धर्मराज युधिष्ठिर की तीर्थयात्रा (Kahani)

December 1972

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महाभारत समाप्त होने के उपरान्त धर्मराज युधिष्ठिर ने तीर्थयात्रा करने का निश्चय किया। साथ में चारों भाई अर्जुन, भीम, नकुल, सहदेव और द्रौपदी भी थीं। प्रस्थान करने से पूर्व वह भगवान कृष्ण के पास भी गये और उनसे साथ चलने के लिये आग्रह किया। कृष्ण को उस समय कुछ आवश्यक कार्य थे। अतः तीर्थयात्रा में साथ न जा सके। पर सुखद यात्रा की कामना करते हुए उन्होंने अपना कमण्डल अवश्य दे दिया और यह कहा ‘जहाँ जहाँ तीर्थ स्थानों में, नदियों और सरोवरों में स्नान करने का आपको अवसर मिले, वहाँ वहाँ इस कमण्डल को भी उनमें डुबा लेना।’ युधिष्ठिर कमण्डल लेकर सपरिवार तीर्थयात्रा को चल पड़े। काफी दिनों के बाद वह वापिस लौटे और कृष्ण को उनका कमण्डल देते हुये कहा ‘आपकी आज्ञानुसार जहाँ मैंने स्नान किया वहाँ इसे भी पानी में डुबोया है’।

‘यही तो मैं चाहता था।’ इतना कहकर कृष्ण ने उस कमण्डल को जमीन में पटक कर टुकड़े-टुकड़े कर दिये और प्रसाद रूप में एक-एक टुकड़ा वहाँ उपस्थित सभी लोगों में वितरित कर दिया। जिसने भी वह प्रसाद चखा उसका मुँह खराब हो गया। लोगों को थूकते हुये तथा मुँह बनाते हुये देखकर कृष्ण ने धर्मराज से पूछा- ‘जब यह इतने तीर्थों में घूमकर आ रहा है और अनेक स्थानों पर स्नान भी किया है फिर भी इसका कड़वापन दूर क्यों नहीं हुआ?’

‘आप भी कैसी अजीब बात करते हैं कृष्ण। कहीं धोने मात्र से कमण्डल का कड़वापन निकल सकता है?’ धर्मराज ने उत्तर दिया।

‘यदि ऐसा है तो विभिन्न तीर्थों में जाने और अनेकानेक नदियों में स्नान करने पर आपके पाप कैसे धुल सकते हैं? मैं तो यह समझता हूँ कि यदि हृदय से अपनी भूलों को स्वीकार किया जाये और पश्चाताप अनुभव कर भविष्य में भूल न हो इसके लिये सावधानी रखी जाये तभी हृदय शुद्ध होता है और पाप से मुक्ति मिलती है। सच्ची तीर्थयात्रा तो यही है। केवल शरीर को धोने से काम नहीं चलता। धोना तो मन को चाहिए, शुद्ध तो हृदय को करना है।’

अब धर्मराज के पास कहने के लिये कुछ भी शेष न रह गया था।


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