समुद्र अपनी गौरवमयी भौतिक गरिमा और विशालता के साथ उन प्रेरणाओं को भी अपने में भरे हुए है जिन्हें यदि ध्यानपूर्वक देखा समझा जाय तो मनुष्य भी वैसी ही अगाध महानता से सम्पन्न हो सकता है।
परिवर्तनों के फलस्वरूप ही समुद्रों का निर्माण हुआ है और उन्हें इस स्थिति तक पहुँचाने का श्रेय उन उथल-पुथल को ही है जो देखने में अनावश्यक लगती हैं और कष्ट कर भी, किन्तु सर्वतोमुखी ऊहापोह के पश्चात् इसी निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ता है कि बिना उथल पुथल के नवजीवन का संचार कहीं भी नहीं हो सकता। यथास्थिति में पड़े रहने से तो केवल श्मशान जैसी निस्तब्धता ही बनी रह सकती है।
जर्मन वैज्ञानिक एल्फ्रेड बैगनर ने विश्व के विभिन्न भागों में पाये जाने वाले प्राणि अवशेषों के विश्लेषणात्मक अध्ययन से पता लगाया है कि चिर अतीत से लेकर अब तक संसार की जलवायु में अत्यन्त विशाल परिवर्तन हुए हैं। ध्रुव प्रदेशों में ऐसे प्राणियों के अवशेष मिलते हैं जो इन दिनों ऊष्ण प्रदेशों में पाये जाते हैं। इसी प्रकार किसी समय में हिमाच्छादित प्रदेश आज कल हरे-भरे मैदान हैं और किसी समय के मैदान आज कल बर्फ से ढके हुए हैं। इसी प्रकार समुद्रों का स्थान घनी आबादी ने ले लिया है और किसी समय का प्राणधारियों का निवास क्षेत्र आजकल समुद्र बना हुआ है। इसी प्रकार बैगनर का यह भी कहना है कि सुदूर अतीत में एक ही महाद्वीप का भूभाग था और एक ही समुद्र था। पीछे उन्हीं के कटते फटते, टूटते-फूटते टुकड़े कई महाद्वीपों और समुद्रों में बदल गये। इसी प्रकार ध्रुव प्रदेश भी चलता फिरता रहा है कभी उत्तर ध्रुव 140 उत्तर अक्षाँश तथा 1240 पश्चिम देशाँश पर था पर अब वह 510 उत्तर अक्षाँश और 1530 देशाँश पर आ गया है। भविष्य में यह प्रदेश और भी आगे बढ़ेंगे और अब जहाँ हरी भरी उपजाऊ भूमि लहराती है वहाँ अगम्य हिम प्रदेश दिखाई देंगे। पिछले हिमयुग के बाद तो ऐसी उथल पुथल बहुत ही हुई है। वह बर्फ पिघलने से समुद्र तल लगभग 65 मीटर ऊँचा उठा, फलतः किसी समय का हरा-भरा भू भाग समुद्र गर्त में विलीन हो गया।
हिमयुग न आता तो जहाँ किसी समय निरुपयोगी स्थल थे वहाँ आज हरे-भरे मैदान और समुन्नत नगर कैसे दिखाई पड़ते। किसी भूमि का भाग सदा चमके और कुछ स्थान सदैव अन्धकारमय स्थिति में पड़े रहें तो सृष्टि में सर्वांगीण सुन्दरता कैसे गतिशील रहेगी। खण्ड प्रलय के रूप में चिर अतीत के साथ ऐसे हिमयुगों का इतिहास भी जुड़ा हुआ है जिन्होंने भूखण्डों की स्थिति में आश्चर्यजनक परिवर्तन करके रख दिया। कई बार हिम क्राँतियाँ भी आग्नेय क्रांतियों की अपेक्षा अधिक प्रभावी सिद्ध होती हैं। भूतकाल के हिमयुग इसी प्रकार के थे। उन्होंने न केवल भूखण्डों के भाग्य को उलटा पलटा वरन् प्राणियों की कमजोर नस्लों को भी समाप्त कर दिया।
पृथ्वी की अनुमानित आयु 200 करोड़ वर्ष है। जीवों के रहने लायक तथा उपलब्ध पदार्थों के लगभग वर्तमान रूप में पाये जाने का काल 10 लाख वर्ष पूर्व से आरम्भ होता है। भूगर्भ विद्या के अनुसार इससे पूर्व का समय वह है जो कि इस तप्त पिण्ड को ठंडा होने और जलवायु वनस्पति जैसे जीवनोपयोगी माध्यम उत्पन्न और विकसित करने में लगा।
भूगर्भीय भाषा में 10 लाख वर्ष पूर्व से आरम्भ होकर विगत 15 हजार वर्ष तक चला आने वाला युग ‘होलोसीन’ काल है, 15 हजार वर्ष पूर्व से अब तक चला आने वाला समय ‘प्लीस्टोसीन’ काल कहलाता है।
प्लीस्टोसीन काल के आरम्भिक दिनों में पृथ्वी पर शीतलता की अत्यधिक मात्रा बढ़ने लग गई थी। अस्तु अप्रत्याशित रूप से ‘हिम युग‘ आरम्भ हो गया। अमेरिका योरोप, एशिया तथा दक्षिणी ध्रुव प्रदेश हिमावरण से ढ़क गये। उत्तरी अमेरिका में तो यह हिमावरण एक बार नहीं चार-चार बार भिन्न-भिन्न समयों पर हुआ।
हिमयुग के अवतरण के कारण वैज्ञानिकों ने खोजे हैं और बताया है कि (1) साधारणतया सूर्य विकरण का एक अंश ही पृथ्वी को प्राप्त होता है। सूर्य में अनेक धब्बे हैं। सहस्रों वर्ष बाद जब कुछ धब्बे पृथ्वी के सम्मुख आ जाते हैं तब पृथ्वी को प्राप्त होने वाले आँशिक विकरण की मात्रा और कम हो जाती है। फलतः धरती का तापमान घट जाने से हिमयुग आरम्भ हो जाता है। (2) पृथ्वी अपनी कक्षा में एक निश्चित कोण पर झुकी स्थिति में सूर्य का परिभ्रमण करती है। जलवायु में आश्चर्यजनक परिवर्तन होते हैं। (3) प्राचीन काल में अमेरिका, अफ्रीका, भारत सहित एशिया, ऑस्ट्रेलिया समेत एक ही महाद्वीप था। प्राकृतिक शक्तियों की असाधारण हलचलों ने समुद्र में भारी हलचल उत्पन्न की और वह विशाल भूखण्ड टुकड़े-टुकड़े हो गया, बहुत सी भूमि समुद्र में चली गयी और समुद्र तल भूमि के रूप में उभर आया। इसी हलचल में तापमान भी घट गया और हिमयुग आरम्भ हो गया। (4) जर्मन भूगर्भवेत्ता ने सिद्ध किया है कि उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव 140 उत्तरी अक्षाँश पर था। कार्बोनीफरस काल में वह 36 डिग्री उत्तरी अक्षाँश तक बढ़ आया ओर मायोसीन काल में वह 51 डिग्री अक्षाँश पर आ पहुँचा। इस चल बदल से विश्व की जलवायु में विशाल परिवर्तन आ गया और हिमयुग प्रारम्भ हो गया (5) भूगर्भीय शक्तियों के कारण पृथ्वी का धरातल इतना ऊपर उठा दिया गया कि वह आकाश की हिम रेखा तक जा पहुँचा और बर्फ से ढ़क गया। कहा जाता है कि आजकल जहाँ हिमालय है वहाँ कभी ‘टिथिस’ सागर था। समुद्र गर्भ ने उस परिवर्तन से अपना स्थान हिमालय बना लिया। ऐसी उथल पुथल के दिनों में तापमान में भी अप्रत्याशित गिरावट उत्पन्न हो जाना कोई आश्चर्य की बात नहीं है।
जो हो यह निश्चित है कि प्लीस्टोन काल में पृथ्वी के अधिकाँश भाग पर हिम आवरण पड़ गया था। उसने 2 करोड़ 5 लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्र हिमाच्छादित कर लिया था। उत्तरी गोलार्ध में कहीं-कहीं बर्फ की मोटाई 615 मीटर तक जा पहुँची थी, दक्षिणी गोलार्ध अपेक्षाकृत कम क्षेत्र में हिमाच्छादित हुआ था।
जहाँ अपेक्षाकृत हलकी बर्फ थी और जीवन रक्षा के साधन शेष थे वहीं प्राणी जीवित रह सके अन्यथा हिम युग से पूर्व का जीव जगत एक प्रकार से समाप्त ही हो गया। इसमें भी एक विशेषता यह रही कि उस काल के विकसित जीव जिनमें विशाल कार्नीवोरस हाथियों की कितनी ही जातियाँ भी सम्मिलित हैं, एक प्रकार से लुप्त ही हो गये। हिमयुग से पूर्व के उनके शरीर तो पाये जाते हैं पर पीछे उनका वंश ही समाप्त हो गया। किन्तु कम विकसित जीव अपना अस्तित्व बनाये रहे और उनकी नस्लें हिमयुग से पूर्व की तरह अभी भी मौजूद हैं।
प्रकृति चाहती है कि दुर्बलताग्रस्तों का कूड़ा कचरा साफ होता रहे। कमजोर रोते कराहते सृष्टि का सौंदर्य बिगाड़ें यह उसे उपयुक्त नहीं लगता है। फसल के समय चतुर किसान अच्छे अनाज को बीज बोने के लिए सँभाल कर रख लेते हैं और शेष हलके गेहूं को चक्की में पिसने और पेट की आग का ईंधन बनने के लिए डाल देते हैं। प्रकृति भी समर्थ और बलवानों के अस्तित्व को बनाये रखकर अपने गौरव की वृद्धि करना चाहती है। इसके लिए वह समय-समय पर आकस्मिक विपत्तियाँ लाकर सामने खड़ी करती रहती है ताकि छाँट फटक का प्रयोजन पूरा हो जाय। हिमयुगों ने न केवल जल को थल में- थल को जल में बदला वरन् दुर्बल प्राणधारियों का सफाया करने की प्रक्रिया भी पूरी करली। मजबूत स्थिति के जीवों को तो इस हिम क्रान्ति में भी अपना अस्तित्व बनाये रहने का अवसर मिल गया।
स्थूल बुद्धि से दीखने पर धरती के वातावरण में जीवों की उत्पत्ति होती है और आहार के साधन भी धरती पर ही उगते प्रतीत होते हैं। पर बारीकी से देखा जाय तो समुद्र की उर्वरा शक्ति पृथ्वी से अधिक है और धरती जितने जीवों का निर्वाह करती है उससे कहीं अधिक को प्रश्रय समुद्र देती है। जीवन का आदि तत्व-प्रोटोप्लाज्म-आरम्भ में समुद्र से ही उत्पन्न हुआ था और सर्वप्रथम जल जीवों का ही अस्तित्व इस संसार में दृष्टिगोचर हुआ था।
समुद्री जीवों को तीन भागों में विभक्त किया गया है। (1) प्लैंकटन -जो स्वयं चल फिर नहीं सकते, लहरें धाराएं और ज्वार-भाटे इन्हें इधर-उधर घुमाते फिरते हैं समुद्री पौधे और बहुत छोटे कीड़े इसी वर्ग में आते हैं (2) नैक्टन-स्वतः चल फिर सकने में समर्थ (3) वेन्थस-समुद्र की गहराई में एक स्थान पर ही रहने वाले विचित्र बनावट वाले जल जन्तु। इनमें कितने ही ऐसे भी हैं जिनकी विचित्रता स्तब्ध कर देती है। हाथी की सी सूंड़ वाला जलदैत्य-भीमकाय व्हेल, शार्क जैसे आक्रमण कारी मगरमच्छ अपने ढंग के अलग हैं और छोटे अमीबा बैक्टीरिया सरीखे सहज ही न दिखाई देने वाले जन्तु भी कम नहीं हैं। संख्या की दृष्टि से थलचरों की तुलना में जलचर अनेक गुने अधिक होंगे। मछलियों का तो एक प्रकार से समुद्र में ऐसा ही साम्राज्य है जैसा धरती पर मनुष्यों का। आँख से जलराशि के भीतर की सम्पदा भले ही दीख न पड़े पर अनुभव बताता है कि आँख की जानकारी ही सब कुछ नहीं है- न दीखने वाली दुनिया की-विशालता और सम्पदा दृश्यमान की अपेक्षा कहीं अधिक है।
समुद्री कीड़ों में ‘प्रवाल’ अपने ढंग का अनोखा है। उनने विशाल महासागरों में सहस्रों द्वीपों का निर्माण कर दिया। आमतौर से वे 23 डिग्री- 29 डिग्री सेन्टीग्रेड तापमान पर क्रियाशील रहते हैं। जल मग्नता ही उन्हें पसन्द है। ज्वार की लहरें जितनी ऊपर उठती हैं यह प्रवाल कीट पर्वत भी उतने ही ऊँचे उठते हैं। वे समुद्र में पाई जाने वाली ‘चाक’ मिट्टी खाते हैं। उनके शरीरों से एक विशेष प्रकार का द्रव पदार्थ निकलता है उससे एक कड़ा आवरण बनता जाता है। वे उसी स्वनिर्मित भवन कलेवर के भीतर रहते हैं। यह कलेवर भी विचित्र हैं, केले की जड़ों में से अपने आप निकलते रहने वाले पौधों की तरह नये अंकुर उपजाना है और प्रवाल में से शाखा-प्रशाखाएं, बारहसिंगा के सींगों की तरह फूटने लगती हैं। उन्हीं में से नये प्रवाल कीड़े उत्पन्न होते हैं।
दक्षिण पश्चिम हिन्द महासागर में प्रवाल निर्मित एक शृंखला है। इस शृंखला की ऊँची चोटियों पर मालदीव, लंकादीव, चागोज, सिचेलीज, आर्कपेला गोज द्वीपमाला स्थित है।
कितने ही व्यक्ति प्रवाल कीड़ों की तरह शान्त चित से दृढ़ निश्चय और अनवरत श्रम के साथ अपने लक्ष्य में तन्मय रहते हैं। हलचलों की उथल पुथल को देखने वाले उन्हें निष्क्रिय कह सकते हैं पर समय बताता है कि कुछ क्षण उछल-कूद करके फिर हाथ पैर ढीले कर बैठने वालों की अपेक्षा धैर्य के साथ निरन्तर किया जाने वाला पुरुषार्थ समय पर कितना विशालकाय बनकर सामने आता है।
मिट्टी खाकर मूँगा पैदा करने वाले यह प्रवाल कीड़े मधुमक्खी को भी मात करते हैं जो फूलों को शहद में बदलने के लिए प्रसिद्ध है। सन्त, सज्जन समाज में न्यूनतम अनुदान लेकर बदले में एक से एक बढ़कर सेवासाधना के कार्य सम्पन्न करते रहते हैं। उनकी प्रतिभा, बुद्धि, सामर्थ्य, सम्पदा सब कुछ शाखा-प्रशाखा फोड़ती हैं। प्रवाल कीड़ों की यह विशेषता भी सज्जनों में पाई जाती है कि वे संकटों के सागर में डूबे रहते हुए भी अपना मस्तिष्क विक्षुब्ध न होने दें।
नदियाँ धरती का नमक लेकर समुद्र में ही फेंकती रहती हैं। समुद्र उसे पचा जाता है। अपने तक ही सीमित रहता है। बादलों को वह निर्मल, मधुर जल ही प्रदान करता है।
प्रति किलोग्राम सागर जल में प्रायः 35 ग्राम नमक घुला होता है। इसमें खाने योग्य नमक 27 ग्राम और अखाद्य नामक 8 ग्राम है। नदियों द्वारा भूखण्डों से जल प्रवाह के साथ लाये गये नमक समुद्रों में जमा होते चले जाते हैं। इस प्रकार यह मात्रा बढ़ती चली जाती है। उन लवणों में से तो कुछ तो समुद्री जीव अपनी शरीर रचना और आहार की पूर्ति में खर्च कर लेते हैं फिर भी वह मात्रा बढ़ती ही रहती है।
यों नदियों ने खारापन ही समुद्र को दिया है पर उसका भी वह उपयोगी पदार्थ बनाकर लोगों को देता है। समुद्री नमक से लोग कितने ही उपयोगी पदार्थ बनाते हैं और उनमें कितनी सम्पदा उपार्जित करते हैं यह किसी से छिपा नहीं। समुद्र की तरह ही सज्जन भी अपनी हर सम्पदा को लोकोपयोगी बनाने में तत्पर रहते हैं।
समुद्र की गहराई में जितना नीचे उतरा जाय उतना ही उसका तापमान घटा हुआ मिलेगा। 200 मीटर गहराई में 16 डिग्री सेन्टीग्रेड तापमान पाया जाता है पर वह 600 मीटर पर 7 डिग्री, 1200 पर 3, 1800 पर 2 और 3000 मीटर पर 1.8 डिग्री रह जाता है। आर्कटिक महासागर के दक्षिण में स्थित महासागरीय तलियों में तापमान शून्य सेन्टीग्रेड अर्थात् जल जमने जितना पाया जाता है। इसी प्रकार ऊँचा तापमान प्रशान्त द्वीपों के समीप सागर तली में 21 सेन्टीग्रेड लगभग पीने के पानी तुल्य तापमान का रहता है। 5850 मीटर से नीचे तो सर्वत्र ही शून्य तापमान पाया जाता है।
वाह्य जीवन की विभिन्नता एवं विक्षोभकारी परिस्थितियों से साधारणतया हर किसी को उद्विग्नता होती है और उस उत्तेजना में समस्याओं के समाधान का हल निकलता है फिर भी वे महापुरुष जिनका व्यक्तित्व समुद्र जैसा विशाल है अपने अन्तःक्षेत्र की गहराई में बर्फ जैसी शीतलता भी भरे रहते हैं। वस्तुतः न तो वे उद्विग्न होते हैं और न क्रुद्ध। क्रिया-कलाप से, विपन्नता से निपटने वाला आवेश भले ही हो पर वे मानसिक सन्तुलन की दृष्टि से सदा शाँत और शीतल ही पाये जाते हैं।
समुद्र भौतिक दृष्टि से जो भी हो आत्मिक दृष्टि से हमें बहुत कुछ शिक्षा और प्रेरणा दे सकने में समर्थ है। यदि हम उन पर ध्यान दें तो निस्सन्देह समुद्र जैसे ही गम्भीर और महान बन सकते हैं।