यज्ञ का ज्ञान विज्ञान

यज्ञ से आत्म शान्ति

<<   |   <   | |   >   |   >>
यज्ञ से आत्म शान्ति
महाभारत की लडा़ई के उपरान्त युधिष्ठिर शोकाकुल थे। धृतराष्ट्र के समझाने के उपरान्त श्रीकृष्ण भगवान् उनसे कहते हैं-

एवमुक्तस्तु राजा धृतराष्ट्रेण धीमता।
तूष्णीं वभूव मेधावी तमुवाचाथ केशव।।१।।
अतीव मनसा शोकः क्रियमाणो जनाधिप।
सन्तापयति चैतस्य पूर्व प्रेतान्विता महान् ।।२।।
यजस्व विविधैर्यज्ञैः बहुभिः स्वाप्तदक्षिणैः।
देवांस्तर्पय सोमेन स्वधया च पितरानपि।।३।।
(महाभारत, अश्वमेधिक पर्व, दूसरा अध्याय)
अर्थ-
धृतराष्ट्र के समझाने पर जब मेधावी युधिष्ठिर चुप हो गये, तो भगवान् कृष्ण ने कहा- मन ही मन दुःख करने से मृत पूर्वजों को अनुपात होता है, अतः शोक का परित्याग कर आप पूरी दक्षिणा वाले विविध महायज्ञों को करके सोमपान द्वारा देवों को एवं स्वधा द्वारा पितरों क तृप्त कीजिए।
यह कहने के उपरान्त युधिष्ठिर जी पूछते हैं-
मैं पितामह, कर्ण आदि को मारकर अशान्त हूँ
अतः-

कर्मणा तद्विधत्स्वेह मेन शुध्यति मे मनः।
तमेवंवदिनं पार्थं व्यासः प्रोवाच धर्मवित् ।।
(महाभारत, श्वमेध॰ दूसरा अध्याय)
अर्थ-
हे भगवान् ! जिन कर्मों के द्वारा मैं इन सब पापों से छूट जाऊँ, मेरा मन पवित्र हो जाय, वह विधान बतलाइये। यह प्रश्न सुनकर श्री व्यास भगवान् उनसे श्रेष्ठ वचन कहने लगे-

आत्मानं मन्यसे चाथ पाप कर्माणमन्ततः।
श्रणु तत्र यथा पापमयकृष्येत भारत ।।३।।
तपोभिः क्रतुभिश्चैव दानेन च युधिष्ठिर।
तरन्ति नित्यं पुरुषा़ः ये स्मपापानि कुर्वते।।४।।
यज्ञेन तपसा चैव दानेन च नराधिपः।
पूयन्ते नरशार्दूल नराः दुष्कृत कारिणः।।५।।
अर्थ-
हे भारत ! यदि तुम अपने को निश्चित रूप से पापी मानते हो, तो जिस प्रकार पाप से छूट सकते हो, उसका समाधान सुनो।।३।।
हे युधिष्ठिर ! तप, यज्ञ और दान के द्वारा सदा ही मनुष्यगण पापों से छूट जाया करते हैं।।४।।
हे नराधिप ! यज्ञ, दान, और तप से दुष्कर्म करने वाले व्यक्तियों की (पाप से) शुद्धि होती है।।५।।

व्यास जी युधिष्ठिर को पाप से मुक्त होने के साधन के तौर पर यज्ञादि का निर्देश कर रहे हैं।

असुराश्च सुराश्चैव पुण्यहेतोर्मखे क्रियाम्।
प्रयतन्ते महात्मानस्तस्माद्यज्ञाः परायणम्।।६।।
यज्ञैरेव महात्मानो वभूवुरधिकाः सुराः।
ततो देवाः क्रियावन्तो दानवानभ्यधर्षयन्।।७।।
राजसूयाश्वमेधौ च सर्वमेधं च भारत।
नरमेधं च नृपते त्वामाहर युधिष्ठिरः ।।८।।
अर्थ-
असुर और देवता, दोनों ही पापों के विनाश एवं पुण्यों के सञ्चय के लिए समधिक यज्ञानुष्ठान ही करते हैं, इसी से यज्ञ श्रेष्ठ माना गया है। देवता लोग यज्ञों के द्वारा ही असुरों से अधिक प्रभावशाली बने। यज्ञानुष्ठान में अधिक क्रियावान् होने से ही देवों ने असुरों को पराजित किया। अतः हे युधिष्ठिर ! तुम भी राजसूय, अश्वमेध, सर्वमेध, नरमेध आदि यज्ञों का अनुष्ठान करो।
राजा जन्मेजय वैशम्पायन जी से कह रहे हैं-
जन्मेजय उवाच-

यज्ञे सक्तानृपतयस्तपः सक्ता महर्षयः।
शान्तिव्यवस्थिताः विप्राः शमे दमे इति प्रभो।।१।।
तस्मात् यज्ञफलस्तुल्यं न किञ्चिदिह दृश्यते।
इति मे वर्तते बुद्धिस्तदा चैतद संशयम्।।२।।
यज्ञैरिष्टवा तु बहवो राजानो द्विजसत्तमाः।
इह कीर्ति परां प्राप्य स्वर्गमवाप्नुयुः ।।३।।
देवराजः सहस्त्राक्षः ऋतुभिर्भूरि दक्षिणैः।
देवराज्यं महातेजाः प्राप्तवानखिलं विभु।।४।।
अर्थ-
राजा जन्मेजय ने कहा- हे ब्रह्मन ! जब राजा लोग यज्ञ, महर्षिगण तप और विप्रगण शम, दम एवं शान्ति करने के समर्थ हैं, तब मेरी बुद्धि में ऐसा निश्चय होता है, कि इस विश्व में यज्ञ- फल से श्रेष्ठ और कुछ भी नहीं है।।१- २।।
जे द्विजसत्तम ! अनेक राजाओं ने यज्ञ के द्वारा ही इस लोक में परम यश एवं मरणोपरान्त स्वर्ग की प्राप्ति की है।।३।।
महातेजस्वी देवराज इन्द्र ने भी दक्षिणायुत अनेक यज्ञ करके ही सम्पूर्ण देव लोक के राज्य की प्राप्ति की है।

स्वर्गापवर्गों मानुष्याः प्राप्नुवन्ति नरामुने।
यच्चाभिश्नचितमभीप्सित स्थानं यद्यान्ति
मनुजाद्विजः।।१।।
अर्थ- यज्ञ के द्वारा मनुष्य इस शरीर से ही स्वर्ग और अपवर्ग प्राप्त कर सकते हैं तथा और भी जिस स्थान की उन्हें इच्छा हो, उसको जा सकते हैं।
अहन्यहन्यनुष्ठान यज्ञानां मुनिसत्तम्।
उपकारकरं पुंसा क्रियमाणाध शान्तिदम्।।२८।।
अर्थ-
नित्य- प्रति किये जाने वाला यज्ञानुष्ठान मनुष्यों का परम उपकारक और उनके किये हुए पापों को शान्त करने वाला है।

तामिन्स्त्रमन्ध तामिस्त्रं महारौरवौ।
असिपत्रवनं घोर कालसूत्रमवीचिकम्।।४१।।
विनिन्दकानां वेदस्य यज्ञव्याघातकारिणाम्।
स्थानमेतत्समाख्यातं स्वधर्मत्यागिश्च ये।।४२।।
अर्थ-
तामिस्त्र, अन्धतामिस्त्र, महारौरव, रौरव, असिपत्रवन, घोर कालसूत्र और भवीचिक आदि जो नरक हैं, वे वेदों की निन्दा और यज्ञों का उच्छेद करने वाले तथा स्वधर्म विमुख पुरुषों के स्थान कहे गये हैं।
वेद यज्ञमंत्रं रूपमाश्रित्यजगतः स्थितौ।
जगत की संरक्षा के लिए वेद भगवान् को यज्ञरूप धारण करना पडा़ और वेद भगवान् यज्ञमय हुए।

विष्णुधर्मोत्तर पुराण की कथा है कि इन्द्र वृत्रासुर के मारने से लगी हुई ब्रह्म- हत्या के भय से भयभीत हुआ जब विषतन्तु में छिप गया तो इन्द्रलोक में अराजकता से दुःखी देवताओं ने प्रभु त्रैलोकनाथ की प्रार्थना की, तब भगवान् ने कहा-

यजतां सोश्वमेधेन मामेवसुरसत्तमाः।
अहमेव कारिष्यामि विपाप्मान विडौजसम्।।
तत्कृता ब्रह्म्हत्यां तु चतुर्वा स करिष्यति।।
अहमंशेन याष्यामि भूतलं सुरकारणम् ।।
नष्टे च भूतले धर्मं स्थापयिष्याम्यहं पुनः।
एद्वत्सर्वं यथोदिष्टं देव देवेन शार्ङ्गिणा ।।
चक्रुः सुरगणाः सर्वें राज्यं चावाप वृत्रहा।।
अर्थ-
हे सुरश्रेष्ठ देवताओ ! वह इन्द्र मुझको ही यज्ञ द्वारा यजन करे, मैं ही इन्द्र को ब्रह्महत्या के पाप से मुक्त करूँगा। उस अश्वमेध यज्ञ करने से इन्द्र ब्रह्महत्या को चार जगह बाँट देगा।
मैं अंशों सहित देवताओं के कारण पृथ्वी पर जाऊँगा, और धर्म के नष्ट हो जाने पर मैं फिर धर्म की स्थापना करूँगा।
देवाधिदेव शार्ङ्गपाणि भगवान् ने ये सब वृतान्त जैसा कहा, वैसा देवताओं ने किया और इन्द्र ने ब्रह्महत्या के पाप से छुटकारा प्राप्त किया।
श्री नारदजी उग्रसेन से यज्ञ का महत्व कह रहे हैं-

द्विजहा विश्वहागोध्नो वाजिमेधेन शुध्यति।
तस्मादूरञ्च यज्ञानां हयमेधं वदन्ति हि।।१६।।
निष्कारणं नृपश्रेष्ठ वाजिमेधं करोति यः।
ब्रजेत्सुपर्णकेतोः स सदनं सिद्ध दुर्लभम्।।१७।।
अर्थ-
द्विज हत्यारा, विश्व- वधकर्ता, एवं गौओं को मारने वाला भी अश्वमेध यज्ञ करने से परिशुद्ध हो जाता है। हे नृपश्रेष्ठ ! वह यज्ञ निष्कामभाव से जो करते हैं, वे गरुड़ध्वज विष्णु भगवान् का लोक प्राप्त करते हैं, जो सिद्धों के लिए भी दुर्लभ है।
तस्मा आप्यनुभावेन स्वेनैवावाप्रराधसे।
धर्मं एव मतिं दत्त्वाभिवशास्ते दिवं ययु।।५७।।
अर्थ-
दक्ष को निज यज्ञादि कर्मों के प्रभाव से स्वतः सब सिद्धियाँ प्रप्त हो गयी थीं, फिर भी भगवान का यज्ञ समाप्त होने पर "धर्म में तुम्हारी बुद्धि लगी रहे" यह वरदान देकर पुनः अपने लोक को चले गये।
जब परशुराम जी ने भूमि को क्षत्रिय, विहीन कर दिया, तो पाप से मुक्ति के लिए यज्ञ सम्पादित किया गया-
अश्वमेध महायज्ञ- चकार विधिवदद्विजः।
प्रददौ विप्रमुख्येभ्यः सप्तद्वीपवती महीम्।।
अर्थ-
ब्राह्मण ने महायज्ञ अश्वमेध किया और मुख्य विप्रों के लिए सप्तद्वीप वाली पृथ्वी का दान किया।

<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118