‘मुक्ति’ को परम पुरुषार्थ माना गया है। कैदी जेल से छूटता है, छात्र कालेज छोड़ता है, गर्भ से बालक धरती पर आता है तो उसे प्रसन्नता भी होती है और सुविधा भी मिलती है। भव बन्धनों से छुटकारा प्राप्त कर मनुष्य भी समस्त शोक संतापों से रहित होकर सच्चा जीवन लाभ लेता है।
मुक्ति मरने के बाद होती है और किसी लोक विशेष में रहना पड़ता हो ऐसी बात नहीं है। दुर्बुद्धि और दुष्प्रवृत्तियों के ही बन्धन जीव को बाँधे हुए हैं, यदि उनसे छुटकारा प्राप्त करलें फिर जीवन-मुक्ति का आनन्द जीवित रहते हुए ही-इसी जन्म में मिलता है, उसके लिए परलोक की प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ती।
मुक्त पुरुष न किसी को उद्विग्न करते हैं और न किसी से उद्विग्न होते हैं। उनके लोभ-मोह आदि शत्रु नष्ट हो चुके होते हैं। वे दूसरों की मनःस्थिति जानते हैं और लोकप्रिय आचरण करते हैं। प्रिय और मधुर वाणी बोलते हैं। वे सूक्ष्म बुद्धि से निर्णय करते हैं। सज्जन नागरिकों की तरह आचरण करते हैं। सबके बन्धु होते हैं।
कर्तव्य कर्मों में निष्ठापूर्वक किन्तु उदासीन की तरह लगा हुआ न आकाँक्षा करता है, न चिन्ता, न द्वेष, न हर्ष, न उद्वेग। अवसर के अनुसार यथोचित व्यवहार करता है। भक्त के प्रति भक्त, शठ के प्रति शठ, बालकों के साथ बालक, वृद्धों के प्रति वृद्ध और बुद्धिमानों के साथ बुद्धिमानों जैसा व्यवहार करता है। युवाओं में युवकों की तरह रहता है और दुखियों को देखकर दुखी होता है। वह न कभी दीन होता है न उद्धत, न बौखलाता है और न खिन्न, न उद्विग्न होता है न हर्षोन्मत। जिसके मन पर हर्ष, शोक, भय, काम, क्रोध और कृपणता का प्रभाव नहीं होता वह जीवन मुक्त ही है।
- यो. व.