“नाणदंसणसंपन्नं संजमे य तवे रयं।
एवं गुण समाउत्तं संजयं साहुमालवे॥
ज्ञान और दर्शन से सम्पन्न, संयम और तप में रत इस प्रकार गुण समायुक्त संयमी को ही साधु कहें”
-भ. महावीर
विज्ञानी रुनेग्लोविश इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि पृथ्वी दो ध्रुवों अथवा शीत ग्रीष्म ऋतु प्रवाह की तरह एक दूसरे से भिन्न दीखते हुए भी धर्म ओर विज्ञान वस्तुतः एक दूसरे के पूरक हैं। दोनों में से एक के आधार पर जो भी निष्कर्ष निकाला जायेगा वह वस्तुतः अपूर्ण ही रहेगा। पदार्थ में चेतना का अस्तित्व और चेतना को सक्रिय रहने के लिए भौतिक पदार्थों की आवश्यकता पड़ती है। दोनों का समन्वय ही विश्व को वर्तमान स्वरूप प्रदान कर सकता है। यदि उन्हें सर्वथा पृथक कर दिया गया तो अधूरे और भटकाव भरे निष्कर्ष ही हाथ लगेंगे।
विज्ञान की प्रगति इसलिए होती गई कि उसने नये ज्ञान प्रकाश के लिए द्वार खुला रखा है और अपनी भूलों के समझने तथा सुधारने के लिए निरन्तर प्रयत्न जारी रखा। जबकि धर्म ने अपने द्वार नये प्रकाश के लिए बन्द कर लिये। पूर्ववर्ती व्यक्तियों तथा पुस्तकों द्वारा जो कुछ कहा लिखा गया उसी को अन्तिम मान लिया गया और येन केन प्रकारेण उसी को सत्य सिद्ध करने के लिए हठ किया जाता रहा है। इसी भिन्नता के कारण प्रगति की दौड़ में विज्ञान आगे निकल गया और धर्म पिछड़ गया। यदि शोध और सुधार का द्वार खुला रखा गया होता तो निस्संदेह धर्म को भी वैसी ही मान्यता मिलती जैसी कि विज्ञान को मिली है।
भावनात्मक प्रवाह विलक्षण रीति से बहते हैं। एक ही समय में विभिन्न देशों में एक ही प्रकार के महत्वपूर्ण प्रयास करते हुए कतिपय महामानव अवतरित होते हैं और वे सूक्ष्म जगत में गतिशील प्रवाह को अग्रगामी बनाते हुए विश्वव्यापी हलचलों का सृजन करते हैं। धर्म क्षेत्र में प्रायः ऐसा ही होता रहा है। लूथर जर्मनी में, ज्विंगी स्विट्जरलैंड में, केल्विन फ्राँस में, जोन नोक्स स्काटलैंड में हुए। उन्हीं दिनों भारत में भी कई प्रख्यात सुधारकों ने जन्म लिया। विज्ञान के क्षेत्र में भी ऐसा ही होता रहा है। गैलीलियो इटली में, केपलर पोलैंड में, न्यूटन इंग्लैंड में एक ही समय हुए और उन्होंने पुराने ढर्रे को नई पटरी पर चलने के लिए विवश कर दिया।
भावनात्मक क्षेत्र में क्रान्तिकारी चिन्तन धारा प्रस्तुत करने वाले अनेक मनीषी एक ही समय में उत्पन्न हुए। भले ही वे विभिन्न देशों में जन्में हों। भले ही उनका परस्पर परिचय न रहा हो पर प्रतीत होता है कि एक ही प्रपात से उठने वाले बुद्बुदों की तरह वे ही समय की आवश्यकता पूरी करने में जुटे हुए थे।
धार्मिक एवं भावनात्मक क्षेत्र में अभिनव प्रकाश उत्पन्न करने वाले विद्वानों में टम्पिले ब्रेथ, ब्रुमनेर, वेरडयेव, औलेन, न्यैगरैन, वैल्लीज, नैवुहरक, वुल्टमान, फैरी, टिलिच आदि का नाम उल्लेखनीय है। इन लोगों को चिंतन की परम्परागत शैली को मोड़ देने के लिए सदा सराहा जाता रहेगा।
वैज्ञानिक और आत्मवादी दोनों ही अन्तर्ज्ञान से प्रकाश की किरणें प्राप्त करते रहे हैं। आविष्कारकों को अकारण ही ऐसी सूझ उठी जिसके सहारे वे अपनी खोज का आधार खड़ा कर सके। पूर्व शृंखला न होने पर भी इस प्रकार का अनायास अन्तर्बोध यही सिद्ध करता है कि मानवी चेतना के पीछे कोई अलौकिक प्रवाह काम कर रहा था, जिसे अप्रकट को प्रकट करने की उतावली थी। विज्ञान की प्रधान धाराओं के मूल आविष्कर्ता इस तथ्य से सहमत हैं कि उन्हें अपने विषय की सूझ-बूझ अन्तःकरण में अकारण ही प्रस्फुटित हुई। यदि उस प्रकाश किरण के लिए कुछ साधारण से कारण भी थे तो भी उनमें कोई नवीनता नहीं थी। वह सब कुछ पहले से ही होता चला आया था। उमंग उठकर ठप्प नहीं हुई वरन् उसने एक के बाद एक कदम आगे बढ़ने का सहारा दिया और सूझ-बूझ की उस शृंखला में एक के बाद एक कड़ी जुड़ती चली गई। यदि ऐसा न होता तो शोध की उठी हुई इच्छा मार्ग न मिलने पर कुण्ठित ही रह जाती।
विज्ञान का क्षेत्र हो अथवा धर्म का, उसमें समुद्र मंथन करके कुछ रत्न प्राप्त कर सकने का श्रेय मनुष्य की रहस्यमय प्रवृत्तियों को ही है। वे स्वल्प मात्रा में कहीं भी पाई जा सकती हैं पर यदि किसी प्रकार उनको प्रखर किया जा सके तो उनकी परिणति असाधारण उपलब्धियों के रूप में ही होती है। इसी अवलम्बन के सहारे सामान्य ज्ञान को महद्ज्ञान और सामान्य व्यक्तित्व को महामानव बनने का श्रेय सौभाग्य प्राप्त होता है।
विज्ञान और धर्म की प्रगति में जो तथ्य सहायक रहे हैं उनमें से कुछ प्रमुख युग्म इस प्रकार हैं- (1) विवेक और औचित्य (2) विश्वास एवं श्रद्धा (3) तर्क एवं आशा (4) जिज्ञासा और जानकारी (5) सभ्यता और शालीनता (6) प्रेम और वफादारी (7) त्याग और सेवा (8) लगन और निष्ठा (9) धैर्य और साहस (10) पुरुषार्थ एवं मनोयोग। इनका अवलम्बन लेकर चलने वाले व्यक्तित्व इस संसार में कुछ बहुमूल्य रत्न प्राप्त करके ही रहते हैं धर्म हो अथवा विज्ञान हर क्षेत्र में महत्वपूर्ण उपलब्धियों का श्रेय अन्ततः कुछ विशिष्ट सत्प्रवृत्तियों पर ही निर्भर सिद्ध होता है। कहना न होगा कि वह अन्तःस्फुरणा जो प्रसुप्त दिव्य प्रवृत्तियों को जागृत कर सके किसी अज्ञात संकेत से ही उद्भूत होती है।
विद्वान व्हाइट हैड का यह कथन बहुत हद तक सही है कि- “धर्म के सिद्धान्त मानवता के अनुभवों में निहित सत्यता को संक्षेप में प्रदर्शित करने का एक प्रयास मात्र हैं। इसी प्रकार विज्ञान भी मानव की ज्ञानेन्द्रिय शक्ति में निहित सत्यों को संक्षेप में सूत्रीकरण करने का प्रयास मात्र है।”
दार्शनिक रैक्वे कहते हैं- मनुष्य ने विज्ञान द्वारा प्रकृति के अन्तराल को समझा है और धर्म के द्वारा अपनी महानता का आभास पाया है।
दार्शनिक पैट्टन का कथन है कि यदि धर्म मान्यताओं के लिए पक्षपात, पूर्वाग्रह और कट्टरता की दृष्टि रहे तो ऐसा मनुष्य घोर अनैतिक भी हो सकता है भले ही वह धार्मिक समझा जाता रहे।
श्री जेविन्स का कथन है कि जादू-टोने चमत्कार तथा रहस्यवाद के आधार पर जो धर्म अथवा धर्माधिकारी खड़े हैं उनकी जड़ें खोखली हैं। सिद्धान्तों और प्रेरणाओं की दृष्टि से जहाँ खोखलापन होगा वहीं लोगों को आकर्षित करने के लिए ऐसे हथकण्डे काम में लाये जायेंगे। धर्म तो अपने आप में इतना उपयोगी है कि उसका यथार्थ स्वरूप समझने पर वह स्वयं ही एक ऐसा जादू, चमत्कार प्रतीत होता है जिसके आधार पर व्यक्तित्व में क्रान्तिकारी परिष्कार एवं उसका सत्परिणाम प्रत्यक्ष देखा जा सके।