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December 1972

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इस युग की सबसे बड़ी माँग है एक ऐसा असम्प्रदायी नीति धर्म जो मानव समाज में दिव्य जीवन की प्रेरणा भर सके।

सौरमण्डल में नौ ग्रह हैं। इनमें एक केन्द्रीय सूर्य और एक हमारी पृथ्वी भी सम्मिलित है। इन दो को छोड़ दे तो फिर अन्य ग्रह सात ही रह जाते हैं। अन्तरंग में अवस्थित ईश्वरीय सत्ता और जीव चेतना को सूर्य और पृथ्वी की संज्ञा दी जाय तो फिर काय कलेवर की सात आवरणों वाले- सात ग्रहों वाले- सौर मण्डल से तुलना की जा सकती है। यदि कायिक सौरमण्डल को नव ग्रह जैसा मानने का आग्रह हो तो आत्मा और परमात्मा की दो प्रतिमाओं को भी देह मन्दिर में स्थापित मानकर वह संख्या पूरी नौ भी हो सकती है। यह सप्तधा अथवा नवधा आत्मसत्ता सूक्ष्मतः चक्र संस्थान के रूप में अनुभव की जाती है और शरीर के सप्त तन्त्रों में विभक्त प्रत्यक्ष रूप से देखी जाती है।

वस्तुतः विश्व चेतना के अंतर्गत जो भी शक्ति समुद्र लहराता और चेतना प्रवाह उमड़ता है उस सबका बीज सूत्र मानवी सत्ता के अंतर्गत विद्यमान है। इसे गम्भीरतापूर्वक देखा समझाया जाय और समग्र प्रगति के महान प्रयोजन में उनका समुचित प्रयोग किया जाय, इसी विद्या को समझाने वाली प्रक्रिया का नाम आत्मविद्या है। जो आत्मविद्या का आधार अपनाकर अन्तर्निहित महत्ता को सजग कर सका, समझना चाहिए उसी ने जीवन लाभ पाया अन्यथा यह मानवी काया अन्य जीवधारियों की तुलना में कहीं अधिक दुर्बल ही सिद्ध होती है। आर्थिक दृष्टि से तो उसका मूल्य दो रुपये से भी कम है।

मनुष्य शरीर का रासायनिक विश्लेषण किया जाय तो उसकी संरचना में औसतन निम्न तत्व पाये जायेंगे।

ऑक्सीजन- 72 प्रतिशत

कार्बन- 13.60 प्रतिशत

हाइड्रोजन- 9.10 प्रतिशत

नाइट्रोजन- 2.50 प्रतिशत

कैल्शियम- 1.30 प्रतिशत

फास्फोरस- 1.25 प्रतिशत

कुछ स्वल्प मात्रा में निम्न पदार्थ भी मिलते हैं- गन्धक, लोहा, आर्गेनिक, सोडियम, मैग्नीशियम, ब्रोमीन, क्लोरीन सिलिकॉन, कोबाल्ट, फ्लोरीन, जस्ता, ताँबा, पोटेशियम, आयोडीन।

यह पदार्थ कितनी मात्रा में हैं और उनका क्या उपयोग हो सकता है। इसका विवेचन करते हुए वैज्ञानिक कहते हैं कि -’शक्कर’ इतनी है जिससे सौ कप चाय मीठी हो सके। चूना इतना है कि जिससे मुर्गी का एक छोटा दरबा पोता जा सके। लोहा इतना है जिससे एक इंच लम्बी कील बन सके। मैग्नीशियम इतना है कि जिसमें छह छोटी तस्वीरों में रंग भरा जा सके। पोटेशियम इतना जिससे बच्चों की बन्दूक का एक पटाखा बन सके। गंधक इतना जिससे एक कुत्ते की जूँ मारी जा सके। फास्फोरस इतना जिससे बीस माचिस बक्स बन जायें। चर्बी इतनी जिससे एक दर्जन साबुन के बार बनाये जा सकें। ताँबा इतना जिससे एक पैसा ढल सके। पानी इतना जिससे छोटे बच्चे को नहलाया जा सके।

इस महंगाई के जमाने में भी इस सारे सामान का मूल्य डेढ़ रुपये से अधिक का नहीं बैठता।

हम चाहें तो आत्म विद्या का सहारा लेकर अपने अस्तित्व को ईश्वरोपम शक्तिशाली सिद्ध कर सकते हैं अथवा वह मिट्टी का ऐसा टूटा-फूटा-नौ छेद वाला घड़ा मात्र है जिसका बाजारू मूल्य दो रुपये भी तो नहीं मिल सकता।


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