा से हुई। उनके उद्यान का क्या कहना? जब विशाखा को यह पता चला कि तथागत आज उसी के यहाँ आतिथ्य ग्रहण करने वाले हैं तो उनकी प्रसन्नता का ठिकाना न रहा। उन्होंने अपने भाग्य को बार-बार सराहा और भगवान बुद्ध के ठहरने की सारी व्यवस्था अपनी देख-रेख में करवाई। फिर भी बुद्ध यह देख रहे थे कि विशाखा के चेहरे पर जो प्रसन्नता होनी चाहिए वह नहीं है। अशान्ति और निराशा ने उन्हें घेर रखा है।
तथागत को वस्तुस्थिति समझने में देर न लगी। उन्होंने कहा-’मैं इसीलिये तो कहता हूँ कि मनुष्य को अपनी आवश्यकता बढ़ानी न चाहिए। नाना प्रकार की इच्छायें आवश्यकताओं को जन्म देती हैं और फिर मनुष्य उन्हीं के चक्कर में पड़कर अपने सुख तक की बाजी लगा देता है। अत्यधिक इच्छायें व्यक्ति स्वातंत्र्य की हंता हैं। अतः मैं नहीं चाहता हूँ कि उनकी पराधीनता ग्रहण कर दुःख को आमन्त्रित किया जाये।’
‘भगवन्! आप तो पहेली सी बुझाते हैं। यदि कोई उपाय हो जिससे इच्छायें कम की जा सकें तो बताइये न।’
‘उपाय बड़ा सरल है। यदि मनुष्य सुख की खोज बाह्य वस्तुओं में न करके अपने अन्दर ही करने लगे तो उसे विविध इच्छाओं की असारता तथा व्यर्थता का आभास सहज ही हो जायेगा और व्यर्थ के भटकाव से मुक्ति मिलेगी।’