यज्ञ का ज्ञान विज्ञान

विसर्जन -सूर्याघ्यदानम्

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सूर्यार्घ्यदान हर उपासनात्मक कृत्य के बाद किया जाता है । जल का स्वभाव अधोगामी है, वही सूर्य की ऊष्मा के संसर्ग से ऊर्ध्वगामी बनता है, असीम में विचरण करता है । साधक भावना करता है, हमारी हीन वृत्तियाँ, सविता देव के संसर्ग से ऊर्ध्वगामी बनें, विराट् में फैलें, सीमित जीव, चंचल जीवन-असीम अविचल ब्रह्म से जुड़े, यही है सूर्यार्घ्यदान की भावना ।
सूर्य की ओर मुख करके कलश का जल धीरे-धीरे धार बाँधकर छोड़ना चाहिए । किसी थ्ााल को नीचे रखकर यह र्अघ्य जल उसी में इकट्ठा कर लिया जाए और फिर किसी पावन स्थान पर उसका विसर्जन किया जाए ।

ॐ सूर्यदेव! सहस्रांशो, तेजोराशे जगत्पते ।
अनुकम्पय मां भक्त्या, गृहाणार्घ्यं दिवाकर॥
ॐ सूर्याय नमः, आदित्याय नमः, भास्कराय नमः ।
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