युग परिवर्तन के लिए सात विभूतियों का आह्वान

December 1972

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यों सभी मनुष्य ईश्वर के पुत्र हैं जिनमें विशेष विभूतियाँ चमकती हैं- उन्हें ईश्वर के विशेष अंश को सम्पदा से सम्पन्न समझा जाना चाहिए। गीता के विभूति योग अध्याय में भगवान कृष्ण ने विशिष्ठ विभूतियों में अपना विशेष अंश होने की बात उदाहरणों समेत बताई है। यों जीवनयापन तो अन्य प्राणियों की तरह मनुष्य भी करते हैं पर जिनके पास विशेष शक्तियाँ- विभूतियाँ-हैं, कुछ महत्वपूर्ण कार्य वे ही कर पाते हैं। इसलिए भावनात्मक नव-निर्माण जैसे युगान्तरकारी अभियानों में उनका विशेष हाथ रहना आवश्यक है।

विभूतियों को सात भागों में विभक्त कर सकते हैं 1. भावना 2. शिक्षा-सहित 3. कला 4. सत्ता 5. सम्पदा 6. भौतिकी 7. प्रतिभा। इन सातों के सदुपयोग से ही व्यक्ति और समाज का कल्याण होता है।

युग-निर्माण आन्दोलन का प्रथम प्रयास जन जागरण था अब अगला कदम विभूतियों को भी झकझोरना है और उन्हें उलझी हुई स्थिति से निकाल कर जीवन अथवा मरण में से एक को चुन लेने के लिए विवश करना है। अब तक अपना अभियान भारत तक - विशेषतया हिन्दू वर्ग के प्रगतिशील वर्ग तक सीमित रहा है अब इसकी परिधि विश्वव्यापी बनाई जा रही है। प्रथम चरण में मजबूती आ जाने पर यह दूसरा चरण उठाया जाना आवश्यक भी है।

गुरुदेव के जीवन ग्रन्थ का यह नया अध्याय है। प्रथम अध्याय में उनकी चौबीस वर्षीय तप साधना, द्वितीय अध्याय में सत्साहित्य निर्माण, तीसरे में संगठन आन्दोलन का क्रम चला है। उनके इस क्रिया-कलाप ने लाखों को प्रभावित और प्रेरित किया है। इन दिनों युग -निर्माण आन्दोलन का जो स्वरूप, विस्तार एवं प्रतिफल है उसे इन्हीं तीन चरणों की प्रतिक्रिया कहा जा सकता है। अब चतुर्थ अध्याय में यह कार्य क्षेत्र बढ़कर विश्वव्यापी बना है- गुरुदेव की वर्तमान विश्वयात्रा इसी प्रयोजन के लिए है। प्रतिभाओं को जगाने और मोड़ने की ओर उनका भावी पुरुषार्थ हो रहा है।

अब तक प्रायः धर्म मञ्च के माध्यम से भारतवर्ष में हिन्दू समाज के प्रगतिशील वर्ग में ही उनकी गतिविधियाँ सीमित थी। साहित्य को प्रधान माध्यम बनाकर ही वे प्रायः जन जागरण का कार्य करते रहे हैं पर अब वह क्षेत्र अत्यधिक विशाल ही नहीं- अत्यधिक उच्चस्तरीय भी हो गया है। इतने जटिल किन्तु महत्वपूर्ण उत्तरदायित्व वहन करके वे निस्सन्देह अपनी असाधारण क्षमता का ही परिचय दे रहे हैं, जिन सात विभूतियों को झकझोरने का जो कार्यक्रम उनके सामने है उसका संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है-

1- भावना (धर्म एवं अध्यात्म)

व्यक्तित्व को उत्कृष्ट और गतिविधियों को आदर्श बनाने की अन्तः प्रेरणा को भावना कहा जाता है। धर्म धारणा और अध्यात्म साधना के समस्त कलेवर को इसी प्रयोजन के लिए खड़ा किया गया है। पिछले दिनों कुछ कर्मकाण्डों- परम्पराओं एवं पूजा विधानों का पूरा कर लेना भर धार्मिकता एवं आध्यात्मिकता समझी जाती रही है। युग-निर्माण योजना ने बताया है कि चरित्र गठन का नाम धर्म और अपनी क्षमताओं को लोक मंगल के लिये समर्पित करने की पृष्ठभूमि का नाम अध्यात्म है। भावनाओं को कल्पना लोक में नहीं उड़ते रहना चाहिए वरन् उन्हें अपने तथा समाज के समग्र निर्माण में संलग्न होना चाहिए। यही उनका वास्तविक प्रयोजन है भी।

धर्म की प्राचीनता और दार्शनिकता से प्रभावित लोगों को कहा जा रहा है कि अपने सम्प्रदाय की संख्या बढ़ाने - धर्म परिवर्तन के अति उत्साह में शक्तियों का अपव्यय न करें हमारा सतत प्रयास है- सब धर्मों में परस्पर सहिष्णुता और समन्वय की प्रवृत्ति उत्पन्न करना। वे अपने स्वरूप को भले ही बनाये रहें पर विश्वधर्म के एक घटक बनकर रहें और अपने प्रभाव को चरित्रगठन एवं परमार्थ प्रयोजन में ही नियोजित करें। प्रथा परम्पराओं वाले कलेवर को गौण समझें सभी धर्म सम्प्रदाय अपनी परम्पराओं में से उत्कृष्ट अंश अपनाकर विश्व एकता के, उत्कृष्ट मानवता और आदर्श समाज रचना के लक्ष्य को लेकर आगे बढ़ें और एक ही केन्द्र पर केन्द्रित हों। धर्मों के जीवित रहने का- अपनी उपयोगिता बनाये रहने का- मात्र यही तरीका है।

धर्म और अध्यात्म क्षेत्र में लगी प्रचुर पूँजी, जन शक्ति और प्रभावशीलता को भविष्य में निहित स्वार्थों के पोषण के लिये प्रयुक्त नहीं होते रहने देना चाहिए। राज तन्त्र की तुलना में ही धर्मतन्त्र है उसकी शक्ति सृजनात्मक दिशा में लगनी चाहिए भावनाशील लोग- न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति से सन्तुष्ट रहकर अपनी भौतिक एवं आत्मिक क्षमताओं का उपयोग मानव जाति के भविष्य निर्माण के लिये समर्पित करदें तो यह निस्संदेह सर्वोत्तम युग साधना होगी और सत्परिणाम प्रत्यक्ष परिलक्षित होगा।

2- शिक्षा एवं साहित्य

व्यक्ति की समस्त गरिमा उसकी मनः स्थिति पर विचार प्रक्रिया पर निर्भर है इस जीवन प्राण के मर्म स्थल को शिक्षा एवं साहित्य के माध्यम से ही परिष्कृत बनाया जा सकता है। व्यक्ति और समाज के निर्माण में शिक्षा और साहित्य की महत्ता सर्वविदित है। युग परिवर्तन को घड़ियों में दो माध्यमों का समुचित उपयोग किया जाना चाहिए।

सरकारों को अपने ढंग में काम करने देना चाहिए। वर्तमान वातावरण में उनके लिये यह कठिन ही है नये युग के अनुरूप मस्तिष्क ढालने वाली शिक्षा पद्धति के बारे में वे सही ढंग से कुछ सोच सकें और वैसा ही कुछ सही कदम उठा सकें। सरकारें भौतिक जानकारियाँ देने वाली जो शिक्षा प्रक्रिया चला रही है उससे लाभ उठाना चाहिए किन्तु भाव परिष्कार की पूरक - धर्म शिक्षा-नैतिक शिक्षा-भावनात्मक नवनिर्माण की शिक्षा-पद्धति का संचालन जनता स्तर पर होना चाहिए। प्रौढ़ शिक्षा का कार्य भी जनता को ही अपने हाथ में लेना चाहिए। ये सरकारी स्तर पर नहीं जनस्तर पर ही हल हो सकती हैं। विवाहित महिलाओं की शिक्षा का प्रबन्ध सरकारी विद्यालय कर सकेंगे यह आशा रखना व्यर्थ है। दृष्टिकोण परिष्कार आज की परिस्थितियों में चरित्र निर्माण का व्यवहार पक्ष समाज संरचना की अगणित समस्यायें और हल विश्व परिवार के लिये बाध्य करने वाले प्रचण्ड वातावरण का निर्माण यह सब प्रयोजन जन स्तर के विद्यालय ही पूरा कर सकेंगे। पूरे या अधूरे समय के- जहाँ वे जिस स्तर पर भी खुल सकें खोले जायें। जनता अपनी रोटी, कपड़ा, दवा, मनोरंजन आदि का खर्च स्वयं उठाती है। इसके लिये सरकार से अनुदान नहीं माँगती तो फिर भावनात्मक नवनिर्माण की शिक्षा के लिये सरकार का मुँह तका जाय इसकी क्या आवश्यकता है।

हर जगह ऐसे सुशिक्षित भावनाशील लोग मौजूद हैं जिनके अन्दर परमार्थ के लिये आन्तरिक ज्योति चमकती रहती है। मार्ग न मिलने से वह अवरुद्ध रहती है। इन्हें इन विद्यालयों को चलाने के लिये अपना थोड़ा सा समय अवैतनिक रूप से अनुदान देने के लिये कहा जाय तो अवश्य ही अनेक जागृत आत्माएं आगे आवेंगी और लाखों शिक्षकों की आवश्यकता सहज ही पूरी हो जायगी। ढलती उम्र में लोग वानप्रस्थ परंपरा अपनाकर लोक मंगल के क्षेत्र में उतरने के लिये प्रोत्साहित किये जा सकें तो भी इस दिशा में बहुत काम हो सकता है।

लोकशिक्षण की महती आवश्यकता पूरी कर सकने वाले विद्यालय हर गाँव और हर मुहल्ले में स्थापित हो सकते हैं और सफलतापूर्वक चल सकते हैं। अब यह युग धर्म समझा जाना चाहिए और सोचने तक ही सीमित न रहकर इसकी स्थापना और संचालन के लिए कटिबद्ध होना चाहिए। गुरुदेव अगले दिनों इसकी प्रचण्ड प्रेरणा सर्वत्र भरने के लिये अपने प्रखर आत्मबल का प्रयोग करने जा रहे हैं। कहना न होगा कि अगले ही दिनों इस संदर्भ में आशाजनक सफलता उत्पन्न होते हम सब अपनी इन्हीं आंखों से प्रत्यक्ष देखेंगे।

साहित्यकारों से इसी दिशा में लेखनी उठाने के लिये कहा जा रहा है। कवियों से मूर्छना को जागृति में परिणत कर सकने वाले अग्नि गीत लिखने के लिए कहा गया है। कहानीकार, कथा माध्यमों से हृदयग्राही चित्रण प्रस्तुत कर सकते हैं। पत्रकार अपने पत्रों में पत्रिकाओं में इस प्रकार के समाचारों और लेखों को स्थान देना आरम्भ करें। प्रकाशक ऐसी ही पुस्तकें छापें। संसार में लगभग 600 भाषाएं है। भारत में ही सरकारी मान्यता प्राप्त 24 भाषाएं हैं और इससे कई गुनी संख्या उन भाषाओं की है जिन्हें मान्यता प्राप्त नहीं है। इन सभी भाषाओं में प्रचुर साहित्य लिखा जाना, अनूदित किया जाना, छापा जाना और विक्रय किया जाना आवश्यक है। इस प्रकाशन व्यवसाय के लिये पूँजी और प्रतिभा दोनों की ही जरूरत है। मात्र लेखक नहीं- प्रकाशक भी जब इस क्षेत्र में उतरेंगे तो उनके परस्पर सहयोग समन्वय से कुछ काम चलेगा। इस दिशा में प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से उपयुक्त व्यक्तियों को प्रेरणा दी जानी है, दी भी जा रही है। युग-निर्माण योजना ने जो शुभारम्भ मथुरा से किया है वह एक नमूना मात्र है। अभी सैकड़ों धारायें इस क्षेत्र में काम करने के लिये बाकी पड़ी हैं और उन्हें क्रियान्वित किया ही जाना चाहिए।

3. कला मञ्च से भाव स्पन्दन

कला मञ्च में चित्र, मूर्तियां, नाटक, अभिनय, संगीत आदि आते हैं। संगीत विद्यालय हर जगह खुलें। ध्वनियाँ सीमित हों, बाजे भी सीमित हों, सरल संगीत के ऐसे पाठ्यक्रम हों जो वर्षों में नहीं महीनों में सीखे जा सकें। प्रचण्ड प्रेरणा भरे गीतों का प्रचलन प्रसारण इन विद्यालयों द्वारा हो और प्रत्येक हर्षोत्सवों पर प्रेरक गायनों की ही प्रधानता रहे। अग्नि गीतों की पुस्तिकाएं सर्वत्र उपलब्ध रहें। संगीत सम्मेलन, संगीत गोष्ठियाँ, कीर्तन प्रवचन, सहगान क्रिया गान, नाटक, अभिनय, लोकनृत्य जैसे अगणित मञ्च मण्डप सर्वत्र बनें और वे लोकरञ्जन की आवश्यकता पूरी करें।

चित्र प्रकाशन अपने आपसे एक बड़ा काम है। कलेण्डर तथा दूसरे चित्र आज-कल खूब छपते बिकते हैं, उनमें प्रेरक प्रसंग को जोड़ा जा सके तो उससे जन मानस को मोड़ने में भारी सहायता मिल सकती है इसमें चित्रकारों से अधिक सहयोग चित्र प्रकाशकों का चाहिए।

आदर्शवादी चित्र प्रकाशन की योजना सामने हो तो चित्रकार उस तरह की तसवीरें और भी अधिक प्रसन्नतापूर्वक बना देंगे। यह कार्य ऐसे हैं जिनमें प्रतिभा-पूँजी सूझ-बूझ और लगन का थोड़ा भी समन्वय हो जाय तो बिना किसी खतरे का सामना किये सहज ही यह आवश्यकता पूरी जा सकती है।

पुस्तकालयों की-चल पुस्तकालयों की- झोला पुस्तकालयों की योजना एक छोटे रूप में अपना परिवार चला भी रहा है। इसे व्यापक और विस्तृत बनाया जाना चाहिए। स्थान स्थान पर पुस्तकालय को व्यावसायिक रूप मिल सकता है। जब शाक-भाजी तक ठेल ढकेल पर बेचने वाले हजारों व्यक्ति रोजी-रोटी कमाते हैं तो कोई कारण नहीं कि चल पुस्तकालय से भी हजारों व्यक्ति रोटी न कमाने लगें। पुस्तक विक्रय की दुकान खोलकर भी सत्साहित्य प्रसार का उद्देश्य पूरा होता है। आवश्यकता मार्गदर्शन और क्रिया संगठन की है। प्रतिभाएं यदि यह साधन जुटाने के लिए निकल पड़ें तो न जाने कितना बड़ा काम बौद्धिक क्रान्ति की दिशा में हो सकता है। इसी प्रकार कला मञ्च को भी व्यावसायिक रूप देकर आगे बढ़ाया जा सकता है।

यन्त्रीकरण के साथ कला समन्वय होने से ग्रामोफोन रिकार्ड, टेपरिकॉर्डर तथा फिल्म सिनेमा के नये प्रभावशाली माध्यम सामने आये हैं। उनका सदुपयोग होना चाहिए। चित्र प्रदर्शनियों के उपयुक्त बड़े साइज के चित्र छपने चाहिए। रिकार्ड बनाने का कार्य योजनाबद्ध रूप से आगे बढ़ना चाहिए। यों शुरुआत दस रिकार्डों से की गई थी। पर अभी उसे सभी भाषाओं के लिए - प्रयोजनों के लिए उपयुक्त बनाने में बड़ी शक्ति तथा पूँजी लगानी पड़ेगी। इसी प्रकार फिल्म निर्माण का कार्य हाथ में लेना होगा। आँकड़े यह बताते हैं कि समाचार पत्र और रेडियो मिलकर जितने लोगों को सन्देश सुनाते हैं उससे कहीं अधिक सन्देश अकेला सिनेमा पहुँचाता है। समाचार पत्रों के पाठकों और रेडियो सुनने वालों की मिली संख्या से भी सिनेमा देखने वालों की संख्या अधिक है। यदि यह उद्योग विवेकवान और दूरदर्शी हाथों में हो और वे उसका उपयोग जन मानस को परिष्कृत करने तथा नवयुग के अनुरूप वातावरण बनाने में कर गुजरें तो उसका आश्चर्यजनक परिणाम सामने आ सकता है। जिनके हाथ में इन दिनों यह उद्योग है, उनका दृष्टिकोण बदला जाय तथा नये लोग- नई पूँजी और नई लगन के साथ इस क्षेत्र में उतरें तो इतना अधिक कार्य हो सकता है जिसकी कल्पना भी इस समय कठिन है।

4 - विज्ञान

विज्ञान की उपलब्धियाँ आश्चर्यजनक हैं। उसने मानवी सुख सुविधाओं में आश्चर्यजनक अभिवृद्धि की है। पर यह भी सही है कि उसके दुरुपयोग से होने वाली हानियाँ भी कम नहीं उठानी पड़ रही हैं। अस्त्रों के उत्पादन में - विशेषतया गैसें, किरणें एवं अणु विस्फोटजन्य अस्त्रों ने तो संसार के अस्तित्व को ही संकट में डालने की विभीषिका उत्पन्न करदी है। यदि यह शोध, आविष्कार सृजनात्मक प्रयोजनों तक ही सीमित रहे तो उसका प्रतिफल धरती पर स्वर्गीय परिस्थितियाँ उत्पन्न कर सकता है। ध्वंसात्मक उपकरण जुटाने में जितने साधन खपाये जा रहें। यदि उन्हें मानवी अभावों और शोक सन्तापों की निवृत्ति में लगा दिया जाय तो उसका प्रतिफल इस संसार को स्वर्गोपम बनाने में हो सकता है। समुद्र के खारी पानी से मीठा जल प्राप्त किया जा सकता है। जमीन के नीचे बहने वाली विशाल नदियों का जल धरती पर लाया जा सकता है और सारी दुनिया सचमुच शस्यश्यामला बन सकती है। कृषि, पशु-पालन, बागवानी, वन सम्पदा, स्वास्थ्य सम्वर्धन और मस्तिष्कीय विकास की दिशा में विज्ञान को अभी बहुत काम करना बाकी है। प्रकृति के प्रकोपों से लोहा लेने के साधन जुटाने में अतिवृष्टि, अनावृष्टि, महामारी, भूकम्प, बाढ़ ,तूफान, शीत-ताप की असहनता का सामना करने योग्य शक्ति का उपार्जन हो सकता है। वाहनों को सरल एवं सस्ता बनाया जा सकता है, संचार साधनों के विस्तार की अभी बहुत गुंजाइश है।

सबसे बड़ा काम विज्ञान को यह करना है कि वह अध्यात्म के साथ अपनी संगति बिठाये और यह सिद्ध करे कि शक्ति का स्त्रोत जड़ पदार्थों की अणुसत्ता एवं ऊर्जा में नहीं वरन् चेतना के संकल्पों में, आत्मबल में सन्निहित है। विशालकाय यंत्र संस्थानों की तुलना में व्यक्ति का शरीर, मस्तिष्क और अन्तःकरण अधिक सशक्त है और उस क्षमता का सदुपयोग करके व्यक्ति को देवोपम और समाज को स्वर्गीय वातावरण से ओत प्रोत बनाया जा सकना नितान्त संभव है। इस सत्य को तथ्य के रूप में प्रस्तुत करना अविज्ञात को प्रत्यक्ष बनाना विज्ञान का काम है और यह उसे करना ही चाहिए, करना ही होगा। इसके लिए विज्ञान के उच्च क्षेत्र में काम करने वाले विज्ञानियों को आवश्यक प्रेरणा एवं दिशा मिलनी चाहिए। युग की यह माँग है और उसे पूरा करना ही पड़ेगा। पिछले दिनों अखण्ड ज्योति पत्रिका के माध्यम से विज्ञान और अध्यात्म का संबंध समन्वय प्रतिपादन किया भी जाता रहा है अब उसे और भी अधिक स्पष्ट एवं प्रत्यक्ष करना पड़ेगा।

5. शासन सत्ता

राज सत्ता जिनके हाथ में इन दिनों है अथवा अगले दिनों आने वाली है, उन्हें संकीर्ण राष्ट्रीयता के, अपने प्रिय क्षेत्र या वर्ग के लोगों को लाभान्वित करने की बात छोड़कर समस्त विश्व में समान रूप से सुख शान्ति की बात सोचनी होगी और समस्त संसार को एक परिवार बनाने की नीति अपनाकर प्रकृति प्रदत्त साधनों एवं मानवी उपार्जन को समान रूप से सर्वसाधारण के लिए उपलब्ध करना होगा। युद्धों की भाषा में सोचना बन्द कर न्याय को आधार स्वीकार करना होगा। वर्ग भेद और वर्ण भेद की जड़े उखाड़नी होंगी।

अनीति, शोषण अपराध, रिश्वत, भ्रष्टाचार के वास्तविक शत्रु से जूझना सरकारों का काम है। बेकारी, बीमारी और गरीबी दूर करने की दिशा में भी वह बहुत कुछ कर सकती है। इसके लिए सत्ता संचालकों और शासकीय कर्मचारियों में बेतरह घुसी हुई स्वार्थ परता एवं अनैतिकता को जड़ मूल से उखाड़ना होगा। इसके लिए प्रजा तंत्री देशों के वोटरों को उनके कर्तव्य विशेष रूप से समझाने पड़ेंगे ताकि वे सुयोग्य प्रतिनिधि चुनने और श्रेष्ठ सरकार प्राप्त करने में सफल हो सकें।

6-सम्पदा

विभूतियों में इन दिनों सर्वोपरि मान्यता पूँजी को मिली है। धन का वर्चस्व सर्वविदित है। सम्पत्ति में स्वयं कोई दोष नहीं। उसके दुरुपयोग में है। व्यक्तिगत विलासिता में अहंता की वृद्धि में यदि उसका उपयोग होता है, संग्रह बढ़ता है एवं उसका लाभ बेटे पोतों तक ही रखने का प्रयत्न किया जाता है तो निस्संदेह ऐसा धन निन्दनीय है। अगले दिनों आर्थिक समता के आधार पर ही समाज व्यवस्था बनेगी। सामर्थ्य भर श्रम एवं आवश्यकता भर साधन प्राप्त करने के ही क्रम चलें भी, तब सम्पदा पर व्यक्ति का नहीं समाज का अधिकार होगा। न कोई गरीब दिखाई देगा, न अमीर। पर जब तक वह स्थिति नहीं बन जाती तब तक संग्रहीत पूँजी को लोक मंगल के लिए लगाने की दूरदर्शिता दिखाने के लिए धनपतियों को कहा जायगा। कहा ही नहीं इसके लिए उन्हें प्रभावित भी किया जायगा। उन्हें यह समझने का अवसर दिया जायगा कि समय बदल चुका है। पूँजी वाद, सामंतवाद, संग्रह वाद, अमीरी के दिन मर गए। उस सड़ी लाश से चिपके रहने में केवल घृणा एवं विपत्ति ही हाथ लगेगी।

दान न सही कम से कम इतना तो होना ही चाहिए कि युग परिवर्तन का पथ प्रशस्त करने वाले प्रचारात्मक कार्यक्रमों में पूँजी की कमी न पड़े। भले ही अभी व्यक्तिगत लाभ की बात भी जुड़ी रहने दी जाय तो इतना तो भी होना ही चाहिए कि युग परिवर्तन के प्रवाह में अनुकूलता उत्पन्न करने वाला विनियोग इस पूँजी का हो सके। पिछले पृष्ठों पर ऐसे कितने ही क्रियाकलापों की चर्चा की गई है, जिनमें पूँजी के रूप में भी यदि धन लग सके यदि उन क्रियाकलापों की व्यावसायिक रूप से खड़ा किया जा सके तो भी बहुत कुछ हो सकता है। 1. साहित्य प्रकाशन 2. चित्र प्रकाशन 3. अभिनय मंडलियाँ 4. ग्रामोफोन रिकार्ड 5. फिल्म निर्माण यह पाँच कार्य ऐसे हैं जिनके लिए विशालकाय अर्थशास्त्र खड़े किये जाने चाहिए और लोक मानस को परिष्कृत बनाने की आवश्यकता पूरी की जानी चाहिए।

धनवानों को इसके लिए कहा जायगा। साथ ही जनसाधारण के पास यदि थोड़ी सी भी बचत पूँजी हो, तो उसे इन लोकोपयोगी कार्यों में लगा देने के लिए कहा जायगा। कहना न होगा कि युग परिवर्तन का प्रवाह दैवी प्रेरणाओं के आधार पर चल रहा है। इसमें सहयोग देने वाले घाटे में नहीं नफे में ही रहेंगे। पूँजी डूबने जैसी आशंका किसी को भी नहीं करनी चाहिए। वह तो सुरक्षित ही रहने वाली है। बैंक आदि से अधिक ब्याज भी मिलने वाला है। साथ ही युग देवता की सेवा साधना का ऐसा अवसर भी मिलता है जिसके कारण असाधारण आत्म सन्तोष का वरदान भी अनन्त काल तक मिलता रहेगा। जन स्तर पर पूँजी इकट्ठी करने के लिए सरकारी समितियाँ लिमिटेड कम्पनियाँ बनाई जा सकती हैं उनमें बचत पूँजी लगाने के लिए हर भावनाशील व्यक्ति को अपनी संग्रहीत पूँजी लगाने के लिए कहा जा सकता है। अनावश्यक जमीन जायदाद जेवर जमा पूँजी बचत फण्ड आदि के रूप में कितना ही पैसा ऐसा पड़ा रहता है जिसकी साधारणतया कोई विशेष उपयोगिता नहीं होती पर यदि वह उपरोक्त आवश्यकता पूरी करने वाले अर्थ संस्थानों में लग जाये तो उससे आम के आम गुठलियों के दाम वाली कहावत पूरी हो सकती है। पूँजी तो सुरक्षित रहती है साथ ही कुछ लाभ ब्याज भी कमाती है। इसके अतिरिक्त युग की एक अत्यन्त महत्वपूर्ण आवश्यकता पूरी करने का जो श्रेय मिलता है उसे तो हर दृष्टि से भूरि-भूरि प्रशंसा के योग्य ही कहा जायगा।

7-प्रतिभायें

प्रतिभा एक विशिष्ट और अतिरिक्त विभूति है। कुछ लोगों के व्यक्तित्व ऐसे साहसी, स्फूर्तिवान, सूक्ष्मदर्शी, मिलनसार, क्रियाकुशल और प्रभावशाली होते हैं कि वे जिस काम को भी हाथ में लें, उसी को अपने मनोयोग एवं व्यवहार कुशलता के आधार पर गतिशील बनाते चले जाते हैं और सफलता के उच्च शिखर तक पहुँचा देते हैं। इस विशेषता को प्रतिभा कहते हैं। सूझ-बूझ आत्म विश्वास, कर्मठता जैसे अनेक सद्गुण उनमें भरे रहते हैं। आमतौर से ऐसे ही लोग महान कार्यों के संस्थापक एवं संचालक होते हैं। सफलताएं उनके पीछे छाया की तरह फिरती है क्योंकि उन्हें ज्ञान होता है कि कठिनाइयों से कैसे निपटा जाता है, उन्हें सरल कैसे बनाया जाता है।

प्रतिभाशाली व्यक्ति ही सफल संत, राजनेता, समाज सेवी, साहित्यकार, कलाकार, व्यवसायी, व्यवस्थापक होते देखे गये हैं। प्रतिभाएँ ही डाकू, चोर, ठग जैसे दुस्साहस पूर्ण कार्य करते हैं। सेनानायकों के रूप में, लड़ाकू योद्धाओं के रूप में उन्हें ही अग्रिम पंक्ति में देखा जाता है। क्रान्तिकारी भी इसी स्तर के लोग बनते हैं। युग निर्माण अभियान के हर पक्ष को प्रकाशवान बनाने के लिए ऐसे ही लोग चाहिएं। प्रतिभाशाली तत्व जहाँ कहीं भी चमक रहे हों वहाँ से उन्हें आमन्त्रित किया जा रहा है कि वे अपने ईश्वरीय अनुदान को निरर्थक विडंबनाओं में खर्च न करें वरन् उसे नव निर्माण के ऐसे महान प्रयोजन में नियोजित करदें जिसमें उनका, उनकी प्रतिभा का तथा समस्त संसार का हित साधन हो सके।

सातों विभूतियों के क्षेत्र में संसार की करोड़ों प्रतिभाएँ आती हैं। उन्हें प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से प्रभावित करने का कार्य साधारण नहीं असाधारण है। पर है इतना महत्वपूर्ण कि उसे किये बिना लक्ष्य प्राप्ति के लिए और कोई मार्ग नहीं। जनसाधारण को उठाने का कार्य आरंभ से ही चल रहा है और अन्त तक चलता रहेगा। पर उतना पर्याप्त नहीं। युग परिवर्तन जैसे बड़े कार्यों का उत्तरदायित्व और भार सामर्थ्य सम्पन्न लोग ही संभाल सकते हैं। इसलिए इस महती आवश्यकता की पूर्ति के लिए गुरुदेव ने अपना कार्यक्षेत्र व्यापक बनाया है। विश्व यात्रा पर भी निकले हैं। कितना बड़ा प्रयास करना होगा, इसका अनुमान लगा सकना भी सहज बुद्धि का काम नहीं। उसके विस्तार और महत्व को देखने समझने की जितनी गंभीरता पूर्वक चेष्टा की जाती है उतना ही अधिक आश्चर्यचकित, अवाक् रह जाना पड़ता है।

गुरुदेव के कार्यक्रम अगली निजी पञ्च वर्षीय योजना पाँच सूत्री है। 1. निजी विशिष्ठ साधना तपश्चर्या 2. मिशन को विश्वव्यापी बनाने के लिए विभूतियों की दिशा मोड़ना 3. प्राण प्रत्यावर्तन द्वारा एक सहस्र प्राणवान् युग निर्माता तैयार करना 4. नारी जागरण के विशेष प्रयास 5. विज्ञान और अध्यात्म के समन्वय का विशेष प्रयास। इन पाँचों को एक से एक बढ़कर विश्वमानव को दिया गया अनुदान माना जायगा। वर्तमान ढाई मास की विश्वयात्रा को इसी संदर्भ में उठाया गया प्रथम चरण माना जायगा। वे संत पर्व तक वापिस लौट आवेंगे और इन्हीं कार्यों में संलग्न रहेंगे।

इस संदर्भ में एक कार्य अपना भी है और वह हममें से प्रत्येक को करना ही चाहिए। उपरोक्त सात प्रतिभाओं से संपन्न प्रबुद्ध व्यक्ति अपने क्षेत्र में जितने भी हों उनका परिचय नोट कर लेना चाहिए और यह प्रयत्न करना चाहिए कि कम से कम अपने मिशन का परिचय तो उन्हें हो ही जाय। परिचित क्षेत्र को प्रभावित कर सकना, मोड़-मरोड़ सकना, अपरिचितों की अपेक्षा अधिक सरल होता है। अखण्ड ज्योति परिवार के परिजन यदि चाहें तो उनके लिए यह कुछ भी कठिन नहीं कि अपने क्षेत्र के विभूतिवानों से संपर्क स्थापित करें और उन्हें यह बतायें कि इस युग का एक अत्यन्त ही महत्वपूर्ण अभियान किस प्रकार मानव जाति का भविष्य निर्माण करने के लिए सचेष्ट है और उसके साथ कदम मिलाकर चलना ही उनके लिए श्रेयस्कर है।


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