खुद को मिटाना जिन्दगी है (Kahani)

December 1972

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खुद को मिटाना जिन्दगी है!

दर्द का पीकर हलाहल , मुस्कराना जिन्दगी है।

बच सके कोई अगर-तो चोट खाना जिन्दगी है॥

है बड़ा उपकार- आशा के सुनहरे कण लुटाना।

औ किसी की पीर में हँसते हुए हिस्सा बँटाना ॥

जुड़ सके कोई हृदय, तो टूट जाना जिन्दगी है।

बच सके कोई अगर- तो चोट खाना जिन्दगी है॥

है बड़ा उपहार आस्था का- करुणा विक्षुब्ध मन को।

प्यार की विश्वास की है भेंट, सर्वोत्तम- स्वजन को॥

मुस्कुराये मीत- तो आँसू बहाना जिन्दगी है।

बच सके कोई अगर- तो चोट खाना जिन्दगी है॥

है सफल जीवन उसी का, जो पराये हित जिया है।

है अमर वह व्यक्ति- जिसने विश्वहित का व्रत लिया है।

बच सके नौका अगर- तो डूब जाना जिन्दगी है।

बच सके कोई अगर- तो चोट खाना जिन्दगी है॥

है ऋणी इतिहास उनका- रक्त जो निजदान करते।

बाँटते अमृत जगत को- खुद हलाहल पान करते ॥

विश्व के निर्माण में, खुद को मिटाना जिन्दगी है।

बच सके कोई अगर- तो चोट खाना जिन्दगी है॥

(माया वर्मा)

*समाप्त*


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