अन्तर्ग्रहीय आदान प्रदान के दिन दूर नहीं

December 1972

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क्या इस निखिल ब्रह्माण्ड में एकमात्र पृथ्वी ही मनुष्य जैसे बुद्धिमान प्राणियों की क्रीड़ा स्थली है अथवा किसी अन्य ग्रह नक्षत्र में भी ऐसे ही जीवधारियों का अस्तित्व है? यदि है तो क्या उनका परस्पर मिलन एवं सहयोग सम्भव है? इस प्रश्न पर जितना अधिक विचार किया गया है उतना ही इस निष्कर्ष पर अधिक विश्वासपूर्वक पहुँचा गया है कि इस असीम ब्रह्माण्ड में पृथ्वी जैसे अनेक लोक विद्यमान हैं और उनमें मनुष्य जैसे ही नहीं वरन् उससे भी कहीं अधिक विकसित स्तर के जीवधारी मौजूद हैं।

जिस प्रकार पृथ्वी निवासी चन्द्रमा पर पहुँच चुके और सौरमण्डल के अन्यान्य ग्रहों की खोज में तत्पर हैं उसी प्रकार उन बुद्धिमान प्राणियों का भी यह प्रयास है कि वे विकसित जीवधारियों की दुनिया से संपर्क स्थापित करें और परस्पर आदान प्रदान के अनेक उपाय एवं मार्ग ढूंढ़ निकालें।

पृथ्वी पर कई प्रकार के ऐसे संकेत समय-समय पर मिलते रहते हैं जिनमें प्रतीत होता है कि अन्य लोकों के बुद्धिमान प्राणियों को पृथ्वी की सुविकसित स्थिति का भी ज्ञान है और वे मनुष्य जाति के साथ अपने सम्बन्ध स्थापित करने के लिये लालायित एवं प्रयत्नशील हैं। प्रकाश पुञ्जों के अवतरण के रूप में यह अनुभव पृथ्वी निवासियों को होते भी रहते हैं। पाश्चात्य जगत में इन्हें उड़न तश्तरियाँ नाम दिया जाता है।

कैलीफोर्निया के कार्निंग शहर में बैठे हुए लोगों ने आकाश में एक चमकदार अनोखी चीज देखी जो काफी नीचे उड़ रही थी और उसमें से चमकदार प्रकाश किरणें निकल रही थीं, वह एक विशाल धातु निर्मित सिगार जैसी थी जो 300 से 500 फीट की ऊँचाई पर उड़ रही थी और पैंदे में से हलकी नीली रोशनी फूट रही थी। फिर उसकी चाल बढ़ी और तेजी से आकाश में विलीन हो गई। इन दर्शकों में से कितनों ने ही कहा-’उड़न तश्तरियों की बात वे गप्प समझते थे पर आज उनने आँखों से देखकर यह विश्वास कर लिया कि वह वस्तुतः एक सच्चाई है।’

रूसी वैज्ञानिकों ने कुछ समय पूर्व यह घोषणा की थी कि उनने ब्रह्माण्ड के किन्हीं अन्य तारकों द्वारा भेजे गये संकेत सुने हैं, यह एक क्रमबद्ध टिमटिमाहट के साथ जुड़े हुए ज्योति संकेतों के रूप में हैं। वे कहते हैं कि ऐसा कर सकना किसी प्रबुद्ध स्तर के प्राणधारियों के लिये ही सम्भव हो सकता है।

आरम्भ में उनकी बात को ज्यादा महत्व नहीं मिला पर अब उसे एक तथ्य माना गया है। एक ‘क्वासर’ तारा-जिसे खगोल विद्या की भाषा में ‘सी.टी.ए.-102’ कहा जाता है निस्सन्देह पृथ्वी पर ऐसी टिमटिमाहट और रेडियो धाराएं भेज रहा है जिसे कर सकना किन्हीं विचारवान् प्राणियों के लिये ही सम्भव है।

ब्रिटेन के विज्ञानी लार्डस्नो ने वैज्ञानिक सम्मेलन में आशा प्रकट की थी अन्तरिक्ष से किसी प्रबुद्ध जाति के सन्देश प्राप्त करने का सुअवसर मनुष्य को निकट भविष्य में ही मिलेगा। यह आशा अकारण ही नहीं थी। अन्तरिक्ष संपर्क के लिये बढ़ते हुए मनुष्य के चरण क्रमशः इस आशा बिन्दु की समीपता का ही आभास देते हैं।

अमेरिका के रेडियो खगोल शास्त्री प्रो. कोनाल्ड व्रैस वैल ने ‘नेचर’ पत्रिका में एक लेख छपाकर यह सम्भावना व्यक्त की है कि हो सकता है उड़न तश्तरियाँ किसी विकसित सभ्यता वाले तारे से सूचना यान के रूप में आई और रह रही हों। सम्भव है वे यहाँ की स्थिति की जानकारी अपने उद्गम स्थान को रेडियो सन्देशों एवं टेलीविजन चित्रों के रूप में भेज रही हों।

अन्तरिक्ष भौतिकी के शोधकर्ता श्री वै वैलेस सलीवान ने अपनी पुस्तक- ‘वी आर नौट अलोन’ -हम अकेले नहीं है- पुस्तक में ब्रह्माण्डव्यापी संचार साधन के लिए एक नई पद्धति ‘वेव लेंग्थ’ की प्रस्तुति की है जिसके अनुसार प्रकाश की चाल इतनी ही पीछे रह जाती है जितनी हवाई जहाज की तुलना में पतंग की। यह तरीका ठीक 21 सेन्टीमीटर अथवा 1420 मेगा साइकिल वेव लेंग्थ के रेडियो कम्पनों पर आधारित है। अणु विकरण की यह स्वाभाविक कम्पन गति है। अन्तरिक्ष संचार व्यवस्था में इसी गति को अपनाने से ही अन्य लोकों के प्राणियों के साथ संपर्क साधा जा सकता है। यह पद्धति अन्य लोकवासी विकसित कर चुके हैं और जितनी दूरी पार करना हमें कठिन या असम्भव लगता है सम्भव है उनके लिए वह सरल हो गई हो।

एक फ्रान्सीसी खगोल विद्या विशारद ने खोजकर बताया कि यह उड़न तश्तरियाँ इन्हीं दिनों आने लगी हों ऐसी बात नहीं है, इनका आवागमन बहुत समय से चल रहा है। रोम में ईसा से 212 वर्ष पूर्व उड़न तश्तरी देखी गई थी। शेक्सपियर के ग्रन्थों में ही नहीं बाइबिल में भी उनका उल्लेख है। अमेरिका में उड़न तश्तरी अनुसंधान कार्य 1947 से ही चल रहा है जबकि प्रथम बार वायुयान चालक ‘कनिथ आर्नोल्ड’ ने माउण्ट रेनियर के निकट अपने विमान से उड़न तश्तरी देखी थी।

हिन्दी के प्रख्यात लेखक श्री इलाचन्द जोशी ने 23 जून 1963 के धर्मयुग में अपनी निज की एक अनुभूति छपाई थी। वे नैनीताल जिले के ताकुला गाँव के एक बँगले में ठहरे थे। रात्रि को उन्हें पास ही कहीं जाना था कि उस घोर अन्धकार में उनने देखा कि- ‘सहसा दक्षिण पश्चिम की ओर की पहाड़ी क्षितिज तीव्र प्रकाश से उद्भासित हो उठा। क्षण भर के लिये अभ्यास वश मैंने समझा कि बिजली कौंध उठी है। पर जब प्रकाश पूरे आठ सैकिण्ड तक स्थिर रहा और बिजली की तरह एक ही सैकिण्ड के बाद विलीन नहीं हुआ तब मैं चौंका और उसके बादी ही मैंने आश्चर्य से देखा कि जलते हुए बड़े बल्ले की तरह की कोई चीज बिना तनिक भी शब्द किये क्षितिज को लांघती हुई सीधे मेरे सिर के ऊपर से आकाश की ओर बड़ी तेजी से उड़ी जा रही है। उसकी पूँछ से तीव्रतम शुभ्र और श्वेत प्रकाश एक सर्च लाइट की तरह पीछे की ओर बिखर रहा था- और उसका धड़ पूरे का पूरा एक बहुत बड़ी चिता की सी पीली लपटों सा दहक रहा था। कुछ क्षणों के लिए मुझे लगा कि कोई भटका हुआ विमान जल गया है और क्षण भर में कहीं गिरना ही चाहता है। पर वह बड़ी तेज रफ्तार से बिना तनिक भी शब्द किये मेरे सिर के ऊपर से होता हुआ सीधा आगे की ओर निकलकर कुछ ही क्षणों बाद आँखों से ओझल हो गया। तब मैं हक्का बक्का रह गया।

इस सम्बन्ध में वैज्ञानिकों की अटकलें तरह-तरह की हैं- ‘साइन्स’ और ‘दी न्यू साइंटिस्ट’ पत्रों के स्तम्भ लेखकों ने यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि यह उड़न तश्तरियाँ अन्य ग्रहों से आने वाले सन्देश वाहक हैं। वे पृथ्वी की खोज खबर लेने आते हैं। अन्य देशों में मनुष्य से भी विकसित किस्म के प्राणी हो सकते हैं और वे भी इस बात के इच्छुक हो सकते हैं कि प्रगतिशील प्राणियों के साथ संपर्क बढ़ाकर ब्रह्माण्ड में जहाँ संभव हो प्रगतिशीलता का अधिक संवर्धन किया जाय।

रूसी खगोल वेत्ता आई.एस. श्कलोव्स्सकी ने अपने ग्रन्थ ‘इन्टेलिजेन्ट लाइफ इन द युनिवर्स’ में विस्तारपूर्वक प्रतिपादित किया है कि- ‘पृथ्वी पर से सबसे पहली ऐसी शब्द ध्वनि अब से बीस वर्ष पूर्व अन्तरिक्ष में फेंकी गई थी जो अन्य ग्रहों के प्रगतिशील प्राणियों द्वारा सुनी या समझी जा सके। यदि वह ध्वनि बिना कोई व्यवधान पड़े बढ़ती चली जा रही होगी तो सौरमण्डल से बाहर के सबसे निकटवर्ती तारे तक पहुँचने में अभी सफल नहीं हुई होगी। शब्द की गति 11 हजार मील प्रति घण्टा है। पृथ्वी से निकटतम तारा ‘प्राक्सियाँ सेन्टरी’ है। इसकी दूरी 4.3 प्रकाश वर्ष है। प्रकाश वर्ष का अर्थ है छह की संख्या के आगे 18 शून्य रख देने पर जो संख्या बनती है- अर्थात् छह पद्म मील-इतनी दूर तक बीस वर्ष पूर्व फेंकी गई आवाज को पहुँचने में अभी मुद्दतों लगेंगे। वह आवाज सुनी जा सकी तो वे लोग पृथ्वी की उपयोगिता समझेंगे और यहाँ तक पहुँचने का रास्ता निकालेंगे। उनकी यात्रा को भी बहुत समय लगेगा तब कहीं उनका पृथ्वी से सम्बन्ध हो सकता है। इस धरती के निवासियों को कुछ कहने लायक वैज्ञानिक प्रगति में अभी मुश्किल से तीन वर्ष हुए हैं। इससे पहले तो भौतिक समृद्धि की दृष्टि से भी पृथ्वी के लिए बहुत पिछड़े हुए थे और विचार, आदर्श एवं व्यवस्था की दृष्टि से तो हजार के पीछे 999 व्यक्ति अभी भी फूहड़ जिन्दगी ही जी रहे हैं। ऐसी दशा में अन्य ग्रह निवासियों को यदि वे सचमुच प्रगतिशील होंगे तो उन्हें कुछ भी आकर्षण न होगा हम लोग गये गुजरे ही दीखेंगे। ऐसी दशा में वे क्यों इतना श्रम करेंगे। फिर यह कहना भी कठिन है कि सबसे निकटवर्ती तारे पर ही सभ्यता का विकास हो गया हो। यदि विकसित तारे और भी आगे हुए तो उनका आवागमन और भी अधिक समय साध्य होगा। ऐसी दशा में यदि यह भी मान लिया जाय कि किन्हीं तारों पर प्रगतिशीलता है तो उनके साथ संपर्क बनाना इतना सरल नहीं है। सौरमण्डल के ग्रहों और उपग्रहों की इतनी खोज तो पहले हो चुकी है कि उनमें से किसी पर भी किसी विकसित प्राणधारी के होने की सम्भावना नहीं है। जीवन का आरम्भिक चिह्न भले ही उनमें से किसी पर मिल जाय। अस्तु उड़न तश्तरियों की संगति अन्य लोक वासी प्राणियों के साथ नहीं मिलाई जानी चाहिए।

श्री सी.जी. जुंग का कथन है। ईश्वर अपनी सर्व व्यापकता, सर्वज्ञानी एवं सर्वशक्तिमान होने का आभास देने के लिये इस प्रकार चौंकाने वाले प्रदर्शन उपस्थित करता है।

बोस्टन के साईक्याट्रिस्ट श्री वेंजामिन साइमन का कथन है आत्माओं की अपूर्णता जब पूर्णता में परिणत होती है तब उसका विकास प्रकाश पुञ्ज के रूप में देखा जा सकता है।

अगले दिनों मनुष्य, देश, जाति और धर्मों की संकीर्ण परिधि में बँधा न रहेगा। पृथ्वी निवासी मनुष्यों की एक ही जाति बिरादरी होगी। विश्वराष्ट्र, विश्वधर्म, विश्वभाषा, विश्वसंस्कृति के आधार पर विश्व बन्धुत्व के आधार पर मनुष्य मनुष्य के बीच स्नेह सौहार्द्र के सम्बन्ध सुदृढ़ होंगे।

इतना ही नहीं विश्व ब्रह्माण्ड के सुविकसित प्राणी परस्पर एकता स्थापित करेंगे और आत्मीय भरे आदान प्रदान की रीति-नीति विकसित करेंगे। उस सुदिन के आगमन की घड़ी जल्दी आये इसके लिये हमें प्रार्थना और आशा करनी चाहिए, साथ ही चेष्टा भी।


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