सायंकाल के समय श्री रामकृष्ण परमहंस एक नागा सन्त श्री तोतापुरी के साथ, उनकी धूनी के समीप बैठे आध्यात्मिक वार्तालाप कर रहे थे। वार्तालाप करते-करते दोनों महानुभाव अत्यन्त उच्च स्तर पर पहुँच गये थे। अद्वैत ज्ञान की चर्चा में दोनों तन्मय होकर ‘एकोब्रह्म द्वितीयो नास्ति’ का आनन्द अपने अन्दर अनुभव कर रहे थे।
तभी बाग का एक नौकर अपनी चिलम लेकर आग की तलाश में आया और आग लेकर चिलम भरने लगा। तब तक बाबा को कुछ पता न चला। किन्तु नौकर के चिलम भर कर उठते ही बाबाजी की तन्द्रा भंग हो गई। नौकर की धृष्टता समझते ही वे उस पर बरस पड़े और नागाओं की विशेष भाषा में भला-बुरा कहने लगे। जब इससे भी क्रोध की संतुष्टि न हुई तो उठकर दो-चार चिमटे भी उसके जमा दिये।
इधर बाबाजी अपने इस काम में लगे हुए थे, उधर स्वामी रामकृष्ण परमहंस तोतापुरी जी को शाबाशी देते हुए हँसी से लोट-पोट हो रहे थे। तोतापुरी जी को स्वामी जी की उस हँसी और शाबाशी देने पर बड़ा आश्चर्य हो रहा था। नौकर को भगा देने के बाद उन्होंने स्वामी जी से पूछा- ‘आप इस प्रकार हँसते हुए मुझे शाबाशी क्यों दे रहे हैं। क्या आपने नहीं देखा कि उस नौकर ने कितनी बड़ी धृष्टता की। आप जानते ही हैं कि हम नागा लोग धूनी की आग को कितना पवित्र मानते हैं। उसे इस आग को छूकर अपवित्र करने का क्या अधिकार था?’
स्वामी जी और भी जोर से हँसकर बोले- ‘यह आज आपसे पता चल गया कि आग भी किसी के छूने से अपवित्र हो जाती है। इसके साथ आपके ब्रह्मज्ञान और अद्वैतवाद की वास्तविकता का भी पता चल गया। अभी आप कुछ क्षण पहले ‘एकोब्रह्म द्वितीय नास्ति’ की जोरदार घोषणा करते हुए कह रहे थे कि यह सम्पूर्ण अग-जग एक ब्रह्म के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। संसार के जो भी प्राणी और पदार्थ दृष्टिगोचर हो रहे हैं वे सब एक ब्रह्म के प्रकाश प्रतिबिम्ब के सिवाय और कुछ नहीं हैं। किन्तु दूसरे ही क्षण आप सारा ज्ञान भुलाकर उस आदमी को भला−बुरा कहने और मारने लगे। वास्तव में अहंकार का अस्तित्व बड़ा प्रबल होता है, उस पर विजय पा सकना सरल काम नहीं है। श्री तोतापुरी जी लज्जित हो गए। उन्होंने उसी समय से अहंकार और क्रोध का परित्याग कर देने की प्रतिज्ञा की और उसे आजीवन निभाया।