उपलब्धियों का सदुपयोग किया जाय।

December 1972

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भगवान ने मनुष्य को बहुत कुछ देकर भेजा है। वह न तो निर्बल न निर्धन। न अभावग्रस्त न असहाय। जन्मजात रूप से सब कुछ न सही तो बहुत अवश्य है।

इसके अतिरिक्त उसे साधन सम्पन्न मनोबल मिला है। बुद्धि की चमत्कारी क्षमता उसके पास है। इस उपकरण के माध्यम से वह संसार में उपलब्ध अगणित विशेषताओं से सम्पन्न पदार्थों को अपने लिये प्रयुक्त किया जा सकने योग्य बनाने में समर्थ है। यह असीम साधन सम्पन्न संसार मानो उसी की सम्पदा-उपभोग सामग्री के रूप में विनिर्मित किया गया है।

बुद्धि कौशल से उसने ज्ञान विज्ञान की अनेक शाखाओं का निर्माण किया है और सुविधा सामग्री को असीम मात्रा में बढ़ाया है। हविस अभी पूरी नहीं हुई है। अधिकाधिक उपलब्धियाँ साधन सुविधायें प्राप्त करने के प्रयत्न अभी शिथिल नहीं हुए, प्रखर ही होते चले जा रहे हैं। आशा की जानी चाहिए कि अगले दिन मनुष्य और भी अधिक साधन सम्पन्न होगा।

जन्मजात शारीरिक, मानसिक विशेषताओं में बुद्धि कौशल से उपार्जित भौतिक साधनों की मात्रा और मिल जाने से निस्सन्देह मनुष्य का वैभव अतिशय बढ़ता चला जा रहा है। मनोवैज्ञानिक त्रुटि के कारण उपलब्धियों की उपेक्षा करना उन्हें नगण्य मानना और कल्पित अभाव से दुखी रहना। यह बात तो दूसरी है पर संक्षेप में इतना कहा जा सकता है कि विश्व के समस्त प्राणियों की तुलना में मनुष्य अधिक साधन सम्पन्न है। साथ ही यह भी कहा जा सकता है कि प्रागैतिहासिक काल से लेकर अद्यावधि अधिक साधन प्राप्त करने की दिशा में प्रगति ही होती रही है। जो कुछ दैवी अनुग्रह के तथा मानवी पुरुषार्थ के रूप में अब तक प्राप्त किया जा सका है। वह असाधारण ही नहीं अद्भुत भी है।

प्रश्न इन उपलब्धियों के सदुपयोग का है। इसी स्थान पर भारी भूल होती रही है। जो मिला हुआ है उसका सही उपयोग क्या है यह न जान पाने के कारण इस तरह खर्च किया जा रहा है जिससे अपेक्षाकृत कष्ट और विनाश की ही विभीषिकायें प्रस्तुत होती हैं।

विज्ञान को आज असीम शक्ति प्राप्त है। यदि विज्ञान का उपयोग सृजनात्मक उद्देश्य के लिये किया जाय तो ऋतु प्रभावों के नियन्त्रण, आँधी तूफान की रोक, वर्षा और बाढ़ का सन्तुलन, समुद्र के खारेपन का निराकरण खाद्य वस्तुओं का अभिवर्धन, विद्युत शक्ति की प्रखरता, स्वल्प व्यय साध्य यातायात, रोग नियन्त्रण जैसे अनेक उपयोगी कार्य किये जा सकते हैं और इस दुनिया को अधिक सुखी, सुन्दर एवं समुन्नत बनाया जा सकता है।

शिक्षा, शिल्प, कला, धन, शस्त्र आदि विभिन्न क्षेत्रों में उत्पादन और अभिवर्धन की ही बात सोची जाती रही है। यह ध्यान नहीं दिया गया कि उन उपलब्धियों का श्रेष्ठतम सदुपयोग क्या हो सकता है और उन्हें किस प्रकार प्रयुक्त करके सुख शान्ति की परिस्थितियाँ बढ़ाई जा सकती हैं। यदि यह सदुपयोग की बात आगे भी उपेक्षित होती रही तो बड़ी-चढ़ी उपलब्धियाँ विनाश का कारण ही बनेंगी।

विज्ञान की प्रगति परमाणु रहस्यों को खोज लाने में समर्थ हुई और एक बड़ा शक्ति भंडार हाथ में आ गया। पर इसमें खुशी मनाने की बात सामने नहीं आई। अणुबम बना लिये गये और उसमें समस्त धरती को क्षण भर में जल-भुनकर भस्म हो जाने का संकट सामने आया गया।

बढ़ा हुआ धन विलासिता और शोषण उत्पीड़न के नये जाल बुनने में लग गया। कला ने पशु प्रवृत्तियों को भड़काकर उसे पतनोन्मुख कुमार्गगामी बना दिया शिक्षा ने अहंकार बढ़ाया, धूर्तता के हथियार तेज किये और जनसाधारण को दिग्भ्रांत करने की कुशलता प्राप्त कर ली।

शरीर शक्तिशाली ऐसी इन्द्रियों से सम्पन्न है कि यदि उनका सदुपयोग होता तो इसी काया में देवत्व झाँकता। मानसिक विशेषतायें अद्भुत हैं यदि उन्हें सृजनात्मक दिशा में सोचने और लोक मंगल के लिए कुछ करने में प्रवृत्त किया गया होता तो इस धरती की गरिमा तथाकथित स्वर्ग से भी बढ़ी-चढ़ी होती, पर इस दुर्भाग्य को क्या कहा जाय जो सदुपयोग की बात गले से नीचे ही नहीं उतरने देता।

लीग फॉर स्प्रिचुअल डिस्कवरी की इतालवी शाखा ने ‘अन्तःचेतना का विस्तार और उसकी अभिव्यक्ति’ पर एक शोध ग्रन्थ प्रकाशित किया है- उसमें अनेक तर्क प्रमाण और उदाहरण प्रस्तुत करते हुए बताया गया है कि अर्थ परायण स्वार्थपरता और इन्द्रिय परायण भोग लिप्सा यदि प्रबल रहेगी तो मनुष्य अन्तरंग समर्थता से वंचित ही रहेगा। इन दोनों प्रवृत्तियों में निम्न स्तरीय आकर्षण इतना अधिक है कि वह ऊँचा सोचने और ऊँचे आदर्शों को अपनाने का अवसर ही नहीं देती। आत्म परिष्कार और आत्म-बल की सम्पन्नता के लिए अन्तःचेतना को निम्न स्तर से उच्च स्तर की ओर प्रवृत्त किया जाना आवश्यक है। इसके लिये प्रथम चरण अर्थ लोलुपता और इन्द्रिय लिप्सा की ओर से विरत होना और आत्म विकास के महत्व को हृदयंगम करना ही हो सकता है।

मैटाफिजिक्स विज्ञान के अन्वेषी डॉ. टिमोडे लियरी का कथन है कि- ‘इन्द्रिय लिप्सा में संलग्न मनःचेतना का प्रवाह उच्चस्तरीय आस्थाओं पर केन्द्रित किया जा सकता है’। बौद्धिक उत्कृष्टता प्राप्त करने के लिये यह आवश्यक है कि उच्च स्तर की प्रवृत्तियों में प्रगाढ़ अभिरुचि उत्पन्न की जाय। केवल चिन्तन और मनन ही काफी नहीं अभिरुचि की प्रगाढ़ता से आस्था बलवती होती है। उसी बलिष्ठता के बलबूते मनुष्य महान बनता है। पर अभिरुचि का आकर्षण आमतौर से इन्द्रिय लिप्सा और मानसिक समर्थता में से एक को प्रधान बनाना होता है। इनमें से जिस पर अभिरुचि केन्द्रित रहेगी प्रगति उसी दिशा में होगी।

समग्र इन्द्रिय अनुभूतियों में 83 प्रतिशत ज्ञान मनुष्य को नेत्र इन्द्रियों से प्राप्त होता है। इसके बाद कान का नम्बर आता है। नेत्र और कान हमारे ज्ञान की अभिवृद्धि करते हैं। तदनुसार मनः संस्थान का निर्माण होता है। व्यक्तित्व को ढालने में मुख्यतया इन दो इन्द्रियों का ही हाथ है।

रसानुभूति, उल्लास और इच्छा लिप्सा को उत्तेजित करने वाली और तृप्ति देने वाली इन्द्रियों में जननेन्द्रिय प्रथम और जिह्वा द्वितीय है। वयस्क होने से पूर्व रसना की प्रधानता रहती है। स्वाद बहुत प्रभावित करता है पर जब काम संस्थान विकसित हो जाते हैं तब उनका उफान प्रधान बन जाता है। वृद्धावस्था में जननेन्द्रिय की शक्ति क्षीण हो जाती है तो फिर रसना बलवती होने लगती है। बूढ़े लोगों को बालकों की तुलना में गिनने की उक्ति प्रचलित है उसमें दो ही कारण प्रधान मालूम पड़ते हैं एक शारीरिक दुर्बलता के कारण परावलम्बन और स्वाद के लिये मन का अधिक ललचाना। काम क्रीड़ा और स्वाद लिप्सा की आकाँक्षायें, इच्छा, तृष्णा, विकलता और तृप्ति के चढ़-उतारों के झूले में झुलाती हुई रसानुभूति को ही स्पर्श करती है। व्यक्तित्व के विकास एवं मानसिक निर्माण में उनमें कोई विशेष सहायता नहीं मिलती।

यदि इन इन्द्रियों का अन्तः चेतना का उपयोग तुच्छ प्रयोजन में करके उनकी महान शक्ति को बर्बाद होते रहने से रोका जा सके और उन्हें उद्देश्य युक्त दिशा में नियोजित किया जा सके तो अति साधारण स्थिति का मनुष्य भी अति उच्च स्थिति में पहुँच सकता है। बर्बादी को रोकने और उपलब्धियों को उच्च प्रयोजन में लगाने की बात न जाने क्यों किसी को सूझती ही नहीं?

धर्म, नीति, सदाचार, समाज का अति महत्वपूर्ण ढाँचा खड़ा तो किया गया पर उनमें भी संकीर्ण स्वार्थपरता और पक्षपात की इतनी मात्रा भर दी गई कि वे उपयोगी आधार एक प्रकार से अनुपयोगी बनते जा रहे हैं और न्याय के स्थान पर अन्याय का अभिवर्धन करते हैं।

मध्यकालीन सामन्तवादी परम्परायें इसी प्रकार की हैं। एक वर्ग दूसरे वर्ग को लूटने, मिटाने में अपनी बहादुरी मानता रहा है और इसी आधार पर समृद्ध ही नहीं प्रशंसित भी होता रहा है। सामन्ती इतिहास के पृष्ठ ऐसी ही मार काट से भरे पड़े हैं और उन आक्रमणकारियों को योद्धा, विजेता के रूप में चित्रित किया जाता रहा है। वीरता का यह कैसा निर्मम उपहास है। अनीति को रोकने की अपेक्षा जिसकी लाठी उसकी भैंस वाला जंगली कानून बलात् थोपने के लिये जो आक्रमण क्रूरता अपनाई जाय उसे वीरता का जामा पहनाया जाय। आततायियों का यशगान गाया जाय। इसे उपलब्धियों का अनाचार ही कहना चाहिए। यदि वह बहादुरी सदुद्देश्य के संरक्षण में प्रयुक्त हुई होती तो कैसा अच्छा होता?

धर्म और नीति का वर्ग विशेष के लिए पक्षपात पूर्ण प्रचलन करने में उनकी महत्ता बढ़ी नहीं घटी ही है पिछले दिनों दुमुँही नैतिकता का मापदण्ड चलता रहा है। अपनों के लिए और बिरानों के लिए और। तथाकथित धार्मिक और नैतिक प्रतिपादनों में ऐसी ही भर-मार है जिससे नीति, धर्म, उदारता, सहायता आदि का उपदेश तो है पर वह ‘अपनों’ तक ही सीमित रखा जा सकता है परायों में उस तरह के सद्व्यवहार की उतनी आवश्यकता नहीं मानी गई है। अपनी जाति, वेश, धर्म, से बाहर के लोगों को लूटा, सताया जाना उतना बुरा नहीं माना गया है। कई धर्मों में तो काफिरों-म्लेच्छों से दुर्व्यवहार करने की छूट है। यह काफिर या म्लेच्छ व्यक्तिगत दोष−दुर्गुणों के कारण नहीं वरन् अपने वर्ग सम्प्रदाय में भिन्न होने के कारण उन्हें वैसा घोषित किया जाता रहा है।

कुछ लोग सद्ज्ञान को पर्याप्त मानते हैं। सोचते हैं शिक्षा से आदमी सभ्य बन सकता है। कुछ का ख्याल है कि धर्म मान्यतायें मनुष्य को उदात्त बना सकती हैं पर यह मान्यता सही नहीं है। यह हो सकता है कि कोई मनुष्य दार्शनिक, धर्मोपदेशक, उपासना रत हो किन्तु उसके क्रिया-कलाप में स्वार्थपरता, संकीर्णता और दुष्टता भरी पड़ी हो। इसलिए चिन्तन को अपर्याप्त एकाँगी मानना होगा तथा ज्ञान और कर्म के समन्वय सन्तुलन पर जोर देना पड़ेगा।

आवश्यकता इस बात की है कि हम विशाल दृष्टिकोण लेकर विचार करें जो भूतकालीन परम्पराओं के प्रति दुराग्रही न रहकर तथ्यों पर विचार करें और यह देखें कि जो ज्ञान, प्रचलन एवं साधन उपलब्ध हैं उनका सदुपयोग हो रहा है या नहीं?

आज अलग-अलग वर्गों के स्वार्थों को अलग-अलग करके समस्याओं का हल नहीं ढूंढ़ा जा सकता। एक वर्ग का स्वार्थ सिद्ध होता हो और दूसरे को उससे क्षति पहुँचती हो तो बात बनेगी नहीं। इससे विग्रह खड़ा होगा और वह विग्रह एक पक्षीय स्वार्थ साधन करने वालों को लाभान्वित न होने देगा। यदि अमेरिका दक्षिण ध्रुव की बरफ पिघलाकर वहाँ अपने निवास, विस्तार के लिए क्षेत्र तैयार करे तो पिघली बरफ से समुद्र सतह ऊँची उठेगी और उससे हालैंड सरीखे नीची सतह के कई देश डूब जायेंगे। ऐसी दशा में एक वर्ग का ऐसा स्वार्थ जो दूसरों को हानि पहुँचाकर सम्पादित किया गया है विश्व परिवार को सहन न होगा और ऐसा विग्रह उठ खड़ा होगा जिसमें एक पक्षीय स्वार्थ साधन की बात सोचने के लाभ के स्थान पर हानि सहन करनी पड़े।


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