कुछ शिष्य परमार्थ को अधिक महत्व दे रहे थे, कुछ का कहना था स्वार्थपूर्ति के बिना जीवन निरर्थक है। दोनों वर्ग प्रतिपक्षी से सन्तुष्ट न हो पा रहे थे तब मामला एक सन्त के पास ले जाया गया।
सन्त ने उन सबको बैठा लिया और बिल्कुल ही नया प्रसंग छेड़कर उनसे बातें करने लगे। इसी बीच एक सज्जन आये अपने साथ फल व मिठाई भी प्रसाद में लाये थे। सन्त ने प्रसाद ले लिया और बिना किसी से कुछ कहे पूछे सारा प्रसाद स्वयं भक्षण कर लिया। कुछ देर में एक अन्य जिज्ञासु पधारे वह भी भेंट में मिष्ठान , मेवे लाये थे। महात्मा ने उन्हें हाथ में लिया और खिड़की से बाहर फेंक दिया। इसके बाद आगन्तुक से कुशल मंगल पूछते और मीठी मीठी बातें करते रहे पर आगन्तुक सारी वार्ता उखड़ा-उखड़ा रहा और थोड़ी ही देर में उठकर घर चला गया।
तभी एक और भी सज्जन पधारे , वे भी अपने साथ फल-फूल लाये थे, महात्मा ने उस प्रसाद को उपस्थित सब लोगों को बाँटा, अपना हिस्सा भी लिया और फिर उनसे खूब अच्छी-अच्छी बातें करते रहे।
तीनों के जाने के बाद संत ने अलग-अलग तीनों के यहाँ एक-एक व्यक्ति यह पता लगाने भेजा-आया संत का उनके प्रति आचरण उचित था या अनुचित? कुछ देर बाद पता लगाकर तीनों व्यक्ति लौट आये। पहले ने बताया महाराज! वह आदमी तो आप पर बहुत रुष्ट है, कह रहे थे संत महास्वार्थी है अपना ही पेट भरता है,। ‘और दूसरा भी नाराज है’- दूसरा व्यक्ति बोला- कह रहे थे कि मैं इतने प्रेम से प्रसाद ले गया मुझसे तो मीठी-मीठी बातें की पर प्रसाद बाहर फेंक दिया। दम्भी कहीं का।
तीसरे ने कहा-महाराज! तीसरा व्यक्ति आप से बहुत प्रसन्न है कह रहा था- सचमुच महाराज संत हैं जो पाया सबको बाँट दिया- जो आया सबसे प्रेमपूर्वक भेंट की।
अब महात्मा बोले- तात! संसार में रहने का यही तरीका सर्वोत्तम है, परमात्मा की दी हुई वस्तुओं का उपयोग मिल-जुलकर करो और सबके साथ विनम्र व्यवहार करो। एकाँगी न तो स्वार्थ ही उचित है और न परमार्थ-पुण्य।