धर्म और विज्ञान को मिलकर चलना होगा।

December 1972

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खगोल की गतिविधियां, वस्तुओं तथा प्राणियों का इतिहास, आहार, व्यवहार, आदि की चर्चा करना तथा उनके संबंध में कुछ निर्णय करना भौतिक विज्ञान की गवेषणा से संबंधित है। इस प्रकार की जिज्ञासाओं को यदि धर्म, अध्यात्म आदि के माध्यम से हल किया जायेगा तो गलतियाँ होंगी ही, इसी प्रकार यदि आत्मानुभूतियों की श्रद्धा एवं भावना जन्य सामर्थ्य की खोज अध्यात्म विज्ञान की परिधि से बाहर की जायेगी, उनकी प्रामाणिकता के लिए प्रयोगशाला का आश्रय लिया जायेगा तो यथार्थता की तह तक नहीं पहुँचा जा सकेगा।

पिछली पीढ़ियों पर जो धार्मिक प्रभाव था अब वह धीरे-धीरे लुप्त होता जा रहा है। धर्म को अपनी खोई हुई पुरानी शक्ति तब तक प्राप्त नहीं हो सकती जब तक विज्ञान की भाँति वह भी परिवर्तनों का सामना करने के लिए न हिचकिचाये।

धर्म वस्तुतः एक नैतिक, भावनात्मक एवं सामाजिक परिष्कार की नियोजित प्रक्रिया है। इसका लाभ परलोक में मिलेगा इसकी प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ती। धर्म धारणा जहाँ भी होगी वहाँ आत्म संतोष और आत्म उल्लास की ऐसी शक्ति विद्यमान रहेगी जिसके सामने भौतिक दृष्टि से अभाव ग्रस्त समझा जाने वाला जीवन भी शान्ति और धैर्यपूर्वक, सरल एवं सुरम्य बनाया जा सके।

अक्सर लोगों को यह कहते सुना जाता है कि धर्म से हमें क्या फायदा? क्या इससे गरीबों की गरीबी दूर हो जायेगी? मान लीजिए धर्म ऐसा नहीं कर सकता तो क्या इतने भर से वह निरुपयोगी हो जायेगा?

मान लीजिए आप किसी बच्चे को खगोल विद्या का स्वरूप समझा रहे हैं और बच्चा आपसे पूछता है कि इस जानकारी से क्या उसे टोपी मिल जायेगी? तो उसे यही जवाब देना पड़ेगा कि ‘नहीं इसमें टोपी नहीं मिल सकती’ बच्चा कह सकता है कि तब खगोल विद्या निरर्थक है उसे अपने ढंग से सोचते देखकर यह नहीं मान बैठना चाहिए कि टोपी और खगोल विद्या का परस्पर संगति मिलाने वाला बच्चे का तर्क सही है। भले ही टोपी न मिल सके पर खगोल विद्या की जानकारी की मानवी जीवन में उपयोगिता तो बनी ही रहेगी।

धर्म को पूजा प्रक्रिया तक और कर्म को शिल्प व्यवसाय तक सीमित रखा जाय तो दोनों की गरिमा बढ़ेगी नहीं गिरेगी ही। दोनों अपंग अधूरे रह जायेंगे। इन दोनों का परस्पर पूरक होकर रहना उचित ही नहीं आवश्यक है। पदार्थ में सौंदर्य निखारने का यही तरीका है। कारीगर कलाकार तब बनता है जब अपने क्रिया कलाप में भावपूर्ण मनोयोग को नियोजित करता है। भावपूर्ण मनोयोग तब कल्पना मात्र बनकर रह जायेगा जब उसमें श्रेष्ठ निष्ठा जुड़ी न होगी। इसी प्रकार मात्र श्रम की, कोल्हू के बैल से, भारवाही गधे से तुलना की जाती रहेगी। दोनों का समन्वय ही कर्म कौशल बनकर सामने आता है।

समग्र ज्ञान को दो भागों में बाँटा जा सकता है एक अन्तर्बोध पर आधारित अध्यात्म अथवा धर्म। दूसरा तर्क, परीक्षण अनुभव तथा बताये गये तथ्यों के आधार पर भौतिक जगत संबंधी निष्कर्ष। इनमें एक प्रथम को विद्या दूसरे को शिक्षा कहा जा सकता है प्रथम जानकारी को प्रज्ञा-दूसरी को बुद्धि कहते हैं। और भी स्पष्ट करें तो एक को ज्ञान दूसरे को विज्ञान। एक को धर्म और दूसरे को कर्म कहने से ही वस्तुस्थिति समझी जा सकती है। भ्रमवश यह समझा जाता रहा है कि इन दोनों का स्वरूप तथा कार्यक्षेत्र पृथक पृथक हैं। पर सही बात यह है कि दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। यदि उन्हें असंबद्ध होने दिया जाय तो स्थिति बहुत ही विद्रूप हो जायेगी।

गड़बड़ तब पड़ती है जब दोनों के कार्यक्षेत्र की भिन्नता पहचानने में भूल की जाती है और एक से दूसरे का काम लेने का प्रयास किया जाता है। मनुष्य और पशु एक दूसरे के पूरक हैं। पारस्परिक सहयोग से दोनों ही लाभान्वित होते हैं, किन्तु यदि मनुष्य का कार्य पशु को सौंपा जाय और पशु के कार्य मनुष्य से लिए जायँ तो इसका परिणाम अवाँछनीय ही होगा। धर्म का लक्ष्य है अन्तरात्मा में सन्निहित सत्प्रवृत्तियों को मनोविज्ञान सम्मत पद्धति से इतना समुन्नत करना कि वे व्यावहारिक जीवन में ओत-प्रोत हो सकें। विज्ञान का लक्ष्य है प्रकृतिगत शक्तियों तथा पदार्थों के स्वरूप तथा क्रिया-कलाप की इतनी जानकारी देना कि उनका समुचित लाभ मानवी सुख सुविधाओं की अभिवृद्धि के लिए किया जा सके। दोनों का कार्यक्षेत्र प्रत्यक्षतः अलग है, जिसमें एक दूसरे को हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। फिर भी वे दोनों एक दूसरे के पूरक हैं क्योंकि जीवन आत्मिक एवं भौतिक दोनों प्रकार के तत्वों से मिलकर बना है। जड़ चेतन के समन्वय से ही जीवन का स्वरूप अप्रत्यक्ष होता है इतने पर भी यह अन्तर रखना ही पड़ेगा कि हृदय और मस्तिष्क की तरह दोनों का कार्यक्षेत्र विभक्त हो। एक का कार्य दूसरे पर थोपने की गलती न की जाय। भौतिक तथ्यों की जानकारी में पदार्थ विज्ञान को प्रामाणिक माना जाय और आत्मिक आन्तरिक चिन्तन एवं भावनात्मक प्रसंग में श्रद्धा की आत्मानुभूति को मान्यता दी जाय।

लन्दन विश्वविद्यालय के एस्ट्रोफिजीसिस्ट प्रो. हर्वर्ट डिग्ले का कथन है-विज्ञान की एक सीमित परिधि है। पदार्थ के स्वरूप एवं प्रयोग का विश्लेषण करना उसका काम है। पदार्थ किसने बनाया? किस प्रकार बना? क्यों बना? इसका उत्तर दे सकना वर्तमान में संभव नहीं। इसके लिए विज्ञान की बहुत ऊंची एवं बहुत अद्भुत कक्षा में प्रवेश करना पड़ेगा। वह कक्षा लगभग उसी स्तर की होगी जैसी कि अध्यात्म के तत्वाँश को समझा जाता है।

दार्शनिक रेनाल्ड कहते हैं। -धर्मक्षेत्र को अपनी भावनात्मक मर्यादाओं में रहना चाहिए और व्यक्तिगत सदाचार एवं समाजगत सुव्यवस्था के लिए आचार व्यवहार की प्रक्रिया को परिष्कृत बनाये रखने में जुटा रहना चाहिए। इतनी बात भी कुछ कम नहीं है। यदि धर्म वेत्ता अपनी कल्पनाओं के आधार पर भौतिक पदार्थों की रीति नीति का निर्धारण करेंगे तो वे सत्य की कुसेवा ही करेंगे और ज्ञान के स्वरूप विकास में बाधक ही बनेंगे।

दार्शनिक पॉलिटिलिच ने कहा है धर्म और विज्ञान का मिलन दार्शनिक स्तर पर ही हो सकता है। दोनों के क्रियाकलाप एवं प्रतिपादन की दिशाएं अलग-अलग ही बनी रहेंगी। न तो धर्मशास्त्रों के आधार पर खगोल रसायन, पदार्थ विश्लेषण जैसे निष्कर्ष निकल सकता है और न भौतिक विज्ञान की प्रयोगशालाएं ईश्वर, आत्मा, कर्मफल, सदाचार, भावप्रवाह जैसे तथ्यों पर कुछ प्रामाणिक प्रकाश डाल सकती है। केवल दार्शनिक स्तर ही ऐसा है जहाँ यह दोनों धाराएं मिल सकती हैं।

ह्युमन डैस्टिनी ग्रन्थ के लेखक सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक लैकोम्टे डुन्वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि आधुनिक बेचैनी मुख्य रूप से बुद्धिमानी की कमी के कारण है। इस अविवेक ने ही मानव समाज की दुर्गति की है। विज्ञान अभी तक पालने में पल रहा है। वह वस्तुओं के गुण-धर्म पर तो थोड़ा प्रकाश डालता है पर यह नहीं बताता कि दूरदर्शी बुद्धिमत्ता की घटोत्तरी को कैसे पूरा किया जाय। धर्म में वे बीज मौजूद हैं जिनके आधार पर चेतना में विवेकशीलता का अधिक समावेश हो सकता है पर दुर्भाग्य यहाँ भी जमा बैठा है, आज धर्म का जो स्वरूप है उसमें दुराग्रहों ने जड़ जमाली है और विवेकशील चिन्तन के द्वार अवरुद्ध कर दिये हैं। ऐसी दिशा में सूझ नहीं पड़ता कि बुद्धिमत्ता की कमी किस प्रकार पूरी की जाय?


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