स्थूल से अधिक शक्ति ‘सूक्ष्म’ में भरी पड़ी है।

December 1972

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इस विश्व में जो कुछ दृश्यमान होता है वह अदृश्य की परिणिति है। इस विश्व ब्रह्माण्ड में जो कुछ अदृश्य सूक्ष्म बिखरा पड़ा है लाख करोड़वाँ हिस्सा भी दृश्यमान नहीं होता है। पर जो कुछ अनुभव में आता है वह अनुभव से अगम्य-इन्द्रियातीत विराट् का एक नगण्य सा अंश मात्र ही होता है। विराट् ब्रह्माण्ड में जितना प्रचुर अग्नि तत्व भरा पड़ा है हमारा सूर्य उसका राई रत्ती जितना अंश ही है। उस सूर्य की भी दसों दिशाओं में जितनी ऊष्मा फैलती है उसका हम लोग पृथ्वी की ओर विकीर्ण होने वाली गर्मी में से भी एक तुच्छ अंश अनुभव कर पाते हैं।

शरीर में प्रत्यक्ष ऊष्णता के रूप में दीखने वाला बुखार वस्तुतः इन कोटि -कोटि अदृश्य रोग कीटाणुओं के उपद्रव की एक नन्ही झलक ही है। वे रोग कीट हजारों तरह के उपद्रवों की पृष्ठभूमि देह के भीतर रच रहे होते हैं, पर हमें उनमें से मात्र चमड़ी पर उभरने वाली गर्मी मात्र का ही अनुभव होता है। भीतर के अंगों में जो ताप या विग्रह उन रोग कीटों ने उत्पन्न किया होता है वह तो विदित ही नहीं होता। मनुष्य की काया को ही लीजिये इतना लम्बा चौड़ा शरीर वस्तुतः एक सूक्ष्म वीर्य कण और उसके भीतर रहने वाले ‘जीन्स’ न्यूक्लियस आदि अति सूक्ष्म तत्वों की परिणति मात्र होता है। वह अदृश्य सूक्ष्मता की काया के रूप में जितनी प्रकट होती है, उससे भी लाखों गुनी अधिक विशेषताएं फिर भी अनुभव में न आने पर भी विद्यमान रहती हैं।

विराट् ब्रह्माण्ड का वास्तविक स्वरूप उसका सूक्ष्म ‘शक्ति अंश’ ही है। जिसे परा और अपरा प्रकृति के नाम से जाना जाता है। उसके कर्तृत्व का नन्हा सा अंश ही स्वतः हमारी मनः चेतना की पकड़ में आता है। जो दृश्य है उसके इर्द -गिर्द अदृश्य शक्ति स्रोत की असीम प्रवाह धारा बहती रहती है। ग्रह नक्षत्रों से लेकर वन, पर्वत, सागर, सरिता तक सब पर यही बात लागू होती है। मानव शरीर और भी अधिक विचित्र है। उसकी संवेदनशीलता -चुम्बक क्षमता इतनी अधिक है कि वह अपनी कोमल ग्रहण शक्ति के कारण इस अदृश्य जगत की किन्हीं भी अद्भुत शक्तियों को अभीष्ट परिमाण में अपने अन्दर खींच सकता है- ग्रहण और धारण कर सकता है।

शरीर शास्त्री जितना अब तक देह के भीतरी और बाहरी अंगों के संबंध में प्राप्त कर चुके हैं उससे कहीं अधिक गंभीर ज्ञान हमें अपने सूक्ष्म और कारण शरीर के सम्बन्ध में प्राप्त करना चाहिए। जो शोधें प्राचीन काल में हो चुकीं हैं उससे आगे का सारा क्रम ही अवरुद्ध हो गया, जबकि आवश्यकता उसे निरन्तर जारी रखे जाने की थी। ज्ञान का अन्त नहीं, जो प्राचीन काल में जाना जा चुका वह समग्र नहीं। मानवीय सामर्थ्य और विराट् की अनन्तता की तुलना करते हुए यही उचित है कि उपलब्ध ज्ञान को पूर्ण न माना जाय और अन्वेषण कार्य जारी रखा जाय।

सूक्ष्म और कारण शरीरों की स्थिति, शक्ति, संभावना और उपयोग की प्रक्रिया समझने में भूत काल के साधन विज्ञानियों की जानकारियों से लाभ उठाया जाना चाहिए और अन्तरिक्ष के सूक्ष्म प्रवाह संचार में पिछले दिनों जो परिवर्तन हुए हैं- मनुष्य कलेवर के स्तर में जो भिन्नता आई है उसे ध्यान में रखते हुए हमें शोध कार्य को आगे बढ़ाना चाहिए।

स्थूल दृश्य शरीर की गतिविधियाँ इस भूलोक तक सीमित हैं। सूक्ष्म शरीर-भुवः लोक तक। और कारण शरीर स्वः लोक तक अपनी सक्रियता फैलाये हुए हैं। इन भूः भुवः स्वः लोकों को ग्रह, उपग्रह, नक्षत्र, आदि समझने की आमतौर से भूल की जाती है। लोक और ग्रह सर्वथा भिन्न हैं। ग्रह हैं- लोक सूक्ष्म। इस दृश्यमान अनुभवगम्य भूलोक के भीतर अदृश्य स्थिति में दो अन्य लोक समाये हुए हैं। भुवः लोक और स्वः लोक। वहाँ की स्थिति भू लोक से भिन्न है। यहाँ पदार्थ का प्राधान्य है। जो कुछ भी सुख दुख हमें मिलते हैं वे सब अणु पदार्थों के माध्यम से मिलते हैं। यहाँ हम जो कुछ चाहते या उपलब्ध करते हैं वह पदार्थ ही होता है। स्थूल शरीर चूंकि स्वयं पदार्थों का बना है इसलिए उसकी दौड़ या पहुँच पदार्थ तक ही सीमित हो सकती है। भुवः लोक विचार प्रधान होने से उसकी अनुभूतियाँ, शक्तियाँ, क्षमतायें, संभावनायें सब कुछ इस बात पर निर्भर करती हैं कि व्यक्ति का बुद्धि संस्थान, विचार स्तर क्या था।

स्वः लोक भावना लोक है। यह भावना प्रधान है। भावनाओं में रस है। प्रेम का रस प्रख्यात है। माता और मित्र के बीच कितनी प्रगाढ़ता, घनिष्ठता, आत्मीयता होती है यह हम प्रत्यक्ष देखते हैं। वे सुयोग में कितना सुख और वियोग में कितना दुख अनुभव करते हैं इसे कोई सहृदय व्यक्ति अपनी अनुभूतियों की तथा उन स्थितियों के ज्वार भाटे से प्रभावित लोगों की अन्तःस्थिति का अनुमान लगाकर वस्तुस्थिति की गहराई जान सकते हैं। यह भावसंवेदना इतनी सघन होती है कि शरीर और मन को किसी विशिष्ठ दिशा में घसीटती हुई कहीं से कहीं ले पहुँचती है। श्रद्धा और विश्वास के उपकरणों से देवताओं को विनिर्मित करना और उन पर अपना भावारोपण करके अभीष्ट वरदान प्राप्त कर लेना यह सब भाव संस्थान का चमत्कार है। देवता होते हैं या नहीं। उनमें वरदान देने की सामर्थ्य है या नहीं। इस तथ्य को समझने के लिये हमें मनुष्य की भाव सामर्थ्य की प्रचंडता को समझना पड़ेगा। उसकी श्रद्धा का बल असीम है। जिसकी जितनी श्रद्धा होगी, जिसका जितना गहरा विश्वास होगा, जिसने जितना प्रगाढ़ संकल्प कर रक्खा होगा, और जिसने जितनी गहरी भक्ति भावना के संवेदनात्मक बना रखा होगा देवता उसकी मान्यता के अनुरूप बनकर खड़ा हो जायगा। वह उतना ही शक्ति सम्पन्न होगा और उतने ही सच्चे वरदान देगा।

कहना न होगा कि हर चीज सूक्ष्म होने पर अधिक शक्तिशाली बनती चली जाती है। मिट्टी में वह बल नहीं जो उसके अति सूक्ष्म अंश अणु में है। हवा में वह सामर्थ्य नहीं जो ईथर में है, पानी में वह क्षमता नहीं जो भाप में है। स्थूल शरीर के गुण धर्म से हम परिचित हैं। वह सीमित कार्य ही अन्य जीव जन्तुओं की तरह पूरे कर सकता है। जो अतिरिक्त सामर्थ्य, अतिरिक्त प्रतिभा , अतिरिक्त प्रखरता मनुष्य के अन्दर देखी जाती है वह उसके सूक्ष्म और कारण शरीरों की ही है। बाहर से सब लोग लगभग एक से दीखने पर भी भीतरी स्थिति के कारण उनमें जमीन आसमान जितना अन्तर पाया जाता है यह रक्त माँस का फर्क नहीं वरन् सूक्ष्म शरीर की अन्तः चेतना में सन्निहित समर्थता और असमर्थता के कारण ही होता है। पंच भौतिक स्थूल काया को जिस प्रकार आहार, व्यायाम, चिकित्सा आदि उपायों से सामर्थ्यवान बनाया जाता है उसी प्रकार सूक्ष्म शरीर तथा कारण शरीर को भी योग साधनों द्वारा परिपुष्ट बनाया जाता है। मनोबल और आत्मबल के कारण जो अद्भुत विशेषताएं लोगों में देखी जाती हैं उन्हें इन सूक्ष्म शरीरों की बलिष्ठता ही समझना चाहिए। साधन का उद्देश्य उसी बलिष्ठता को सम्पन्न करना है।

स्थूल शरीर की शोभा, तृप्ति और उन्नति के लिये हमारे प्रयत्न निरन्तर चलते रहते हैं। यदि सूक्ष्म शरीर और कारण शरीरों को उपेक्षित और विभुक्षित पड़े रहने देने की हानि को हम समझें और उन्हें भी स्थूल शरीर की ही तरह समुन्नत करने का प्रयत्न करें तो ऐसे असाधारण लाभ प्राप्त कर सकते हैं जिनके द्वारा जीवन कृत कृत्य हो सके। भूलोक में प्राप्त पदार्थ ‘सम्पदाओं’ से प्राप्त थोड़े सुख का हमें ज्ञान है अस्तु उसी की उधेड़ बुन में लगे रहते हैं। भुवः और स्वः लोकों की विभूतियों को भी जान सकें तो सच्चे अर्थों में सम्पन्न बन सकते हैं। योग साधना का प्रयोजन मनुष्य को ऐसी ही समग्र सम्पन्नता से लाभान्वित करता है।


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