माया से मुक्त-अज्ञान बन्धन से छूटे हुए व्यक्ति की स्थिति का वर्णन करते हुए श्रीरामकृष्ण परमहंस ने कहा है-
‘पारस से छू ली गई तलवार सोने की बन जाने पर दीखती तो तलवार ही है पर वह इतनी मुलायम हो जाती है कि हिंसा का प्रयोजन पूरा नहीं कर सकती। इसी प्रकार ज्ञानयुक्त व्यक्ति किसी का अनिष्ट नहीं कर सकता।’
‘चुम्बक पत्थर के पर्वत के समीप पहुँचने पर गोदी में भरे लोहे के कील, काँटे अनायास ही उड़कर पर्वत के पास चले जाते हैं और गोदी में रखा वह भार अनायास ही खाली हो जाता है, इसी प्रकार गुण, कर्म, स्वभाव में भरे हुए समस्त कषाय कल्मष ईश्वर विश्वास रूपी चुम्बक पर्वत खींच ले जाता है और मनुष्य निर्मल हृदय एवं पवित्र जीवन बन जाता है।’
“मिश्री का नाम लेते रहने से मुँह मीठा नहीं होता और न घी को देखने से शरीर पोषण होता है। मिश्री या घी खाने से ही लाभ मिलता है। ईश्वर का नाम रटने से ही काम नहीं चलता। उसे खाना, पचाना और आत्मसात करना होता है।”
‘ज्ञानी की वृत्ति अन्तर्मुखी होती है वह विघ्न, संकट और असफलता में भी निर्विकार बना रहता है और सम्पत्ति तथा सफलता पर अहंकार नहीं करता और न हर्षोन्मत होता है।’
‘ज्ञानी हठी होता है। जिसे वह सत्य एवं श्रेयस्कर मानता है, उसी को अपनाता है भले ही सारी दुनिया उसका विरोध, असहयोग करती रहे।’
‘काष्ठ में अग्नि है यह जान लेने भर से कुछ काम नहीं चलता। काष्ठ को जलाकर जिसे अग्नि प्रज्ज्वलित करना आता है वही भोजन पकाने का लाभ लेता है। ईश्वर सबमें समाया हुआ है यह जानने भर से कुछ काम नहीं चलता। ईश्वर के साथ क्या व्यवहार करना चाहिए इसे समझकर जो वस्तुओं का सदुपयोग और व्यक्तियों से सद्व्यवहार करता है वह ब्रह्मज्ञानी है’।
‘सरल मन वाला बालक सब कुछ चेतन देखता है। जड़ में भी उसे एक हँसती, बोलती और कर्तव्यनिष्ठ सत्ता काम करती दिखाई पड़ती है। न उसमें अहंकार होता है न दुर्भाव। न कामना, न तृष्णा। लकड़ी के टुकड़े को घोड़ा मानकर मोद मनाता है और बालू का महल बनाकर हँसता, उछलता रहता है। जो सामने है-उपलब्ध है- उसी में से मोद मनाने लायक अवसर उत्पन्न कर लेना ब्रह्मज्ञानी का लक्षण है।’