हर्बर्ट स्पेन्सर कहते हैं विज्ञान दर्शन का क्षेत्र अत्यधिक विस्तृत है। विज्ञान मात्र प्रकृति के कुछ रहस्यों पर से पर्दा उठाता है किन्तु दर्शन विश्वचेतना के अनेक पक्षों पर प्रकाश डालता है, बताता है कि चिन्तन की धारायें किसी प्रकार परिष्कृत की जा सकती हैं। प्रकृति की क्षमतायें उपयोग में लाकर अनेक सुविधायें पाई जा सकती हैं पर उन सुविधाओं का समुचित उपभोग करने के लिए मनुष्य की चिन्तन प्रक्रिया का आधार क्या हो यह बताना दर्शन का काम है। दर्शन वृक्ष है और विज्ञान उसकी एक टहनी। विज्ञान वेत्ता की तुलना में दार्शनिक का कार्यक्षेत्र और उत्तरदायित्व अति विस्तृत है।
प्रो. मैक्समूलर और प्रो. पालडिपेजन भारतीय धर्म के गहन अध्ययन के उपरान्त इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि भारत को धर्म और दर्शन का जन्मदाता माना जाना चाहिए। फ्राँस के महान दार्शनिक विक्टरक जिनका कथन है कि- भारत में दर्शन का समस्त इतिहास बहुत संश्लिष्ट है। प्लेटो, सीनोजा, वर्कले, ह्यूम, कान्ट, हेगल, स्कोफेन्यूअर, स्पेन्सर, डार्विन आदि ने एक स्वर से भारतीय दर्शन को विश्व सत्य के अतीव निकट माना है- प्रो. हक्सले का कथन है प्रकृति के कानूनों का जैसा बुद्धिसंगत और विज्ञान सम्मत विवेचन भारतीय दर्शन में किया गया है वैसा विश्वभर में अन्यत्र कहीं दृष्टिगोचर नहीं होता। मोनियर विलियम का कथन है। इस सहस्राब्दी के दार्शनिक केवल उन्हीं तथ्यों को अपने ढंग से ऊहापोह कर रहे हैं जिनका कि भारतीय तत्व वेत्ता चिरअतीत में सघन प्रतिपादन और विस्तृत विवेचन कर चुके हैं। प्रो. हिग्वे जेन ने लिखा है- ऋग्वेद में नृतत्व विज्ञान और प्रकृति विज्ञान का जैसा सुन्दर विश्लेषण है वैसा आधुनिक विज्ञान की समस्त धारायें मिलकर भी नहीं कर सकीं।
प्रो. हापकिन्स ने अपनी पुस्तक “रिलीजन आफ इण्डिया” नामक पुस्तक में विस्तारपूर्वक लिखा है कि हिन्दू धर्म की महत्वपूर्ण विशेषता सहिष्णु और समन्वयात्मक दृष्टिकोण है। भिन्न मान्यताओं को उसमें उदारतापूर्वक सम्मान दिया गया है। ईसा से 300 वर्ष पूर्व तक का जो इतिहास मिलता है उससे यही सिद्ध होता है कि धर्म के नाम पर भारत में कभी कोई विग्रह नहीं हुआ। अनेक विचारधारायें अपने अपने ढंग से फलती फूलती रहीं और उन सबका मन्थन करके सत्य के निकट पहुँचने में मानवी मस्तिष्क को बहुत सहायता मिली।
फेराड्रक स्वेलेजन की शोध यह प्रमाणित करती है कि विश्वदर्शन पर भारतीय तत्वज्ञान की अमिट छाप है। उसने कान्ट के दार्शनिक प्रतिपादन को भी भारतीय दर्शन के एक अंश की व्याख्या मात्र माना है। स्कोफेनर भी इसी निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि सहज ही न कर सकने वाली दार्शनिक मान्यतायें भारत की ही देन हैं।
दर्शन शास्त्र को प्रत्यक्षवादियों द्वारा शब्दाडम्बर वाग्विलास, कल्पना काव्य आदि व्यंग शब्दों से सम्बोधित किया है, पर वस्तुतः वह वैसा है नहीं। विचार करने की अस्त-व्यस्त शैली को क्रमबद्ध और दिशाबद्ध करने का महान प्रयोजन दार्शनिक शैली से ही हो सकना संभव है। अन्यथा उच्छृंखल गति-विधियाँ और अनगढ़ मान्यताओं का मिला-जुला स्वरूप ऐसा विचित्र बन जायेगा जिसे अपनाकर कोई किसी लक्ष्य तक न पहुँच सकेगा। उसे अन्धड़ में इधर-उधर उड़ते फिरते रहने वाले तिनके की तरह कुछ महत्वपूर्ण कार्य कर सकने में सफलता न मिलेगी। योजनाबद्ध कार्य करना जिस प्रकार आवश्यक है उसी प्रकार योजनाबद्ध चिन्तन की भी उपयोगिता है। वह कार्य दार्शनिक रीति-नीति से ही सम्भव हो सकता है। कहना न होगा कि यह प्रयोजन भारतीय दर्शन जितनी अच्छी तरह पूरा करता है उतना संसार का अन्य कोई दर्शन नहीं।