रामकृष्ण परमहंस को दक्षिणेश्वर में पुजारी का स्थान मिल गया। ईश्वर भक्त को ईश्वर की पूजा उपासना के अतिरिक्त और चाह ही क्या होती है? गुजारे के लिये बीस रुपये बाँधे गये जो पर्याप्त थे।
पन्द्रह दिन तो तब बीते जब मन्दिर कमेटी के सम्मुख उनकी पेशी हो गई और कैफियत देने के लिये कहा गया। एक के बाद एक कितनी ही शिकायतें उनके विरुद्ध पहुँच चुकी थीं। किसी ने कहा कि यह पुजारी कैसा? स्वयं चखकर भगवान को भोग लगता है, फूल सूँघकर भगवान के चरणों में अर्पित करता है। पूजा के इस ढंग पर कमेटी के सदस्यों को भी आश्चर्य हुआ, आखिर उन्होंने एक दिन बुलाकर पूछ ही लिया ‘क्यों रामकृष्ण इसमें कहाँ तक सत्यता है कि तुम फूल सूँघकर देवता पर चढ़ाते हो?’
‘मैं बिना सूँघे भगवान पर फूल क्यों चढाऊं? पहले देख लेता हूँ कि उस फूल में कुछ सुगन्ध भी आ रही है या नहीं’ रामकृष्ण ने सफाई देते हुए कहा। ‘फिर तो दूसरी शिकायत भी सत्य होगी भगवान को भोग लगाने से पहले अपना भोग लगा लेते हो’ यह दूसरा प्रश्न था।
‘मैं अपना भोग तो नहीं लगाता।’ पर मुझे अपनी माँ की याद है कि वे भी ऐसा ही करती थीं जब कोई चीज बनातीं तो चखकर देख लेती थीं और तब मुझे खाने को देती थीं। मैं भी चखकर देखता हूँ पता नहीं जो चीज किसी भक्त ने भोग के लिए लाकर रखी है या मैंने ही बनाई है वह भगवान के देने योग्य है भी या नहीं।’ रामकृष्ण परमहंस का सीधा उत्तर था।