जीवन जीना- एक श्रेष्ठ कला

December 1972

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एक कुशल चित्रकार साधारण रंगों के समन्वय से जब चित्र बनाता है, जिसमें जीवन बोल रहा जान पड़ता है, तब हम आश्चर्य मुग्ध हो उठते हैं। एक सामान्य पत्थर से कुशल मूर्तिकार देवताओं की सृष्टि करता है। एक संगीतज्ञ शब्दों के भीतर छिपे अनन्त माधुर्य, आनन्द और रहस्य को उद्भासित कर देता है। अव्यक्त सौंदर्य को व्यक्त करना ही कला का लक्ष्य है। जीवन भी एक कला है। महात्मा गान्धी के शब्दों में तो- ‘जीवन समस्त कलाओं से श्रेष्ठ है, जो अच्छी तरह जीना जानता है, वह सच्चा कलाकार है।’

जैसे समस्त कलाएं अदृश्य सौंदर्य की अभिव्यक्ति करती हैं वैसे ही जीवन सत्य, शिव और सुन्दर के प्रच्छन्न रहस्यों की अनुभूति और प्रकाशन करता है। जैसे चित्रकार को रंग और कूची, मूर्तिकार को पत्थर और छेनी, संगीतकार को शब्द, सुर, ताल और लय के साधन प्राप्त हैं, वैसे ही मनुष्य को जीवन-कला के चित्रण और प्रकाशन के लिए शरीर, मन और बुद्धि की समृद्धियाँ प्राप्त हैं।

जो अच्छी तरह जीना जानता है, वही सच्चा कलाकार है। हमारी सम्पूर्ण विद्या, हमारा ज्ञान, हमारा धन, हमारे अगणित दावे सब निरर्थक हैं, यदि हमें सुव्यवस्थित ढंग से जीना नहीं आया, यदि हमें जीवन की कला नहीं आई। क्या केवल जन्म लेना, पेट भरना और एक दिन मर जाना ही जीवन है? क्या अपनी हजारों वर्ष की सभ्यता और संस्कृति की यात्रा में मनुष्य ने इतना ही सीखा है? जिस जीवन में अच्छी तरह जीने की क्षमता नहीं, वह जीवन नहीं। अच्छी तरह जीना क्या है? शरीर, मन, बुद्धि और इन सबके द्वारा आत्मा की शक्तियों का अनुभव और उनका अपने तथा जगत के कल्याण के लिए सदुपयोग।

शरीर को लें तो अन्तिम काल तक वह शक्तिमान और समर्थ रहे, श्रेष्ठ कार्यों में उसका उपयोग हो, थकावट और आलस्य पास न फटके, निरोग रहे, रोग लड़ने और उस पर विजय पाने की शक्ति से भरा रहे। मस्तिष्क सक्षम, आँखें प्रकाश से भरी, मुख तेज पूर्ण, दाँत दृढ़ और स्वच्छ, जिह्वा मितभाषी और मधुर बोलने वाली, उभरा हुआ सीना, विकसित पुट्ठेदार बाँहें तथा सबल हाथ शक्तिमान और सब कुछ हजम करने वाला पेट तथा मजबूत पाँव, जो जीवन की लम्बी यात्रा के बोझ से विचलित न हों। यह शरीर को अच्छा रखना है।

मन वह, जिसमें अच्छे विचार आयें, ऊँचे आदर्श की कल्पना हो, जो जीवन को उचित मार्ग पर चलने की दृढ़ता प्रदान करे, जिसमें स्वार्थ की भावना इतनी प्रबल न हो जाय कि दूसरों के हित और कल्याण का ध्यान न रहे, जो शरीर में उत्साह की तरंगें बहाये, जिसमें ईर्ष्या, द्वेष, लोभ, अन्याय का मैल न हो। यह है स्वस्थ मन के लक्षण।

बुद्धि वह, जो विचारों को लक्ष्य की ओर संचारित करें, जो बुराई भलाई का विश्लेषण कर मन को श्रेय की ओर प्रेरित करे, जिसमें समस्याओं के मूल में पैठने की सूझ-बूझ हो, जो जीवन को अन्धकार से निकालकर प्रकाश के मार्ग पर अग्रसर करे। जो अपने और दूसरों के हितों के समन्वय साधे और व्यक्ति तथा समाज के पारस्परिक सम्बन्धों का उचित ढंग से विकास करे।

स्वस्थ शरीर, स्वस्थ मन और श्रेष्ठ बुद्धि का मस्तिष्क इन तीनों का जब सहयोग होता है, तब जीवन कला प्रकट होती है, तब कुत्सित और भद्दी वस्तुयें सुन्दर लगने लगती हैं, स्वार्थ का स्थान त्याग लेता है, अनुदार दृष्टि में उदारता का भाव उत्पन्न होता है। दूसरों के प्रति हम अधिक सहिष्णु, अधिक उदार, अधिक सहानुभूति पूर्ण एवं अधिक आत्मीय बन जाते हैं।

आज जब हम संसार की ओर नजर डालते हैं तो हमें यह देखकर आश्चर्य और दुःख होता है कि असीम सुविधाओं और हानि के अगणित नवीनतम साधनों के बाद भी मानव अशान्त है और मानव की जीवन दृष्टि भी वही पुरानी है। जीवन बदल गया है, दुनिया बदल गई है पर जीवन पर, संसार की समस्याओं पर विचार की दृष्टि पुरानी ही बनी हुई है। आज भी बलवान दुर्बल को, अमीर गरीब को, साधन-सम्पन्न साधनहीन को, शक्तिमान राष्ट्र शक्तिहीन राष्ट्र को, बड़े छोटों को निगल कर ही जीवित रहना चाहते हैं। जिसकी लाठी उसकी भैंस इस धारणा और जीवन दृष्टि को लेकर ही आज भी मानव चल रहा है। हजारों वर्ष के इतिहास में मानव संस्कृति अपने प्रच्छन्न देवत्व को मूर्तिमान करने में प्रयत्नशील रही है। जिस परिमाण में पशुता दबती गई है, उसी परिमाण में सभ्यता का विकास होता गया है। पर जब-जब महान अवसर आये है सभ्यता कसौटी पर कसी गई है, तब तब अन्दर की दबी पशुता ऊपर आ गई। उसने मानवता के सम्पूर्ण प्रयत्नों को विफल कर दिया है। इनका कारण क्या है?

इस असफलता का एकमात्र कारण यही है कि व्यक्ति की जीवन दृष्टि अब भी पुरानी बनी हुई है। अब भी वह प्रेम की अपेक्षा बल प्रयोग पर, हार्दिकता की अपेक्षा आतंक और प्रभुत्व पर अधिक आस्था रखता है। इसीलिए देखने में सरल और निरीह मनुष्य संकट काल में अपना मानसिक सन्तुलन खोकर पागल के समान हो जाते हैं, एक दूसरे का गला काटने लगते हैं, मानव मानव के विरुद्ध खड़ा होता है, सामूहिक हत्यायें युद्ध के नाम से पुकारी जाती हैं, विभिन्न देशों के बची शत्रुता की भावना का प्रचार देश भक्ति समझा जाता है। जीवन में स्वार्थ, प्रतिद्वन्द्विता और जोर-जबर्दस्ती ने सदाचरण, प्रेम और उत्सर्ग का स्थान छीन लिया है।

आधुनिक जीवन का सन्तुलन बिगड़ जाने का कारण यह है कि मानव-प्रकृति का भौतिक पक्ष उसके नैतिक पक्ष से कहीं अधिक विकसित हो गया है। जीवन के भौतिक क्षेत्रों में जो आश्चर्यजनक प्रगति और क्रान्तिकारी परिवर्तन हो गये हैं, नैतिक क्षेत्र में उनके समानान्तर प्रगति और परिवर्तन नहीं हो पाये हैं। दोनों के बीच एक अन्तर, एक खाई आ गई है और पिछले सौ वर्षों में वह तेजी से बढ़ती गई है।

भौतिक जगत की आश्चर्यजनक प्रगति को देखते हुए मानव-समाज के नैतिक एवं आध्यात्मिक जीवन में अथवा भाव-जगत् में बहुत ही कम प्रगति हुई है। पिछले सौ वर्षों में मनुष्य की बौद्धिक शक्तियाँ अत्यन्त वेग से बढ़ी हैं परन्तु आध्यात्मिक विकास के क्षेत्र में मनुष्य बहुत पिछड़ गया है- इतना कि उसमें एक प्रबल निराशा, विवशता और विफलता की भावना घर कर गई है।

जीवन की भौतिक समृद्धि और सुविधाओं में असीम वृद्धि के कारण वासना और भोग-विलास के प्रति प्रलोभन अधिक बढ़ गया है। मनुष्य में अपनी इच्छाओं एवं उपभोगों पर नियन्त्रण रखने की, संयम की शक्ति क्षीण हो गई है। आज आवश्यकता इस बात की है कि हम अपने शारीरिक भोग-विलासों एवं स्वार्थ भावनाओं पर अंकुश रखने तथा लोक मंगल के लिए त्याग भावना एवं आत्मोत्सर्ग की भावना को विकसित कर नये स्वर्ण युग का निर्माण करें। हमें नूतन जगत के लिए नूतन मनुष्य चाहिए, वे जो जीवन के कला की चुनौती का उत्तर देने को तत्पर हों, वे जो नूतन युग के निर्माण के लिए नूतन जीवन दृष्टि धारण करें और अभी तक चली आ रही जीवन की अन्ध परम्परा का त्यागकर नया वास्तविक विशुद्ध जीवन बिताने का निश्चय करें। जब तक व्यक्तियों का जीवन शुद्ध न होगा और उनमें आत्म शोधन, आत्म परिष्कार और आत्मोत्सर्ग का दृढ़ संकल्प एवं संस्कार उद्भूत और विकसित न होगा, तब तक नये स्वर्णिम युग का अवतरण कैसे सम्भव हो सकता है?

मानव-जीवन के गहरे तल में असीम शक्तियाँ पड़ी हुई हैं। हमारा शरीर, मन, बुद्धि अस्वस्थ हैं। इसलिए जीवन की सच्ची कला का उदय नहीं हो पा रहा है। जिस दिन हम जीर्ण जीवन तथा विचार प्रणाली के बन्धनों से अपने मानस को मुक्त करके एक सर्वथा नवीन युग के निर्माण के लिये, नींव देने के रूप में नवीन जीवन-दृष्टि ग्रहण करेंगे और एक नये जीवन के बिताने का निश्चय ही नहीं, आरम्भ कर देंगे, उस दिन हमें एक नूतन मुक्ति, एक नूतन विजय, एक नवीन साहस, एक नवीन स्फूर्ति, एक नई शक्ति, एक नवीन आनन्द और एक नवीन शक्ति का अनोखा, अनिर्वचनीय आनन्द अनुभव होगा।


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