यज्ञ का ज्ञान विज्ञान

यज्ञोपैथी एक समग्र चिकित्सा पद्धति

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मानवी काया सृष्टि की सर्वोपरि संरचना है। इसके रोम- रोम में विलक्षणता संव्याप्त है। शरीर की स्थूल गतिविधियों के मूल में अनेकानेक जादू भरी विशेषताएँ छिपी पडी़ हैं। पंचतत्त्वों से बनी इस काया का प्रकृतिपरक स्थूल अंश ही जब इतना अद्भुत है तो फिर उसकी स्थूल सत्ता की महत्ता तो अकल्पनीय है। सच तो यह है कि स्थूल- सूक्ष्म की कृपा पर ही निर्भर है। इस तथ्य का प्रतिपादन शरीर के महत्त्वपूर्ण घटक हारमोन्स करते हैं। कार्य- संरचना एवं व्यक्तित्व का निर्धारण तो ये करते ही हैं। जीवनी शक्ति, जिजीविषा, भावना, संवेदनाएँ, आवेग आदि महत्त्वपूर्ण अदृश्य सामर्थ्यों का विकास भी हारमोन्स की दया से ही होता है।

उपरोक्त तथ्य दृश्यमान स्थूल के अन्तराल में छिपी सूक्ष्म सत्ता की महत्ता का प्रतिपादन करते हैं, पर मानव ने मात्र स्थूल जगत की क्रियाओं एवं स्वरूप को देखा है तथा उसी से प्रभावित भी हुआ है। अनेकों विभ्रम एवं रोगों- शोकों का कारण यही बाह्य दृष्टि रही है, मात्र ब्रह्य सुख सुविधाओं पर ध्यान देने का दुष्परिणाम यह हुआ है कि संवेदनाओं का स्तर ही शारीरिक स्वास्थ्य का निर्धारण करता है। व्रक्ष का बाहरी स्वरूप तो फल- फूल पत्तियों के रूप में दिखाई देता है पर इस ब्राह्य ऐश्वर्य के मूल में जो सत्ता काम कर रही है वह उसकी जड़ में है यही बात, शारीरिक स्वास्थ्य के सन्दर्भ में भी है। अन्तःकरण की शुष्कता एवं मनोविकार बाहर से स्वस्थ दिखाई देने वाले व्यक्ति को भी आध्यात्मिक मान्यता के अनुसार अस्वस्थ ही ठहराते हैं। महत्ता यहाँ भी इन सूक्ष्म विकारों की है जो स्थूल चर्मचक्षुओं से दिखाई नहीं देते।

विगत दिनों पाश्चात्य चिकित्सा पद्धति का विकास बडी़ तेजी से हुआ है। विभिन्न व्याधियों के लिए प्राण रक्षक औषधियाँ खोज ली गई हैं। इसका लाभ पीडि़त मानवता को मिला है। वैज्ञानिकों ने पुरुषार्थ पूर्ण शोध कर चिकित्सा के ऐसे नये आयाम खोले हैं जिनकी जानकारी मानव को नहीं थी। मनुष्य शरीर का गहनतम अध्ययन किया गया है। एनाटामी एवं फिजियालॉजी की शोधों के माध्यम से शारीरिक संरचना एवं कार्य पद्धति की सांगोपांग जानकारी मनुष्य को हस्तगत हुई। रोगों के कारण उनसे होने वाली विकृति एवं तदनुरूप औषधि व्यवस्था का एक स्वरूप तैयार हुआ। सरएलेक्जेण्डर फूलेर्मिग द्वारा पेनिसिलिन के आविष्कार से लेकर आज के संक्रमणनाशक विभिन्न- एण्टी की खोजों ने विज्ञान की उपलब्धियों को सर्वोपरि स्थापित किया है। इन सब के बावजूद पदार्थ विज्ञानियों के इस पुरुषार्थ में एक मूल दोष रह गया ।। चाहे वह मुख से ली जाने वाली औषधि हो अथवा इंजेक्शन से, सूक्ष्म संस्थानों तक उसकी पहुँच नहीं हो पायी। मात्र विकृति निवारण ही इन दवाओं का उद्देश्य रह गया। इसी कारण स्थायी रोगोपचार की संभावना मात्र सर्जरी के कुछ पक्षों को छोड़कर पाश्चात्य चिकित्सा पद्धति में कहीं नजर नहीं आती। सूक्ष्म की महत्ता न समझ पाने एवं उसकी सामर्थ्य के प्रमाण होते हुए भी भौतिक दृष्टि से उसे नकारने के कारण ही यह स्थिति बनी है। रोग निदान के आधुनिकतम साधनों के होते हुए भी आज रोगों का बाहुल्य है एक रोग मिटता है उसके लिए प्रयुक्त की गई औषधि ही दूसरे रोग को जन्म दे देती है। इस तरह उपचार के नाम पर हताश है।

आवश्यकता आज ऐसी चिकित्सा पद्धति की है जो मानव का संपूर्ण उपचार कर सके, समग्र उपचार अर्थात् आस्थाओं का परिशोधन, मानसिक विकारों का निराकरण एवं शरीर गत अव्यवस्थाओं का सुगढ़ता पूर्ण संयोजन कर सके। इसी वैकल्पिक चिकित्सा पद्धति के रूप में आर्षमानवों ने यज्ञ चिकित्सा की परिकल्पना की थी, जिसे आधुनिक परिप्रेक्ष्य में पुनर्जीवित करने की आवश्यकता को देखते हुए शोध संस्थान की स्थापना की गयी हैं।

मनुष्य के उन्नत स्वास्थ्य हेतु आत्मिक, मानसिक एवं शारीरिक व्याधियों के निराकरण एवं स्वास्थ्य सम्वर्धन के सन्दर्भों से आर्ष ग्रन्थ भरे भडे़ हैं ऋषि गणों ने कार्य संरचना एवं आस्थाओं के पारस्परिक सामंजस्य को प्रधानता दी। यही कारण था कि तत्कालीन समाज व्यवस्था सतयुगी कहलाती थी। मानव समुदाय चिरस्थायी स्वास्थ्य का आनन्द भोगता था। यज्ञ ही एक ऐसा माध्यम है जिसके द्वारा दिव्य संस्कारीय औषधियों एवं पुष्टाई को सूक्ष्म विकारों की जड़ जिन स्थानों पर होती है, वहाँ तक अन्य औषधियाँ नहीं पहुँच पातीं। परन्तु धूमीकृत औषधि विभिन्न मार्गों द्वारा पहुँचकर तत्काल अपना प्रभाव दिखाती है एवं मानव को कष्ट पीडा़ से मुक्ति दिलाती है। यह विज्ञान अपने चिरपुरातन समय में शिखर पर था एवं उस काल के वैज्ञानिकों ने इस पर शोध कर इस पद्धति को सर्वोच्च स्थान पर प्रतिष्ठित किया था। मध्यकालीन समय में अनेकानेक विकृतियाँ विसंगतियाँ इस क्षेत्र में भी प्रवेश कर गई। फलतः आस्थायुक्त कर्मकाण्डों द्वारा वनौषधि यजन की यह प्रक्रिया मात्र जलने की प्रक्रिया तक ही सीमित रह गयी। आज की विभीषिका को दृष्टिगत रख दैवी प्रेरणा हुई है कि आधुनिकतम वैज्ञानिक शोधों द्वारा इस चिरपुरातन चिकित्सा व्यवस्था को भी प्रयोग परीक्षण की कसौटी पर रखा जाय एवं समस्त मानवता को एक ऐसा उपहार दिया जाय जो आने वाले सहस्त्रों वर्षों तक समग्र स्वास्थ्य सम्वर्धन का एक स्वरूप बन सके।

वस्तुतः रोग एक विकृति है जो जीवन यापन के सीमा बंधनों का उल्लघंन करने पर प्रकृति के दण्ड विधान द्वारा मनुष्य के ऊपर आ बरसती है। खान पान आहार बिहार का अपना प्रकृतिगत स्वरूप है। समस्त खाद्य पदार्थ प्रकृति की मनुष्य को देन है। चाहे वे फल हैं या मिर्चमसाले। जीभ का असंयम एवं प्रकृति के विपरीत आचरण ही व्याधियों को आमंत्रित करता है। अमेरिका के सुप्रसिद्ध चिकित्सा शास्त्री एम॰ डी॰ पशीने का मत है कि "बीमारियों का कारण विजातीय द्रव्य अथवा कीटाणु नहीं अपितु जीवनी शक्ति का अभाव है। अतः रोग निवारण हेतु कीटाणुओं का नाश करना नहीं अपितु उन कारणों को दूर करना उद्देश्य होना चाहिये जो कीटाणु वृद्धि में सहायक हैं।" यह हमारी दुर्बुद्धिजन्य उच्छृंखलता ही है, जो उलट कर हमले करती है और फलस्वरूप शरीर के पीडा़, मन को क्षोभ और अंतरंग को आत्म प्रताड़ना का त्रास सहना पड़ता है। इसीलिए रोगोपचार से अधिक महत्त्व इस तथ्य को दिया जाना चाहिए कि उनके उत्पन्न होने का अवसर ही नहीं आए। चिरपुरातन यज्ञीय विज्ञान इस स्थिति से उबरने का मार्ग बताता है। यज्ञ को धर्म का पिता कहा गया है। यज्ञ के रोगोपचार, स्वास्थ्य सम्वर्धन, प्रकृति अनुकूलन, वनस्पति सम्वर्धन जैसे अनेकानेक पक्षों का वर्णन आर्षग्रंथ करते हैं। यज्ञ चिकित्सा के इस पक्ष को प्रयोग परीक्षण की कसौटी पर कसने एवं वर्णित माहात्म्य की शोध करने हेतु एक ऐसी ही प्रयोगशाला की आवश्यकता थी, जैसी की ब्रह्मवर्चस में कार्यान्वित हो रही है।

कार्य चिकित्सा की दृष्टि से तो अनेकानेक उपचार पद्धतियाँ प्रचलित हैं परन्तु मानसिक विकृतियों के निवारणार्थ कोई पद्धति ढूँढ़े नहीं मिलती। शारीरिक दृष्टि से स्वस्थ तो कई व्यक्ति मिल सकते हैं परन्तु मानसिक दृष्टि से जिन्हें सन्तुलित, विचारशील, सज्जन, शालीन कहा जा सके, कम ही मिलेंगे। यज्ञ में उपयुक्त वनौषधियाँ, आस्थाओं से परिपूर्ण कर्मकाण्ड, मंत्रों की तरह स्वरलहरियाँ एवं अन्य अनेक पक्ष किस तरह रोग निवारण करते हैं एवं स्वास्थ्य के सर्वांगीण विकास में सहायक होते हैं, यही इस प्रारम्भिक शोध का लक्ष्य है।

 प्रचलित चिकित्सा पद्धतियों का उपयोग करने वाले चिकित्सक एवं रोगियों का कथन है कि उनका लाभ बताते हुए प्रतिफल की तुलना में मुश्किल से एक चौथाई ही मिल पाता है। शेष के सम्बन्ध में निराशा ही हाथ लगती है। तत्काल थोडा़ सा चमत्कार दिखाकर वे निष्फल सिद्ध होती हैं। उनकी प्रतिक्रिया के फलस्वरूप जीवनी शक्ति घुटने एवं विजातीय द्रव्य एकत्र हो जाने से शरीर में अनेकानेक रोग उठ खडे़ होते हैं। रोग निवृत्ति का यह प्रयास अंततः अस्वस्थता को ही चिरस्थायी बनाता है।

यज्ञ चिकित्सा के आधार सुदृढ़ हैं। इससे ऐसी आशा की जा सकती है कि शारीरिक ही नहीं मानसिक रोगों को भी जड़ से काटा जा सके। यज्ञोपैथी का मूलदर्शन है रोग की जड़ तक औषधियों की पहुँच। श्वास पर ही मानव जीवन आधारित है। श्वास प्रश्वास के माध्यम से प्राण वायु का रक्त में प्रवेश एवं विकारों का निष्कासन होता है। रक्त तक पहुँचने के लिए किसी भी वस्तु के लिए सर्वसुलभ मार्ग श्वास मार्ग है। क्लोरोफार्म, ईथर नाइट्स- ऑक्साइड द्वारा मूर्छित कर आपरेशन करने की विधि यही विचार कर निकाली गयी। दम घुटने का अथवा मृत्यु के अन्तिम क्षणों में नाक मार्ग से ऑक्सीजन देकर ही रोगी को जीवित करने की चेष्टा चिकित्सकों द्वारा की जाती है। स्वस्थ रहने के लिए स्वच्छ वायु की महत्ता इसी कारण दी गयी है। पश्चिम में औद्योगीकरण से जो भौतिक सुख- समृद्धि आयी है, उसी के साथ पर्यावरण- प्रदूषण से अनेकानेक व्याधियों की बाढ़ भी। एक सर्वेक्षण बताता है कि लम्बी खाँसी एवं श्वास, रोग के मरीजों की सर्वाधिक संख्या ऐसे स्थानों पर है, वहाँ उद्योगों का बाहुल्य है। रेडियोधर्मिता की वातावरण में वृद्धि न्यूक्लियर क्लब के सदस्यों की बढ़ती जा रही संख्या के समानान्तर है। सारांश यह है कि प्राणवायु की स्वच्छता एवं श्वास मार्ग की उपयोगिता के बिना स्वस्थ रहने की कल्पना नहीं की जा सकती है। यज्ञोपचार द्वारा होने वाले विभिन्न लाभों में प्रदूषण का निवारण यदि एक पक्ष है तो औषधियों के रक्त में प्रवेश से विकार द्रव्यों का निष्कासन एवं जीवनीशक्ति सम्वर्धन दूसरा पक्ष।

यज्ञ शब्द के तीन अर्थ होते हैं। दान- देवपूजन। इन्हें प्रकारान्तर से उदारता, उत्कृष्टता एवं सहकारिता की दिशाधारा कहा जा सकता है। यज्ञीय दर्शन को जीवन में उतारने वाला कोई भी व्यक्ति इसी जीवन में स्वस्थ समृद्ध, समुन्नत एवं सुसंस्कृत रह सकता है। ऐसे व्यक्ति को आंतरिक प्रसन्नता एवं ब्राह्य प्रफुल्लता का अभाव नहीं रहता। यज्ञकृत्य कराने और सम्मिलित होने वालों को प्रत्येक विधि- विधान की व्याख्या करते हुए यह समझाया जाता है कि उनका चिन्तन और चरित्र; दृष्टिकोण एवं व्यवहार निरन्तर उत्कृष्टता की ओर बढ़ता रहे। उद्गाता यही गाते हैं। अध्वर्यु यही सिखाते हैं, ब्रह्मा इसी की योजना बनाते हैं और आचार्य को ऐसी व्यवस्था बनानी होती है कि इसी प्रकार भावप्रवाह उस समूचे वातावरण पर छाया रहे। रोगोपचार के पीछे यही तथ्य छिपा है कि नीतिवान नीरोग, बलिष्ठ एवं दीर्घजीवी होता है। यज्ञ के पुनीत अनुष्ठान के साथ ही इसी नीतिदर्शन को प्रत्येक याजक को समझाया जाता है।

यज्ञ विज्ञान की अनुसंधान प्रक्रिया का शुभारम्भ जिन पक्षों से किया गया है वे हैं- यज्ञ से रोग निवारण, स्वास्थ्य सम्वर्धन, प्रकृति सन्तुलन एवं वनस्पति संवर्धन, दैवी अनुकूलन, समाज शिक्षण, शक्ति जागरण तथा यज्ञ की विकृतियाँ एवं विसंगतियाँ। शोध की परिधि असीम है। परन्तु प्रारम्भिक प्रयास के रूप में यज्ञ विज्ञान के इन्हीं प्रमुख आठ पक्षों को प्रयोग परीक्षण की कसौटी पर रखा गया है।

 यज्ञ प्रक्रिया की शोध के अनेकानेक आयाम हैं यथा हविष्य धूम्र, यज्ञावशिष्ट, यज्ञऊर्जा, मंत्रोच्चार में सन्निहित शब्दशक्ति, याजक गणों का व्यक्तित्व एवं उपवास, मौन प्रायश्चित, आदि धर्मानुष्ठानों से जुडी़ तपश्चर्याएँ। इन प्रयोजनों का शास्त्रों में उल्लेख तो है, पर उनके विधानों, अनुपातों और सतर्कताओं का वैसा उल्लेख नहीं मिलता, जिसके आधार पर समग्र उपचार बन पड़ने की निश्चिन्तता रह सके। यज्ञविद्या को सांगोपांग बनाने के लिए शास्त्रों के साकेंतिक विधानों को वैज्ञानिक एवं सर्वांगर्पूण बनाना होगा। यह कार्य चिरपुरातन की इस आधुनिक शोध द्वारा सम्भव हैं

इस सम्बन्ध में जितना भी कुछ वर्णन अब तक वैज्ञानिकों को उपलब्ध हुआ है, उससे इन सभी प्रयोगों की प्रामाणिकता का पता चलता है। पौराणिक आख्यानों में इन प्रयोगों की वैज्ञानिकता का विस्तृत विवेचन तो नहीं हैं, परन्तु इस ओर संकेत अवश्य है। राम का जन्म, च्यवनऋषि का आयुष्य, अपाला का रोग निवारण यज्ञ- प्रक्रिया द्वारा ही सम्भव वर्णित किये गये हैं। चरक और सुश्रुत ने तो विधिवत् नस्य विभाग स्थापित किये थे। धन्वन्तरि ने जटिलतम रोगों को वाष्पीकरण की इस प्रक्रिया द्वारा ठीक किया, ऐसे वर्णन पढ़ने को मिलते है। वनौषधिओं को देवोपम महत्ता देकर उनका सदुपयोग का जैसा वर्णन आध्यात्म ग्रन्थों में किया गया है, उसे देखते हुए भारत के चिरपुरातन गौरव के प्रति नतमस्तक हो जाना पड़ता है। परन्तु जैसा कि कहा गया है आधुनिक परिप्रेक्ष्य में इन समस्त प्रतिपादनों को बुद्धिगम्य बनाने एवं तर्क बुद्धि के गले उतारने के लिए एक ऐसे ही तंत्र की आवश्यकता थी, जैसे की ब्रह्मवर्चस् शोध संस्थान की प्रयोगशाला में स्थापित किया गया है।

यज्ञों में यजन हेतु विभिन्न हविष्य पदार्थ प्रयुक्त होते हैं। हविष्य का निर्धारण हर विशिष्ट रोगी के लिए अलग- अलग किया जाता है। बलवर्धक और रोग निवारक दोनों ही तत्वों को ध्यान में रखना होता है। यज्ञ चिकित्सा के मूलस्वरूप को समझने के लिए वाष्पीकरण सिद्धान्त की वैज्ञानिकता को समझना होगा।

हविष्य के होमीकृत होने के पीछे 'सूक्ष्मता' का दर्शन छिपा पडा़ है। सूक्ष्मीकरण से शक्ति का विस्तार होता है। होम्योपैथी की दवाऐं इस सिद्धान्त पर कार्य करती हैं। दवाओं की सूक्ष्मता बढा़कर उनकी पोटेन्सी में वृद्धि की जाती है। 'डीशेन' की दवाओं में साधारण जडी़ बूटियों की अधिक पिसाई- कुटाई करके उसकी आंशविक ऊर्जा को उभारा जाता हैं। फलतः वे अधिक लाभदायक सिद्ध होती हैं। सूक्ष्मता का अपना स्वतन्त्र विज्ञान है  जिसमें वस्तुओं की अदृश्य स्थिति का ही प्रतिपादन नहीं है, वरन् यह सिद्धान्त भी सम्मिलित है कि स्थूल के अन्तराल में छिपा सूक्ष्म कितना अधिक सामर्थ्यवान है।

औषधियों का वाष्पीकरण दो प्रकार के प्रभाव छोड़ता है। प्रथम तो उसकी सामर्थ्य कई गुनी अधिक हो जाती है। दूसरे उसका प्रभाव निकटवर्ती व्यक्तियों, वातावरण, जीवजन्तुओं एवं वनस्पतियों पर पड़ता है। मुख द्वारा दी गई औषधि पर आमाशय के विभिन्न पाचक रसों की प्रतिक्रिया होती है। तदुपरान्त व्यक्ति विशेष की सामर्थ्य के अनुसार उसका कुछ अंश रक्त में जाकर शेष मल- मूत्र मार्ग से बाहर उत्सर्जित कर दिया जाता है। इस प्रकार औषधि का कुछ ही भाग इच्छित अवयवों तक पहुँच पाता है। रक्त में इंजेक्शन प्रक्रिया द्वारा पहुँचायी गयी औषधि का प्रभाव निश्चय ही मुखमार्ग द्वारा दी गयी औषधि से अधिक और तुरन्त होता है। परन्तु उनके भी सूक्ष्म जीवकोषों- ऊतकों तक पहुँचने की पूरी सम्भावना सुनिश्चित नहीं है। वाष्पीकरण द्वारा धूमीकृत औषधि श्वास मार्ग से एवं रोमकूपों से शरीर में प्रविष्ट होती है। यज्ञ प्रक्रिया में नियन्त्रित ऊर्जा के माध्यम से औषधि प्रवेश हेतु इसी मार्ग को प्रयुक्त किया जाता है।

पाश्चात्य चिकित्सा पद्धति में भी कई औषधियाँ श्वासमार्ग से दी जाती हैं। श्वास रोगी को शीघ्र आराम दिलाने हेतु औषधि मस्तिष्क के ऊतक में प्राण- संचार हेतु आयजन एवं ऑपरेशन हेतु मूर्च्छित किये जाने के लिए औषधियाँ इसी मार्ग से दी जाती हैं। ऐसा इसलिए कि प्रभाव तुरन्त हो एवं सुनिश्चित हो। आयुर्वेद में भी धूम्रपान द्वारा चिकित्सा को महत्ता दी गयी है। नशीले पदार्थ (हशीश- चरस) आदि के लिए जितना लोकप्रिय नस्य मार्ग है उतना मुखमार्ग नहीं। नासिका मार्ग को इसीलिए प्रधानता दी गयी हैं कि औषधियाँ आंतरिक अवयवों एवं कोष्ठकों तक पहुँचकर अपना प्रभाव समग्र रूप में शीघ्र दर्शा सकें।

शरीर विज्ञानियों के अनुसार प्रत्येक श्वास (अठारह बार प्रतिमिनट) के साथ प्राणवायु ऑक्सीजन का अन्दर प्रवेश होता है एवं वह सहस्त्रों वायुकोष्ठकों (एलविओलाय) के माध्यम से रक्त में मिलती हैं। इसके साथ ही रक्त द्वारा लाये गये ऊतकों के निष्कासित द्रव्य कार्बनडाइ आक्साइड गैस के रूप में बाहर निश्वास द्वारा फेंक दिये जाते हैं। प्रति ४ सेकेण्ड में होने वाली इस प्रक्रिया द्वारा जो सम्पर्क ऑकसीजन का रक्त से होता है। वह वायुकोष्ठकों की संरचना की अद्भुतता के कारण सहस्त्रों गुना होता है। इस तरह जिस औषधि का सीमित मात्रा में उपयोग अन्य भागों द्वारा उसे शरीर के कुछ ही भागों तक पहुँचता, वह उसे कई गुने अनुपात में पूरे शरीर के विभिन्न कोष्ठकों तक पहुँचा कर अपना समर्थ प्रभाव दिखाने में सफल सिद्ध होता है।

यज्ञ विज्ञान के मूलदर्शन को प्रयोग परीक्षण की कसौटी पर कसने के लिए निम्नांकित उन सभी पक्षों को लिया गया है जिनका प्रयोग विभिन्न रूपों में इस प्रक्रिया में होता है। ये हैं-
(१) वनौषधियों के पंचाङ्ग
(२) समिधायें
(३) घृत
(४) पूर्णाहुति में होमेजाने वाले पदार्थ
(५) यज्ञधूम
(६) यज्ञऊर्जा
(७) यज्ञावशिष्ट एवं भस्म
(८) चरु
(९) कलशजल
(१०) मंत्रशक्ति एवं कर्मकाण्ड
(११) याजकगण
(१२) धर्मानुष्ठानों से जुडी़ तपश्चर्याएँ

वनौषधि यज्ञ को वेदों में भैषज्य यज्ञ कहा है। भैषजकृतो हवा एवं यज्ञो यत्रैवंविद ब्रह्मा भवति अर्थात् उनमें वैद्यक शास्त्रज्ञ ब्रह्मा होता है, वे भैषज्य यज्ञ हैं। होली पर्व भी एक ऐसा ही सार्वजनिक भैषज्य यज्ञ है जो संवत्सर के अंत में किया जाता है। इसमें फसल को संस्कारित किया जाता है।

यज्ञ में विभिन्न वनौषधियों के उपयोग का वर्णन किया गया है। विभिन्न औषधियों के भिन्न- भिन्न रोग निवारक एवं स्वास्थ्य वर्धक प्रभाव बताये गये हैं। वर्तमान शोध प्रक्रिया में ऐसी ही कुछ चुनी हुई प्रामाणिक वनौषधियों को लिया गया है, जिनका उपयोग आयुर्वेद एवं एलोपैथी में विभिन्न रूपों में किया जाता है। क्वाथ एवं अवलेहादि के रूप में ये औषधियाँ वैद्यों द्वारा व्याधि निवारण के लिए प्रयुक्त होती हैं। एलोपैथी में भी इन्हीं जडी़- बूटियों का उपयोग विभिन्न उपयोगी औषधियों के निर्माण में हुआ है। एकौषधिविज्ञान एवं डीशेन पद्धति में भी इन औषधियों के प्रभावों का ही प्रतिपादन है। यज्ञ चिकित्सा में इन औषधियों को होमीकृत कर उन्हें सूक्ष्मतम बनाना एवं उनके प्रभाव से व्यक्तियों, वातावरण एवं वनस्पतियों को विकारमुक्त करना ही प्रमुख उद्देश्य है। द्रव्य- गुण विज्ञानी अब तक कुछ वनौषधियों का रासायनिक विश्लेषण कर पाये हैं। मात्र वर्णित माहात्म्य के आधार पर उनका उपयोग विवेकसम्मत नहीं है। इसीलिए यहाँ इस समस्त औषधि का विश्लेषण कराये जाने की व्यवस्था की गयी है। जिससे उसके विभिन्न भागों (पत्र, मूल, त्वक्, पुष्प, फल) की रासायनिक रचना एवं द्रव्यगुण परक प्रभाव को समझा एवं उपयोग में लाया जा सके।

हविष्य में रोग विशेष के लिये प्रयुक्त होने वाली औषधियों का आधार प्रायः वहीं रहता है जो रासायनिक विश्लेषण के आधार पर चिकित्सा विज्ञानी चिरकाल से करते चले आये हैं उनके परस्पर संयोग से विभिन्न प्रतिक्रियाऐं होती हैं एवं अलग- अलग प्रतिफल निकलते हैं उपयोगी वनस्पतियों का चुनाव विभिन्न रोगों के लिए उनकी रासायनिक विशेषताओं के आधार पर किया गया है। ऐसी व्यवस्था भी बनायी गयी है कि मुखमार्ग- रक्तमार्ग तथा श्वास मार्ग द्वारा ली जाने वाली औषधि का अलग- अलग क्या प्रभाव पड़ता है यह मापा जा सके। पड़ने वाले प्रभावों के तुलनात्मक अध्ययन से कौन सा मार्ग उपचार की दृष्टि से सर्वोत्तम है यह निर्धारित किया जा सकेगा। आरम्भिक चरण में जिन वनौषधियों का चयन किया गया है उनमें से कुछ है तुलसी, सर्पगन्धा, ब्राह्मी, शंखपुष्पी, शतावरी, सोमवल्ली जटामांसी, अष्टवर्ग इत्यादि।

समिधाऐं भी प्रकारान्तर से हविष्य ही हैं। कुछ विशिष्ट लकडि़यों का जलना भी न्यूनाधिक रूप से वनौषधियों के समान ही प्रभाव उत्पन्न करता है यही कारण है कि हविष्य में वनस्पतियों की पत्तियों फूल- फल के साथ ही लकडि़यों का भी सम्मिश्रण किया जाता है, चंदन, देवदारु, अगर- तगर आदि लकड़ियों का चूरा हवन सामग्री में मिलाय जाता है। समिधाओं में कुछ नियत व्रक्षों के काष्ठ के उपयोग का ही विधान है। चाहे जिस पेड़ की लकडी़ हवन में प्रयुक्त नहीं हो सकती। ऐसा करने से अनुपयोगी काष्ठ से प्रज्वलित अग्नि हानिकारक सिद्ध होती है। समिधाओं के चयन में इस बात का पूरा ध्यान रखा जाता है कि रोगी की जैव रासायनिक संरचना की दृष्टि से हविष्य में किन- किन समिधाओं का प्रयोग किया जाय। प्रमुख समिधाओं में उपरोक्त वृक्षों के अलावा आम, शमी, गूलर, पीपल, देवदारु, अशोक, बिल्व, चित्रक आदि का भी प्रयोग किया जा रहा है।

हविष्य (वनौषधि पंचाङ्ग एवं समिधाओं) से शरीर में क्या- क्या रासायनिक परिवर्तन होते है- यह प्रयोगशाला में विभिन्न उपकरणों के माध्यम से परीक्षण किया जा रहा है। हृदय पर प्रभाव डालने वाली औषधि की प्रतिक्रिया इलेक्ट्रोकार्डियोग्राम उपकरण द्वारा मापी जाती है। किस तरह से विभिन्न औषधियाँ रक्त में प्रवेश कर हृदय पर परिवहन संस्थान के विभिन्न अवयवों पर प्रभाव डालती हैं यह हृदय की विद्युत का मापन करने वाले कार्डियोस्कोप के पर्दे पर प्रत्यक्ष एवं आटोरिकार्डर द्वारा ई॰ सी॰ जी॰ के रूप में मापा जाता है।

रक्त में गैंसों का अनुपात स्वस्थ एवं रोगी व्यक्ति में अलग- अलग होता है। ऑक्सीजन को ऊतकों जीवकोषों के लिए प्राणवायु माना गया है। कार्बनडाइआक्साइड गैस इन्ही अवयवों की चयापचय क्रिया की प्रतिक्रिया स्वरूप उत्पन्न होती है। विकार युक्त द्रव्य इसी गैस के रूप में श्वास मार्ग से बाहर आते हैं। जब भी शरीर संस्थान के इस विशाल भवन की कार्यप्रणाली में व्यतिरेक उत्पन्न होता है- गैस शरीर में एकत्र होने लगती है। रक्त में अम्लता की अभिवृद्धि इसी असंतुलन का परिचय देती है। चिकित्सा रक्त गैसों के विश्लेषण से रक्त की अम्लता जान कर कार्य प्रणाली के स्वस्थ- अस्वस्थ होने का निर्धारण करते हैं। यही व्यवस्था ब्रह्मवर्चस् में भी बनायी गई है। रक्तशोधक औषधियों के उपयोग के पश्चात अम्लता का मापन रक्तगैस विश्लेषक (ब्लडगैस एनालाइजर) एवं पी एच मीटर द्वारा किया जा रहा है।

रक्त की शर्करा, यूरिया, कोलेस्ट्रल, क्रिएटिनीन एवं अन्य एंजाइम्स का मापन तथा विभिन्न औषधियों के प्रयोग से सम्भावित परिवर्तन बायोकेमिस्ट्री कक्ष में मापा जाता है। इन्हीं औषधियों के मूल रूप, धूमीकृतरूप एवं भस्मीभूत स्वरूप में जीवाणु नाशक क्षमता का पर्यवेषण बैक्टीरियालाजी कक्ष में कल्चर एवं मायकोस्कोपी द्वारा किया जाता है।

यज्ञ दर्शन जैसा कि कहा गया है सूक्ष्मता, का दर्शन है। सूक्ष्म नाडी़ गुच्छकों एवं ग्रन्थियों के रूप में मानव शरीर में कई अवयव हैं। इनमें मुख्य हैं हारमोन्स। इनका रस सीधे रक्त में स्रावित होता है इसीलिए इन्हें एण्डोक्राइन्स अर्थात् नलिकाविहीन ग्रन्थियाँ कहा जाता है। यज्ञ से धूमीकृत औषधि शरीर के विभिन्न अंगों तक पहुँचती है एवं अपना प्रभाव इन ग्रन्थि- समुदायों पर डालती है। किस वनौषधि समूह से इन पर क्या प्रभाव होता है, यह जानने के लिए रेडियो इम्यूनों ऐसे तकनीक द्वारा रक्त एवं अन्य द्रव्यों में हारमोन्स के स्तर का मापन किये जाने की व्यवस्था की गयी है।

अपनी सूक्ष्मता की शक्ति के कारण ही मानसिक रोगों के निवारण हेतु तथा प्रसुप्त शक्तियों के जागरण के लिए विभिन्न वनौषधियों का यजन किया जाता है। इस प्रतिक्रिया का पालीग्राफ यंत्र द्वारा मस्तिष्कीय तरंगों की स्थिति जानकर मनोविश्लेषण द्वारा व्यक्तित्व के विभिन्न घटकों का मापन कर विश्लेषण किया जाता है। इससे एक लाभ यह भी है कि शरीर की अनेकानेक सूक्ष्म गतिविधियों पर क्या- क्या प्रभाव वनौषधि यजन की प्रक्रिया के फलस्वरूप संभावित हैं, यह विभिन्न चैनेल्स के माध्यम से अंकित किया जा सकता है।

यज्ञ में आमतौर से गौघृत प्रयुक्त होता है पर अन्य पशुओं के घृतों में भी अपनी विशेषता है। रोगी की स्थिति को देखते हुए घृतों में पाये जाने वाले रासायनिक पदार्थों की स्थिति का तालमेल बिठाते हुए यह निर्धारण करना होता है कि अमुक रोग में किस पशु का घृत लिया जाय। चिर पुरांतन मान्यता है कि घृत को जलाने से जो उसका प्रभाव होता है, वह खाने से नहीं होता। इस तथ्य की वैज्ञानिकता की परीक्षा प्रयोगशाला स्तर पर ही की जानी चाहिए। गोघृत को ही क्यों श्रेष्ठ माना गया है, यह जानने के लिए एक तुलनात्मक विवेचना भी आवश्यक हो जाता है। इसीलिए ब्रह्मवर्चस् में विभिन्न घृतों के रासायनिक विश्लेषण एवं उनके द्वारा शरीर में जैव रासायनिक परिवर्तनों को मापे जाने की व्यवस्था की गयी है।

पूर्णाहुति में सामान्य हवन सामग्री का नहीं वरन् किन्हीं विशिष्ट वस्तुओं का प्रयोग करना पड़ता है। पूर्णाहुति तीन भागों में विभक्त है।
१- स्विष्टकृत होम- जिसमें मिष्ठान्न होमे जाते है।
२- पूर्णाहुति- जिसमें फल होमना होता है।
३- बसोधारा- जिसमें घी की धारा छोडी़ जाती है। इन तीनों कृत्यों को मिलाकर पूर्णाहुति कहा जाती है। इस विधान को प्रधानतया पोषक प्रयोग के रूप में लिया जाता है। निरोधक सामग्री तो हविष्य के रूप में इससे पूर्व ही यजन हो चुकी होती है।

स्विष्टकृत होम के लिए मिष्ठान्न का चयन भी यज्ञीय विधान का ही एक अंग है। सामान्यतया शक्कर, मिश्री, मिठाई का उपयोग होता है। असामान्य रूप से विशेष प्रकार के चरु बनाये जाते हैं। खीर, हलुआ, लड्डू आदि का हवन स्विष्टकृत होम की आहुति में होता है। इन्हें किन पदार्थों के सम्मिश्रण से बनाया जाय, इस निर्धारण में यह ध्यान रखा जाता है कि रोगी के शरीर में किन पोषक खाद्य पदार्थों की आवश्यकता है। सामान्यतया उपयोग किये जाने वाले यज्ञीय धान्य हैं- चावल, जौ, जंगली धान, तिल, चना, गेहूँ। शर्करा वर्ग में गुड़वाली शक्कर, चीनी, शहद, फलों एवं सूखे मेवों का उपयोग होता है। इन सबके उपयोगों से क्या पोषक प्रभाव शरीर पर होता है- यह इस शोध द्वारा जानने का यत्न किया जा रहा है।

पूर्णाहुति में आमतौर से नारियल, सुपारी आदि सुगमतापूर्वक मिल सकने वाले पदार्थ प्रचलित हैं पर उसमें सूखे मेवे एवं पके फल भी प्रयुक्त हो सकते हैं। समिधाओं के निर्धारण की तरह पूर्णाहुति में फलों के चयन में भी सूझ- बूझ का परिचय देना पड़ता है।


वसोधारा में घृत की धारा छोडी़ जाती है। अर्थात् उसकी मात्रा बढा़ई जाती है। इसका एक कारण यह है कि हवन कुण्ड में जहाँ- तहाँ शेष रहा कच्चा हविष्य तुरन्त ज्वलनशील हो सके। दूसरे चिकनाई की वह मात्रा शरीर को मिल सके जो सामयिक परिस्थिति के अनुरूप आवश्यक है। शर्करा सहित अन्नवर्ग को स्विष्टकृत में फलवर्ग को पूर्णाहुति में घृतवर्ग को वसोधारा में प्रयुक्त करके आहार की संतुलित मात्रा का इस प्रकार निर्धारण किया जाता है कि यजनकर्ता को समुचित पोषण प्राप्त हो सके। वसोधारा घृत में कपूर केशर आदि मिलाने की भी व्यवस्था रहती है, जिससे घृतमात्र चिकनाई न रहकर एक विशिष्ट औषधि बन जाती है।

स्विष्टकृत होम, पूर्णाहुति एवं वसोधारा में उपयुक्त खाद्यान्नों एवं औषधियों की टॉनिक जैसी उपयोगिता का वैज्ञानिक विवेचन आज के युग में आवश्यक है। यही विचार कर यज्ञोपैथी प्रयोगशाला को आधुनिक यंत्रों से सुसज्जित किया गया है।

यज्ञ द्वारा उपरोक्त माध्यम से पुष्टाई पहुँचाने का तरीका जितना सरल है उतना प्रभावशाली भी। अत्यधिक दुर्बलता बढ़ जाने पर पाचन तंत्र काम नहीं करता। तब नस (इन्ट्रावीनस) के माध्यम से ग्लूकोज शरीर में पहुँचाते हैं। फलतः रोगी को खुराक मिलने जैसा लाभ मिल जाता है। दूध पीने का अपना लाभ है, परन्तु गरिष्ठ प्रोटीन समूह के रूप में जब हर्मीन का इंजेक्शन लिया जाता है तो लाभ अधिक परिणाम में मिल जाता है। ढेरों फलों को खाने की अपेक्षा उनका रस पी लेने से पेट पर भार कम पड़ता है। लाभ न्यूनाधिक रूप में वही मिलता है। अन्यान्य पौष्टिक खाद्यों का सारत्त्व अब रसायनशालाएँ बनाने लगी हैं और उनसे दुर्बल पाचन तंत्र वाले अस्वस्थ व्यक्ति भी अपनी जीवनी शक्ति बनाये रखने का लाभ लेने लगे हैं। यज्ञ चिकित्सक यह मानते हैं कि सूक्ष्मीकृत पुष्टाई को अपेक्षाकृत अधिक सरलतापूर्वक शरीर में पहुँचाने और पचाने के लिए यज्ञ एक समर्थ माध्यम है।

यज्ञ प्रक्रिया के फलस्वरूप औषधियाँ वाष्पीकृत होती हैं एवं यज्ञ धूम के रूप में चारों और फैल जाती हैं। याजक गणों के शरीर में मुँह तथा श्वास मार्गों एवं रोमकूपों से प्रविष्ट होकर ये धूम सूक्ष्मतम अवयवों तक जा पहुँचते हैं तथा वातावरण में भी चारों ओर व्याप्त हो जाते हैं। इनका विश्लेषण आर्सेट एवं ग्राह्य लारेंस गैस एनालायजर द्वारा करके यह निष्कर्ष निकाला जाता है कि क्या- क्या गैसें किस अनुपात में होती हैं। कहा यह जाता है कि लकडी़ जलाने से धुआँ बनता है जो मात्र कार्बनडाइ या कार्बन मोनो आक्साइड गैस का सम्मिश्रण होता है। क्या यज्ञ धूमीकरण प्रक्रिया अन्य धुँओं से अलग होती है? यह शोध का एक महत्त्वपूर्ण विषय है। इन धूम्रों को विशिष्ट विधि द्वारा सैम्पलिंग कर उनका रासायनिक विश्लेषण किया जाता है।

अग्निहोत्र में तैलीय तत्त्व प्रधान समिधाएँ और हवन सामग्री दोनों का ही प्रयोग होता है। बहुत न्यून मात्रा में शक्कर एवं घी (शुद्ध न उपलब्ध होने की स्थिति में गाय का दूध) को भी सम्मिलित किया जाता है। समिधा के रूप में मान्य काष्ठ (जो विशिष्ट गुण सम्पन्न औषधिय तत्त्व युक्त होते हैं।) ही प्रयुक्त होते हैं। ऐसे कोष्ठों में शारीरिक रोगों के निवारण की शक्ति पाई जाती है। आमतौर से आम, पीपल, वट, शमी, चन्दन, देवदारु, अगर, तगर, बिल्व जैसे वृक्षों की लकडि़याँ ही इस निर्मित अग्नि प्रज्वलन के लिए काम में लाई जाती हैं। किस प्रजाति में क्या- क्या संघटन तत्त्व हैं, यह कैसे जाना जाय व किस आधार पर किसे प्रामाणिक माना जाय, यह चुनाव शान्तिकुंज के वैज्ञानिक कालम क्रोमेटो ग्राफी, थिनलेयर क्रोमेटोग्राफी तथा गैस लिक्विड क्रोमेटोग्राफ यंत्रों के माध्यम से करते हैं। गैस लिक्विड क्रोमेटोग्राफी पूरी तरह से कम्प्यूटराइज्ड एक जटिल यंत्र है जो औषधियों के सान्द्र क्वाथ एवं वाष्पीभूत गैसों का परिपूर्ण विश्लेषण कर उनका एक ग्राफ पर अंकन करता जाता है, इससे यह जानकारी मिल जाती हैं कि ज्वलन के पूर्व औषधि युक्त पौधे में क्या- क्या कार्यकारी तत्त्व विद्यमान थे, एवं उस प्रक्रिया से गुजरने के उपरांत उनमें क्या परिवर्तन हुआ? धूम्र में कहीं कार्बन के हानिकारक कण तो विद्यमान नहीं है, यह प्रामाणिक जानकारी भी जी॰ अल॰ सी॰ यंत्र दे देता है। एक विशिष्ट औषधि होमीकृत होकर गैस रूप में जब परिणित होती है तो उसके रासायनिक घटक क्या- क्या रूप ले लेते हैं, यह जाना जा सके तो एक बहुत बडी़ मंजिल पार कर ली जायेगी।

जिस कुण्ड में हवन किया जाता हैं उसका ज्यामितीय आकार बहुत महत्त्व रखता हैं। यह उल्टे पिरामिड के आकार का होता है। नीचे संकरा, ऊपर चौडा़। जितना आयतन होता है। नीचे संकरा, ऊपर चौडा़। जितना आयतन होता है, उतनी ही समिधाएँ डाली जाती हैं व उतनी ही हवन सामग्री; ताकि संतुलित ऊर्जा उत्पन्न होती रहें, अग्नि प्रदीप्त रहे, धुआँ उत्पन्न न हो। तर्जनी उँगली पर जितनी हविष्य (जौकूट स्थिति में) आ जाती है वह लगभग तीन माशे के बराबर होती है। ताम्रपात्र या हवन कुण्ड इतनी दूर होता है कि याजक तो अधिक गर्मी अनुभव न करे। जो भी धूम्र बनें, वे श्वाँस मार्ग से अन्दर जाते रहें। आधे घण्टे का औसत प्रयोग पर्याप्त माना जाता है। कितनी ऊष्मा यज्ञ प्रक्रिया के विभिन्न खण्डों में उत्पन्न हुई, इसका मापन "थर्मोकपल" यंत्र करता है प्रकाश की तीव्रता "लक्समीटर" मापता है तथा अग्नि लौ के स्पेक्ट्रम को स्पेक्ट्रोस्कोप द्वारा देखा जाता है। यज्ञ कुण्ड के चारों ओर कितनी व किस दूरी तक रेडियोधर्मिता विद्यमान है यहाँ के वैज्ञानिक "गीगर मुलर काउण्टर" द्वारा मापते हैं।

वनौषधि यजन प्रक्रिया धूमों को व्यापक बनाकर, सुगंध फैला कर समूह चिकित्सा की विधा हैं, जो पूर्णतः विज्ञान सम्मत है। गंध प्रभाव के माध्यम से मस्तिष्क के प्रसुप्त केन्द्रों का उद्दीपन अन्दर के हारमोन रस द्रव्यों का रक्त में आ मिलना तथा श्वास द्वारा प्रमुख कार्यकारी औषध घटकों का उन ऊतकों तक पहुँच पाना जो ,कि जीवनीशक्ति निर्धारण अथवा व्याधि निवारण हेतु उत्तरदायी है, ये कुछ ऐसी महत्त्वपूर्ण उपलब्धियाँ हैं जो वनौषधि यजन अर्थात् अग्नि होत्र से प्राप्त होती हैं।

इन यज्ञ धूमों की जीवाणुनाशक क्षमता की जाँच- पड़ताल हेतु बैक्टीरियालॉजी कक्ष में विभिन्न प्रयोगों की व्यवस्था की गई है। विभिन्न घातक जीवाणुओं को उपयुक्त वातावरण में उत्पन्न कर (कल्चर) उन पर इन धूमों का प्रभाव देखा जाता है। किसी भी एण्टीबायोटिक औषधि का जीवाणुओं पर प्रभाव मापने हेतु कल्चर एवं सेंसीटिविटी के प्रयोग किये जाते हैं। इससे यह पता लगता है कि कौन से जीवाणु किन औषधियों के प्रभाव से सामर्थ्य खो देते हैं अथवा कौन से इसके विपरीत अपनी वंशवृद्धि कर लेते हैं। यही प्रयोग इस महत् उद्देश्य से इन आधुनिक उपकरणों द्वारा यज्ञचिकित्सा के शोधकार्य हेतु किये जा रहे हैं। विभिन्न क्षमताओं के इन्क्युबेटर्स कल्चर कक्ष में लगाए गये हैं, जिनसे निर्धारित अवधि में जीवाणुओं की औषधि के प्रति सम्वेदनशीलता की परख हो सके।

उपरोक्त घटकों के साथ ही एक अन्य महत्त्वपूर्ण शक्ति है यज्ञ ऊर्जा। ऊर्जा का नियन्त्रण यज्ञकुण्डों के आकार द्वारा किया जाता है। ज्यामितीय सिद्धान्तों के अनुसार ही इन कुण्डों का स्वरूप बनाया जाता है। जिससे उत्सर्जित ज्वाला एवं ऊर्जा का प्रभाव सारे वातावरण पर उचित अनुपात में पडे़। विभिन्न औषधियाँ जलकर अलग- अलग ऊर्जा का स्वरूप देती हैं। ऊर्जास्तर के अनुपात से ही याजक के शरीर एवं मन पर औषधि का वांछित प्रभाव पड़ता है।

वैदिक काल में यज्ञकुण्डों का आकार निर्धारण रेखागणित के साध्यों के आधार पर होता था। इस तथ्य का वैज्ञानिक विवेचन यदि आज की भाषा में संभव हो सके तो शोध का नया आयाम ही खुल सकता है। यज्ञों में यज्ञशाला के ऊपर आच्छादन रखने की परम्परा है। वह इस कारण है कि उष्मा का स्वभाव एवं स्वरूप ऊपर उठने का है। वह अग्निकुण्ड से निकल कर तीर की तरह छूटती है और सीधी आकाश में उड़ती चली जाती है। आच्छादन रहने से उसके ऊर्ध्वगमन पर प्रतिबन्ध लगता है और यज्ञशाला के वातावरण में उसका प्रभाव अपेक्षाकृत अधिक समय तक अधिक मात्रा में बना रहता है। यज्ञीय ऊर्जा की निकटता से वह प्रयोजन भली भाँति पूरा हो जाता है। जिससे रोगों की संभावना को समय से पहले ही निरस्त कर दिया जाय।

शरीर के रोम छिद्रों से प्रवेश करने वाली यज्ञऊर्जा विजातीय द्रव्यों को निरस्त करती एवं शरीर के बाहर धकेलती जाती है। रोकथाम का यह उपचार कम न्यूनाधिक रूप में वैसा ही है जैसा कि विभिन्न रोगों के आक्रमण होने की आशंका होने पर सुरक्षात्मक टीके लगाए जाते हैं। यज्ञ से निकली ऊर्जा समीपवर्ती व्यक्तियों वातावरण एवं वनस्पतियों को असामान्यरूप से प्रभावित करती है। वनस्पतियों में पौष्टिक तत्त्वों एवं व्यक्तियों में जीवनीशक्ति की अभिवृद्धि होती है। फलतः काया में रोग निरोधक क्षमता बढ़ जाती है।

जन्म के बाद जातकर्म, नामकरण, अन्नप्राशन मुण्डन, विद्यारम्भ, यज्ञोपवीत आदि कई संस्कार होते हैं जो मनुष्य की बाल्यावस्था में जल्दी- जल्दी सम्पन्न किए जाते हैं। सबमें यज्ञ का अनिवार्य विधान है। इसमें बालक एवं उसके माता- पिता को निश्चित रूप से सम्मिलित होना पड़ता है। उससे शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य संवर्धन का लाभ निरन्तर मिलता रहता है। बच्चे के समग्र शारीरिक एवं मानसिक विकास की पृष्ठभूमि बन जाती है। आयु बढ़ने के साथ रोगों के टीके जल्दी- जल्दी नहीं लगाए जाते क्योंकि मनुष्य की स्वयं की सामर्थ्य आयु बढ़ने के साथ बढ़ती है। फलस्वरूप आगे के संस्कारों एवं जुडे़ यज्ञों में भी अन्तर बढ़ता जाता हैं। विवाह एवं वानप्रस्थ संस्कारों के बीच कई वर्षों का अन्तर होता है। यज्ञ संस्कारों से न केवल बालक लाभान्वित होता है वरन् परिवार के अन्यान्य सदस्यों को भी इसका अनायास लाभ मिलता रहता है। यज्ञधूमों से घर के वातावरण का परिशोधन होता है। कमरों में छिपे बैठे कृमि कीटकों को ये धूम्र मार भगाते हैं। होली पर्व पर नयी फसल को यज्ञ ऊर्जा से संस्कारित किया जाता है। फसल पक जाने पर नवात्न का उपयोग करने से पूर्व उसे यज्ञीय ऊर्जा से प्रभावित सुवासित किया जाता है, जिससे इसकी रोग निरोधक शक्ति कई गुना बढ़ जाती है।

यज्ञ प्रक्रिया अपने आप में एक समग्र विज्ञान है। इसका प्रत्येक पक्ष विशिष्ट है। यज्ञ समाप्त होने पर बचा अवशिष्ट, स्विष्टकृत के होम से बचा 'चरु' द्विव्य प्रसाद के रूप में ग्रहण किया जाता है। आहुतियों से बचा 'इदन्नमम्' के साथ टपकाया हुआ तथा वसोधारा से बचा घी घृतावघ्राण के रूप में मुख, सिर तथा हृदय आदि पर लगाया व सुधां जाता है। होमीकृत औषधियों एवं अन्य हव्य पदार्थों से संस्कारित भस्म को मस्तक तथा हृदय पर धारण किया जाता है। ये सभी पदार्थ उतना ही प्रभाव डालते हैं जितनी कि हविष्य की आहुतियों से उत्पादित ऊर्जा।

चरु विशिष्ट खाद्यान्नों एवं मिष्ठान्नों से बनाया जाता है। इसमें पौष्टिक तत्त्वों का समावेश प्रचुर मात्रा में होता है। इन तत्त्वों में प्रमुख है पोस्त के दाने, चावल, गेहूँ, घी, दूध, शक्कर तथा शहद औषधियों का समावेश होने से, यज्ञ ऊर्जा से संस्कारित एवं मित्रों से अभिमन्त्रित होने से उनका प्रभाव कई गुना अधिक हो जाता है। चरु से सूक्ष्मता की विशेषता है। राजा दशरथ के यहाँ सम्पन्न पुत्रेष्टि यज्ञ में चरु बनाया गया था। श्रृंगी ऋषि द्वारा बनाये गये चरु के दो तीन भाग किये गए। पीछे स्मरण हुआ कि रानियाँ तो तीन है। भूल सुधारी गयी और दो भागों में बँटी खीर में से थोडा़- थोडा़ भाग निकाल कर तीसरा भाग बनाया गया। तीनों रानियों ने खीर का सेवन किया। सर्वविदित है कि सुमित्रा ने दोनों भागों से निकाल कर बनाये गये तीसरे भाग वाली खीर को ग्रहण किया था। फलस्वरूप दो रानियों को तो एक- एक संतान हुई पर सुमित्रा को दो संतानें हुईं यह चरु की सूक्ष्म विशेषताओं का ही चमत्कार था। यज्ञ की दिव्य ऊर्जा एवं क्षमता का समावेश हो जाने से वह सामान्य खाद्य पदार्थ भी असामान्य शक्ति सम्पन्न बन गया।

यज्ञावशिष्ट से बचे घृत में यही सूक्ष्म विशेषता होती है। घृत में तो स्थूल रूप मात्र चिकनाई जैसा पदार्थ मालूम होता है, जिसमें कुछ पौष्टिक तत्त्वों की बहुलता होती है पर यही घृत यज्ञ द्वारा संस्कारिता, औषधियों से सुवासित एवं यज्ञ कुण्ड तक श्रुवा द्वारा ले जाकर पुनः प्रणीता के जल से सम्पर्क कराने पर सूक्ष्म शक्ति सम्पन्न मात्र मान जा सकता है, पर उसके उपयोग से कई बार दिखाई पड़ने वाले चमत्कारी परिणाम असामान्य शक्ति सम्पन्न होने का ही प्रतिपादन करते हैं।

सूक्ष्म सामर्थ्य से सम्पन्न यज्ञ भस्म चरु अथवा अन्य पदार्थ इतने अधिक बलवर्धक होते हैं कि उनकी थोडी़ मात्रा भी, कई गुने सामर्थ्य वाले खाद्य पदार्थों की बराबरी करते हैं। इस वर्णित तथ्य को वैज्ञानिक परीक्षण द्वारा प्रत्यक्ष सिद्ध किया जाना इस शोध का उद्देश्य है।

 यज्ञ चिकित्सा में कलश में रखे जल का भी वैज्ञानिक महत्त्व है। यह जल यज्ञ प्रक्रिया में यज्ञ ऊर्जा से प्रभावित एवं वाष्पीकृत वनौषधियों के सूक्ष्म गुणों से युक्त होता रहता है। यूनानी चिकित्सा पद्धति द्वारा बनाये जाने वाले अर्क के पीछे भी यही सिद्धान्त है यह जल मंत्रोच्चार द्वारा अभिमन्त्रित किया जाता है। मंत्र की सामर्थ्य जल में होती हैं। इसके प्रयोग द्वारा विभिन्न साधकों एवं रोगियों पर पड़ने वाले प्रभावों का वैज्ञानिक अध्ययन किया जायेगा। यह तो यज्ञ का पदार्थपरक विवेचन रहा। आगे की बात अति सूक्ष्म- कारण स्तर की है। सामर्थ्यों की स्रोत कारण परत में है। मनुष्यों की तरह पदार्थ में भी तीन स्तर पदार्थ होते हैं स्थूल सूक्ष्म, और कारण। मानव शरीर का स्थूल अंश रक्त, मांस, पित्त से बना है जो खाता- पिता, चलता- फिरता दिखाई पड़ता है। सूक्ष्म शरीर वह है जो सोचता, विचारता और शरीर का संचालन करता है। कारण शरीर में आस्थाओं, मान्यताओं एवं आकांक्षाओं का जन्म होता है। यही मनुष्य के समग्र व्यक्तित्व के निर्माण का आधार होता है। तीनों शरीरों में सर्वाधिक शक्तिशाली कारण शरीर ही होता है।

पदार्थों के सम्बन्ध में भी यही बात है उनका स्थूल स्वरूप वह है जो दिखाई देता है सूक्ष्म वह है जिसे रासायनिक विश्लेषण द्वारा प्रयोगशालाओं में पता लगाया जाता है। गाय की अपेक्षा भैंस के दूध में स्थूल सामर्थ्य अधिक होती है, पर सूक्ष्म सामर्थ्यों की दृष्टि से गाय के दूध का महत्त्व भैंस के दूध से कई गुना अधिक है। गौ दूध से बने पंचगव्य को ही प्रसाद रूप में ग्रहण किया जाता है। तुलसी, आँवले और पीपल के पौधों की तुलना में दूसरे पौधें अधिक फलप्रद हो सकते हैं, पर सूक्ष्म संस्कारों की दृष्टि से जो देवोपम श्रद्धा इनको दी जाती है, वह अन्य वृक्षों को नहीं। यह उनमें मन को प्रभावित करने वाले सात्विक अंश की अधिकता के कारण ही होता है।

यज्ञ प्रक्रिया में प्रायः हर पदार्थ के कारण शक्ति को उभारा जाता है तभी वह यजनकर्ता के मन और अन्तःकरण में अभीष्ट परिवर्तन ला सकती है। यज्ञ की विशिष्टता उसमें प्रयुक्त होने वाले पदार्थों की सूक्ष्म शक्ति पर निर्भर है। कारण शक्ति का उत्पादन अभिवर्धन क्रने के लिए मंत्रविज्ञान का सहारा लिया जाता है। उद्गाता इस बात का पूरा ध्यान रखते हैं कि निर्धारित विधि विधान के लिये जिन मंत्रों का सस्वर उच्चारण एवं विनियोग करने की पद्धति प्रचलित है, उसका उपयोग सही रीति से हो। उदात्त अनुदात्त भावों के उतार- चढा़व वातावरण में कम्पन पैदा करते हैं एवं उनका प्रभाव शरीर की सूक्ष्म ग्रन्थियों एवं अन्य महत्त्वपूर्ण अवयवों पर होता है। शब्द को ब्रह्मा कहा गया है। उसकी शक्ति सामान्य जीवन में ज्ञान सम्वर्धन एवं वैचारिक आदान- प्रदान के लिए होती है। किन्तु उच्चस्तरीय भूमिका में शब्द का शक्ति के रूप में परिवर्तन हो जाता है। मंत्रशात्र का समूचा आधार इसी पृष्ठभूमि पर खडा़ है कि शब्द गुच्छकों का चयन- गुंथन एवं विनियोग ऐसी विशिष्ट क्रिया प्रक्रिया के साथ सम्पन्न किया जाय जिससे चेतना को विशिष्ट क्षमता सम्पन्न बनने का चमत्कारी लाभ मिल सके।

हविष्य को यदि ऐसे ही आग में फेंक दिया जाय तो उसमें गंध उत्पन्न होने जैसे हल्के लाभ ही मिलेंगे। वैसा कुछ न हो सकेगा जैसी कि यज्ञायोजनों से अपेक्षा की जाती है। यज्ञ में नियत विधि- व्यवस्थानुसार मंत्रोच्चार का प्रयोग होता है। इससे सम्बद्व मनुष्यों को लाभ मिलता है एवं वातावरण में उत्तेजना उत्पन्न होती है विशिष्ट आस्थायुक्त वातावरण में जिस युगान्तरीय चेतना प्रवाह का निर्माण होता है, वह व्यक्ति विशेष एवं जन समुदाय के दिल दिमागों को झकझोरने की क्षमता रखता है। मानवी अन्तराल में छिपा श्रद्धा तत्त्व इसी प्रक्रिया से उभर कर आता है।

मंत्रपूत पदार्थों को आशीर्वाद रूप में देने पर वे औषधियों से भी अधिक प्रभावशाली सिद्ध होते हैं। इससे प्रकट है कि यजन से पूर्व हविष्य की कारण शक्ति को उभारने में इस स्तर तक सफलता मिल जाती है कि वह वस्तु स्थूलता की दृष्टि से सामान्य शक्ति की होते हुए भी विशिष्टता की दृष्टि से असामान्य सिद्ध हो सके। यज्ञ- पात्रों से लेकर प्रयोग में आने वाले जल तक को मंत्र के माध्यम से पवित्र बनाया जाता है। इसके उपरान्त ही उनका ही उनका प्रयोग होता है। समिधाएँ प्राप्त करने, धोने, सुखाने और प्रयोग से पूर्व अभिमंत्रित करने का विधान है। ठीक उसी प्रकार कुण्डों को प्राणवान बनाने के लिए वेदी- पूजन यज्ञशाला पूजन आदि किया जाता है।

मंत्रोच्चार के शरीरगत एवं मानसिक प्रभावों पर शोक कार्य पहले भी हो चुके हैं। पर उनमें समग्रता का समावेश न था। नये परिवेश में श्रद्धा एवं आस्था का सम्बल देकर मंत्र विज्ञान पर शोध की जा रही है। मंत्रों का चयन ध्वनि विज्ञान चयन ध्वनि के आधार पर किया जाता है। इस कसौटी पर गायत्री मंत्र की सामर्थ्य असामान्य आँकी गयी है। अर्थ की दृष्टि से तो यह मंत्र सामान्य है। उसमें भगवान से सद्बुद्धि की कामना भर की गयी है। पर मंत्र सृष्टाओं की दृष्टि में शब्दों का गुंथन सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है। इस आधार पर गायत्री महामंत्र सर्वाधिक प्रभावशाली सिद्ध होता है। यज्ञ में प्रयुक्त अन्य वेद मंत्रों का महत्त्व भी कम नहीं है। वेदमंत्रों का उच्चारण उदात्त- अनुदात्त भावों एवं स्वरित क्रम से मध्यवर्ती उतार- चढ़ाव के साथ किया जाता है। ये सब विधान इस दृष्टि से बनाने पडे़ हैं कि इन मंत्रों का जप अभीष्ट उद्देश्य पूरा कर सकने वाला और शक्ति प्रवाह उत्पन्न कर सके। मंत्र शक्ति की असीम सामर्थ्य के कारण शरीर में यंत्र तत्र सन्निहित अनेकों चक्रों तथा उपत्यिकाओं- ग्रन्थियों में विशिष्ट स्तर का शक्ति संचार होता है।

उपरोक्त इन सभी आध्यात्मिक उपचारों का प्रयोग स्तर पर परीक्षण करने के लिए उपकरणों की व्यवस्था की गयी है। ऑसीलोस्कोप यंत्र के माध्यम से मंत्र एवं संगीत जैसी ध्वनि के विभिन्न आयामों का मापन कर उनके चित्र लिए जाते हैं। मंत्रों के शरीरगत एवं मानसगत प्रभावों को मापने के लिए पूर्व वर्णित उपकरणों से विभिन्न शारीरिक गतिविधियों में संभावित परिवर्तनों का अंकन किया जाता रहा है।

यज्ञविज्ञान के विभिन्न पक्षों की शोध करते हुए अन्तिम क्रम आता है याजक गणों का। यज्ञ में अध्वर्यु, उद्गाता, ब्रह्म, होता, आचार्य एवं यजमान ये याजक गण होते हैं। इन छह के आचार विचार, व्यक्तित्व एवं चिन्तन को मिलाकर यज्ञ का समग्र स्वरूप तैयार होता हैं। इनकी वैयक्तिक ऊर्जा एवं मनोबल का संयुक्तीकरण ही यज्ञ की सफलता में सहायक होता है। हवनकर्ता को मनमानी वस्तुऐं खाने- पीने की छूट नहीं मिलती। उस दिन उसे निर्धारित सात्विक पदार्थों पर निर्वाह करते हुए उपवास जैसे बन्धनों से प्रतिबन्धित रहना पड़ता है। जहाँतक सम्भव हो यजमान भी निर्धारित विधि से बनाया हुआ हविष्य अमृताशन ही ग्रहण करते हैं। रोगी मात्र हवन करके ही विशिष्ट चिकित्सा पद्धति का लाभ नहीं उठा सकते हैं वरन् उनके आहार में किन वस्तुओं का उपयोग किस मात्रा में हो, उसका भी सुनिश्चित निर्धारण किया जाता है। आहार के साथ ब्रह्मचर्य, मौन आदि तपश्चर्याऐं जुडी़ हैं। धर्मानुष्ठानों का समापन यज्ञ के साथ ही किया जाता है। प्रायश्चित प्रक्रिया का भी इसमें समावेश है जिसमें जाने- अनजाने किये गए दुष्कर्मों का परिशोधन किया जाता है एवं आयामी जीवन के लिए सत्प्रवृत्तियों को धारण किया जाता है।

इस तरह यज्ञोपचार एक समग्र चिकित्सा विज्ञान है, जिसमें शरीर विज्ञान के अनगिनत आयाम, औषधियों के गुण, धर्मों का विवेचन, सूक्ष्मीकरण का सिद्धान्त, मनोविज्ञान एवं मनोचिकित्सा, ध्वनि विज्ञान एवं मंत्र चिकित्सा तथा आस्थाओं के जीवन में समावेश का एक अद्भुत समन्वय है। मनोविकारों से पीडि़त असंख्यों मानवों के लिए आज ऐसी ही एक चिकित्सा पद्धति की आवश्यकता है। इन अप्रत्यक्ष रोगों की चिकित्सा हेतु यदि इस चिर- पुरातन पद्धति को आधुनिक सन्दर्भ में पुनर्जीवित किया जा सके। तो पीडि़त मानवता की यह सर्वोपरि सेवा होगी।

रोग निवारण हेतु वर्तमान में सीमित संख्या में शारीरिक एवं मानसिक रोगों को लिया गया है। इनके निदान की उचित व्यवस्था की गयी है। रोगों को स्थूल एवं सूक्ष्म दो वर्गों में विभाजित किया गया है। स्थूल में शारीरिक एवं मनोशारीरिक रोगों को लिया गया है। मानसिक विकृतियों एवं विकारों की शरीर गति प्रतिक्रियाओं को ही मनोशारीरिक व्याधि कहा जाता है। सूक्ष्म रोगों में आत्मिक तथा मानसिक व्याधियाँ एवं मनोविकारों को लिया गया है। तथा- अवसाद भ्रान्ति, सनक, उत्तेजना- आवेश, अपराधी- व्रत्ति एवं संकीर्ण स्वार्थपरता। शोध संस्थान में मनः विश्लेषण की पाश्चात्य प्रक्रिया को एक विशिष्ट आध्यात्मिक मोड़ देकर व्यक्तित्व के समग्र विश्लेषण की व्यवस्था बनायी गयी है। तदनुरूप ही यज्ञ चिकित्सा का क्रम निर्धारित किया जाता है। प्रत्येक व्याधि- समूह के लिए रासायनिक विश्लेषण एवं गुण, धर्मों के आधार पर वनौषधियों का चयन किया गया है। इनका उपयोग हविष्य, समिधा, क्वाथ, धूम्र, भस्म के रूप में किया जा रहा है एवं इन विभिन्न रूपों की सम्भावित प्रतिक्रियाएँ नोट की जा रही है।

रोग- निवारण तो मात्र एक ही पक्ष हुआ, इससे भी महत्त्वपूर्ण एवं आवश्यक पक्ष हैं, रोग द्वारा उत्पन्न कमजोरी का निवारण एवं जीवनी शक्ति का सम्वर्धन। जिससे जीवाणुओं के आक्रमण की सम्भावना को टाला जा सके। स्वास्थ्य सम्वर्धन शारीरिक मात्र शरीर गत बलिष्ठता का पर्यायवाची पक्ष नहीं है। समग्र स्वास्थ्य सम्वर्धन बलिष्ठता, ज्ञान- समवर्धन, संकल्प बल एवं प्रवाह की वृद्धि, एवं दूर- दर्शिता, विकास, उमंग तथा स्फूर्ति का प्रादुर्भाव, भावना में श्रद्धा तथा क्रिया में निष्ठा है। सम्वेदनाओं को जीवन में समावेश स्वस्थ जीवन के लिए आवश्यक माना गया है। यज्ञोपचार की प्रक्रिया इन सातों पक्षों के समग्र विकास पर ध्यान देती है। दुर्बलता अपने आप में एक विपत्ति है। शरीर से बलिष्ठ होते हुए भी उमंग एवं उत्साह के अभाव में वह व्यक्ति परास्त हो जाता है। इसीलिए दुर्बलता- निराकरण हेतु यज्ञोपचार द्वारा जो उपाय अपनाये जाते हैं, उनमें सभी पक्षों का समुचित ध्यान रखा जाता है।

यज्ञ से व्यक्ति, वनस्पति एवं जीव- जन्तु मात्र लाभान्वित नहीं होते, वरन् अभीष्ट वातावरण के निर्माण में भी असाधारण योगदान मिलता है। प्रकृति के असन्तुलनों, प्रकोपों के निवारण एवं अनुकूलन में भी यज्ञ प्रक्रिया बनती है। 'पर्जन्य' अर्थात् प्राणयुक्त वर्षा। इकॉलाजिकल सन्तुलन के निर्माण में इस पर्जन्य के कारण वैदिक युग में प्रकृति सहायक थी एवं जो भी खाद्यान्न इस धरती पर उगायें जाते थे, उनमें एक विशिष्टता समाहित रहती थी। यज्ञ- परम्परा ही इस विशिष्टता के मूल में निहित थी। आज भी भारतीय खाद्यान्न में जो स्वाद एवं मिठास देखने में आता है, वह अन्यत्र कहीं नहीं है। यह न्यूनाधिक रूप में विद्यमान अग्निहोत्र परम्परा का ही सत्परिणाम है।

यह यह एक सुनिश्चित तथ्य है कि विकिरण द्वारा बढ़ रही रेडियो धर्मिता एवं औद्योगिक प्रदूषणों से विषाक्त हो रहा वातावरण पर्यावरण के असन्तुलन को बढा़ये एवं बनाये रखने में आज सक्रिय रूप से क्रियाशील है। आँधी- तूफान, चक्रवात्, भूकम्प, ज्वालामुखी का फटना, मौसम के शीघ्र होने वाले परिवर्तन, अतिव्रष्टि,अनावृष्टि, ईति- भीति आदि महामारियाँ मानव द्वारा आमन्त्रित किये गये प्रकृतिजन्य प्रकोप हैं। प्रकृति के इन असन्तुलनों का निवारण करने से काम नहीं बनेगा। वनस्पति, सम्वर्धन एवं जीव- जन्तुओं के जीवनयापन हेतु जिस वातावरण की आवश्यकता है वह भी निर्मित करना जरूरी है। वृक्ष- वनस्पति, वायुमण्डल, पृथ्वी, जीव- जन्तु, कृमि- कीटक एवं मानव समुदाय का परस्पर सहयोग- सहभाव इसी आधार पर संभव है।

यज्ञ में सन्निहित विभिन्न प्रक्रियाओं की वनस्पति जगत पर क्या प्रतिक्रिया होती है, यह देखने के लिए प्लाण्ट फिजियोलॉजी के विभिन्न उपकरणों का प्रयोग किया जा रहा है, इसमें उपकरणों का प्रयोग किया जा रहा है, उनसे पौधों के द्रव्यों पर प्रभाव, उनके सूक्ष्म अमीनों एसिड घटकों में परिवर्तन एवं उनकी स्थूल वृद्धि का मापन किया जायेगा। इसी के साथ यज्ञधूम, भस्म तथा अवशिष्ट का पौधों का व्याधिग्रस्त करने वाले जीवाणु- फंगाई आदि पर क्या प्रभाव पड़ता है, इसके लिए भी प्लाण्ट पैथोलाजी कक्ष में अनुसंधान की व्यवस्था बनाई गयी है। अग्निहोत्र की भस्म का उपयोग करने से पौधों की वृद्धि में क्या कुछ अन्तर आता हैं, यह भी पादक कायिकी के प्रयोग द्वारा जाना जाता है।

जलवायु में परिवर्तन एवं प्रदूषण का मापन करने के लिए मेटेरियोलॉजी विभाग द्वारा विभिन्न उपकरणों का उपयोग किया जाता है। इन्हीं की सहायता से यज्ञीय प्रक्रिया की मौसम पर प्रतिक्रिया जानने का यत्नं किया जा रहा है। इसी तरह यज्ञ का पशुओं जीव- जन्तुओं के स्वास्थ्य पर क्या प्रभाव पड़ता है, इसे जानने के लिए प्रायोगिक जन्तुओं (गिनी पिग) पर ठीक वैसे ही प्रयोग अगले दिनों किये जायेगें, जैसे कि मनुष्य पर यज्ञ की प्रतिक्रिया देखने के लिए क्रियान्वित हो रहे हैं।

सारा यज्ञ- विज्ञान अपने आप में एक विशद शोध का विषय है। जैसे- तैसे शोध प्रक्रिया विकसित होती जायेगी, साधन एवं सुयोग्य व्यक्ति उपलब्ध होते जायेंगे, एक- एक पक्ष अपने विस्तृत रूप में जन- मानस के सामने प्रकट होता चलेगा। इसी की आज आवश्यकता भी थी।
यह तो यज्ञ- विज्ञान का वैज्ञानिक पक्ष रहा। यज्ञ का दार्शनिक पक्ष इससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण है। यज्ञ दर्शन में समाज का शिक्षण सन्निहित है। एक- एक कर्मकाण्ड अपने अन्दर कई शिक्षाएँ लिये हुए हैं। यज्ञीय प्रेरणाओं से मानवी व्यक्तित्व के विकास एवं सामाजिक उत्थान में मिलने वाले योगदान पर ध्यान देने पर यह तथ्य उभर कर आता है कि समग्र 'पैथी' इनको जोड़ने से ही बनती है। सामूहिकता, सहकारिता, अनुशासन, शोभा, सुसज्जा जैसी कई प्रवृत्तियों के अभिवर्धन का शिक्षण यज्ञ द्वारा समाज का किया जा सकता है, इस तरह रोग निवारण, स्वास्थ्य सम्वर्धन, वनस्पति सम्वर्धन, वातावरण निर्माण एवं संशोधन, दैवी अनुकूलन, शक्तिजागरण, समाज शिक्षण जैसे अनेकानेक पक्षों का समावेश यज्ञ- विज्ञान में है।
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