यज्ञ का ज्ञान विज्ञान

सुसंन्तति की प्राप्ति

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यज्ञों का आश्चर्यजनक प्रभाव, जहाँ मनुष्य की आत्मा- बुद्धि एवं निरोगिता पर पड़ता है, वहाँ प्रजनन प्रणाली की शुद्धि होती है ।। याज्ञिकों को सुसन्तति प्राप्त होती है ।। रज- वीर्य में जो दोष होते है, उनका निवारण होता है ।। साधारण औषधियों का सेवन केवल शरीर के ऊपरी भागों तक ही प्रभाव दिखाता है, पर यज्ञ द्वारा सूक्ष्म की हुई औषधियाँ स्त्री- पुरुष के श्वाँस तथा रोम कूपों द्वारा शरीर करती हैं ।। गर्भाशय एवं वीर्य- कोशों की शुद्धि में यज्ञ विशेष रूप से सहायक होता है ।।

जिन्हें सन्तति नहीं होती, गर्भपात हो जाते हैं, कन्या ही होती है, बालक अल्पजीवी होकर मर जाते हैं, वे यज्ञ- भगवान की उपासना करें तो उन्हें अभीष्ट सन्तान सुख मिल सकता है ।। कई बार कठोर प्रारब्ध सन्तान न होने का प्रधान कारण होता है, वैसी दशा में भी या द्वारा उन पूर्व संचित प्रारब्धों का शमन हो सकता है ।।

गर्भवती स्त्रियों को पेट में बच्चा आने से लेकर जन्म होने तक चार बार यज्ञ संस्कारित करने का विधान है, ताकि उदरस्थ बालक के गुण, कर्म, स्वभाव, स्वास्थ्य, रंग- रूप आदि उत्तम हों ।। गर्भाधान, पुंसवन, सीमान्त, जातक यह चार संस्कार यज्ञ द्वारा होते हैं, जिनके कारण बालक पर उतनी छाप पहुँचती है, जितनी जीवन भर की शिक्षा- दीक्षा में नहीं पड़ती ।। ऋषियों ने षोडश संस्कार- पद्धति का आविष्कार इसी दृष्टि से किया था ।। उसी प्रणाली को जब इस देश में अपनाया जाता था, तब घर- घर सुसंस्कृत बालक पैदा होते थे ।। आज उस प्रणाली का परित्याग करने का परिणाम है कि सर्वत्र अवज्ञाकारी कुसंस्कारी सन्तान उत्पन्न होकर माता- पिता तथा परिवार के सब लोगों को दुःख देती है ।।

सन्तानोत्पादन के कार्य में यज्ञ का अत्यन्त ही महत्त्वपूर्ण स्थान है ।। जिनके सन्तान होती है, वे अपने भावी बालकों को यज्ञ- भगवान के अनुग्रह से सुसंस्कारी, स्वस्थ, बुद्धिमान, सुन्दर और कुल की कीर्ति बढ़ाने वाले बना सकते हैं ।। जिन्हें सन्तान नहीं होती हैं, वे उन बाधाओं को हटा सकते हैं जिनके कारण वे अनेक सन्तानहीनों को सन्तान प्राप्त होने के उदाहरण उपलब्ध होते है, जिनमें से कुछ नीचे दिये जाते हैं ।।
अयोध्या- नरेश श्री दशरथ जी ने अपने यज्ञ करने वाले ब्राह्मणों से जो कुछ कहा, उनमें से कुछ श्लोक नीचे दिये जाते हैं-

धर्मार्थ सहित युक्त श्लक्ष्ण् वचनमब्रवीत ।।
ममता तप्यमानस्य पुत्राथर् नास्ति वैसुखम्॥ 8॥ (बाल्मीकि रामायण, आ.ख.द्वादश सर्ग)

अर्थ- हे विप्रगणे! मैं पुत्र प्राप्ति की कामना से बहुत ही सन्तप्त और व्याकुल हूँ ।। मुझे कहीं जरा भी सुख नहीं मिल रहा है ।। मैंने पुत्र की प्राप्ति के लिए यज्ञ करने का विचार किया है ।।

ऋषिपुत्र प्रभावेण कामान्प्राप्स्यामि चाप्रूहम्॥ 10॥
तद्यथा विधिपूवर्कं में क्रतुरेवं समाप्यते ।।
तथा विधान क्रियतां समथार: करणेष्विह॥ 19॥

अर्थ- ऋषिपुत्र शृंगी ऋषि के यज्ञ- क्रिया की निपुणता के प्रभाव से अवश्य ही हमारी पुत्र- कामना पूरी होगी ।। अतः आप विधिपूर्वक यज्ञ करने- कराने में समर्थ द्विजगण सावधान होकर यज्ञ करावें, जिससे यज्ञ साङ्गो- पाङ्ग पूर्ण हो जाय ।।

विधिपूर्वक पुत्रेष्टि यज्ञ समाप्त हो जाने पर श्री विष्णु भगवान् सभी देवताओं सहित यज्ञ स्थल में पधारे ।। वहाँ सभी देवों ने विष्णु भगवान् से प्रार्थना की-

विष्णोपुत्रत्समागच्छ कृत्वात्मामानं चतुविर्धम् ।।
तत्र त्वं मानुषो भूत्वा प्रवृद्धम् लोककण्टकम्॥ (वा.रा.15 वाँ सर्ग 1श्लोक 21)

अर्थ- हे भगवान्! आप पुत्र भाव को प्राप्त होइये ।। आप अंश सहित चारों भागों में विभक्त होकर उनका (दशरथ जी का) पुत्र होना स्वीकार कीजिए और मनुष्य शरीर धारण कर बढ़े हुए लोक- कण्टक (रावण) का नाश कीजिये ।।
भगवान् ने देवों की प्रार्थना स्वीकार की और-

पितरं रोचयामास तदा दशरथं नृप 8॥ (वा.रा.16 सर्ग)

अर्थ- राजा दशरथ को पिता भाव में स्वीकार कर, इसे देवों का बता दिया ।।

सचाप्यपुत्रो नृपतिस्तस्मिन्काले महाद्युतिः ।।
अजयत्पुत्रियामिष्टि पुत्रेप्सुररिसूदनः॥ 9॥
सकृत्वा निश्चयंविष्ण्ण्रामन्त्रय च पितामहम्॥ 10॥(वा.रा.16वाँ सर्ग)

अर्थ- जिस समय महाक्रान्ति वाले राजा दशरथ जी पुत्रेष्टि यज्ञ करने लगे, उस समय विष्णु भगवान् ने पुत्र बनकर उनके यहाँ अवतार लेने का सुस्थिर निश्चय किया ।।

कुलस्य वधर्नं तत्तुमहर्सि सुव्रत ।।
नयेतिचसराजान मुवाच द्विजसत्तम॥ 59॥वा.रा.आदि काण्ड 14 सर्ग

अर्थ- हे सुव्रत! जिससे मेरे वंश की रक्षा हो, आप उसकी ही अनुष्ठाने कीजिये ऋप्य -शृंङ्ग ने तथास्तु कहकर कहा-
भविष्यन्ति सुताः राजश्चत्वारस्ते कुलोद्वाहाः ।।
अर्थ हे राजन्! तुम्हारे चार पुत्र वंश बढ़ाने वाले होंगे ।।
मेधावीतुततोध्यात्वा स किंचिदिदमुत्तरम् ।।
लब्ध संज्ञास्ततस्तं तु वेदज्ञों नृपमऽब्रवीत्॥1॥
इष्टि तेऽहं करिष्यामि पुत्रीयां पुत्र कारणात् ।।
अथवर् शिरसि प्रौक्तै मर्न्त्रै सिद्धां विधानतः॥ 2॥ (वा. रामायण 65 सर्ग)

अर्थ- तदन्तर मेधावी- वेदज्ञ महर्षि कुछ देर तक चिन्तन करके बोले॥ 1॥ हे राजन् ! मैं आपके पुत्र उत्पन्न होने के लिए अथवर्ण में कहे हुए मन्त्रों से सिद्धि देने वाला पुत्रेष्टि यज्ञ कराऊँगा॥2॥
राजा अङ्ग के पुत्र नहीं था ।। उपाय पूछने पर राजा सभासद कहते हैं ।।

नरदेवेह भवतो नाघ तानूनमनाक्स्विथतम् ।।
अस्त्येकं प्रोक्त मनघ यदि हे दृक्त्वम प्रजेः॥ 31॥
तथासाधय भ्रदं ते आत्ममान सुप्रज नृप ।।
इष्टस्ते पुत्रकामस्य पुत्र दास्यति यज्ञभुक्॥32॥

अर्थ- सभासदों ने कहा- हे नरोत्तम! इस जन्म में तो आपने कोई पाप नहीं किया है, परन्तु अवश्य ही कोई पूर्व जन्म का पाप है, जिससे आप पुत्रहीन हैं, इसलिए आप पुत्र पाने की साधना करें ।। आप यही कामना लेकर यज्ञ- भोक्ता भगवान् का यज्ञ द्वारा यजन करें, जिससे वे आपको पुत्र प्रदान करेंगे ।।

पुत्रकामी राजा अङ्ग को ऋषिगण कह रहे हैं-
तथा स्व भागधेयानि ग्रहीष्यन्ति दिवौकसः ।।
तथाप्यभागधयानि जहीष्यन्ति दिवौकसः॥
यद्यज्ञ पुरुषः साक्षादपत्याय हरिवृतिः॥ 36॥
तांस्तान्कामान्हरिदर्द्यान्कामयते जनः ।।
आराधितो यथैवेर्षां तथा पुंसां फलोदयः ॥ 3॒4॥
इति व्यवसिता विप्रास्तस्य राज्ञः प्रजातये ।।
पुरोडाशं निरवपच्छति विष्टाय विष्णवे॥ 35॥
तस्मात् पुरुष उतस्थौ हेममाल्यामलांवरः ।।
हिरण्यमयेन प्रात्रेण सिद्धमादाय पायसम्॥ 36॥ (भागवत, च.स्क. 13 अ.)

अर्थ- तदुपरान्त देवता भी अपना भाग ग्रहण करेंगे, क्योंकि पुत्र- प्राप्ति की कामना से जब आप यज्ञ- पुरुष का यजन करेंगे, तो उस यज्ञ में, यज्ञ पुरुष के साथ देवगण भी स्वतः ही आयेंगे ।।

पुरुष, जिस मनोरथ के लिए यज्ञ द्वारा भगवान यज्ञ पुरुष का सृजन करते हैं, भगवान उनकी वही आशा पूरी करते करते है, क्योंकि भगवान भावना के अनुसार ही फल प्रदान करते हैं ।।

विप्रों के द्वारा ऐसा सुनिश्चित विचार प्राप्त कर राजा ने यज्ञ भगवान के प्रसन्नाथर् पुरोडाश का हवन किया ।।

जब पुरोडाश का हवन विष्णु भगवान को मिला, तो उसी कुण्ड से, स्वर्ण - हार पहने हुए तथा श्वेत वस्त्र धारण किये, हाथ में स्वर्ण थाल में खीर लिये एक दिव्य पुरुष प्रकट हुआ, जिसका सभी ने दर्शन किया ।।
स विप्रानुमतो राजा गृहीत्वाञ्जलिनौदनम् ।।
अवघ्राय मुदायुक्तं प्रदात्पत्नया उदारधीः ॥37॥
सा यत्पुंसवनं राज्ञी प्राश्यतौ पत्युराधते ।।
गर्भकालम् उपावृते कुमारं सूषुवेऽप्रवेता ॥3॥ (भागवत्)

अर्थ- विप्रों की अनुमति से राजा ने उस पुरुष के हाथ से खीर लेकर प्रसन्नता से उसे सूँघा और अपनी पत्नी को खाने के लिये दे दी ।। रानी ने खीर खाकर पति के गर्भ को धारण किया और समय पूरा होने पर पुत्र उत्पन्न किया ।।
श्री शुकदेव जी कहते हैं-

इत्यथिर्तं ते भगवान् कृपालु ब्राह्मणः सुताः ।।
श्रपयित्वा चरुं त्वाष्ट्रं त्वाष्टारम यज्ञद्विजम्॥ 27॥
ज्येष्ठा च या राज्ञी महिषीर्णां च भारत ।।
नाम्ना कृतद्युतिस्तस्यै यज्ञोच्छिष्टमदाद्विज॥ 28॥ (भागवत पुराण, छ.स्क. 14 अध्याय)

अर्थ- जब राजा चित्रकेतु ने अङ्गिरा ऋषि की प्रार्थना की, तो ब्रह्मा के पुत्र परम दयालु अङ्गिरा ऋषि ने उसी समय त्वाष्ट्र चरु लेकर उसे सिद्ध कर त्वाष्टा की पूजा करवाई और यज्ञ किया ॥ 27॥
हे भारत (परीक्षित)! यज्ञ समाप्त होने पर, राजा की अनेक रानियों में जो सबसे श्रेष्ठ और बड़ी कृतद्युति थी, ब्रह्मर्षि अङ्गिरा ने उसे यज्ञ का शेष अन्न (यज्ञोच्छिष्ट) दिया ।।

 
सापि तत्प्रशनादेदचिर्त्रके तोरधारयत् ।।
गभर् कुतद्युतिदेर्वी कृतिकाऽग्नेरिवात्मज॥ 3(॥
अथकाल उपावृते कुमारः समजायत ।।
जनयञ्छूर सेनानां शृण्वतां परमामुदम्॥ 32॥
दृष्टो राजा कुमारस्य स्नातः शुचिरलंकृतः ।।
वाचयित्वाऽऽशिषो विप्रैः कारयामासजातकम्॥ 33॥

अर्थ- यज्ञ शेष (चरु) भोजन करके चित्रकेतु की रानी कृतद्युति ने जिस भाँति कृतिका ने अग्नि की आत्मा को धारण किया था, उसी भाँति धारण किया ।।

इसके पीछे जब गर्भ मास पूर्ण हो गये, तब राजकुमार उत्पन्न हुआ ।। पुत्र का जन्म सुनकर शूरसेन देश के निवासियों को अपार आनन्द प्राप्त हुआ ।।

राजा चित्रकेतु पुत्र का जन्म श्रवण कर, आनन्द- सागर में निमग्न हो गया ।। शांत चित्त से स्नान कर, पवित्र हो, स्वच्छ वस्त्र धारण किया और विधिपूर्वक ब्राह्मणों से आशीर्वाद प्राप्त कर अपने पुत्र का

जातकर्म संस्कार सविधि सम्पन्न किया ॥ 33॥

श्री शुकदेवजी मुनि, मनु की वंश परम्परा वर्णन करते हुए कहते हैं-

तस्याविक्षित यस्य मरुतश्चक्रवत्यर् भूत ।।
सम्वतोर् ययाजद्यज्ञंवै महायोग्यं गिरिस्सुतः॥ 26॥
मरुतस्य यथायज्ञोन तथा अन्यश्च कश्चन ।।
सवर् हिरण्यं त्त्वासीद्यत्किञ्चिच्चास्य शोभनम्॥27॥
अमाद्यादिन्दुः सोमेन दक्षिणाभि द्विजातयः ।।
मरुतः परिवेष्टारो विश्वेदवाः सभासदा॥ 28॥ (भागवत, नवाँ स्क., दू.अ.)

अर्थ- करन्धम के पुत्र आविक्षित, आविक्षित के मरुत, जो चक्रवर्ती राजा हुए, जिनको अङ्गिरा के पुत्र सहयोगी सम्वत्तर्न ने यज्ञ कराया था ॥ 26॥
इस मरुत के यज्ञ के समान किसी का यज्ञ प्रसिद्ध नहीं है ।। उनके यज्ञ में सभी पात्र स्वर्ण के थे ।। इनके यज्ञ में सोमपान करके सुरेन्द्र बहुत प्रसन्न हुए ।। अधिकतम दक्षिणा पाकर ब्राह्मण हर्षित हो रहे थे ।। इस महायज्ञ में मरुद्गण परोसने वाले और विश्वेदेवगण सभासद हुए ॥ 27- 28॥

कृश्वाश्वात् सोमदत्तोऽभूद्योऽश्वमेधौरिऽडस्पतिम् ।।
इष्टवा पुरुष उपाब्रूयाततुपाब्रूयागतिं योगेश्वराश्रित॥ 35॥ (भागवत, नवम स्कन्ध, दूसरा अध्याय)

अर्थ- उनमें (मनुवंश में) कृशाश्व का पुत्र सोमदत्त हुआ, जिसने अनेक अश्वमेध यज्ञ करके यज्ञपति भगवान् की पूजा की और फलस्वरूप उन्होंने योगीश्वरों को प्राप्त होने वाली उत्तम गति को प्राप्त किया ।।
श्री शुकदेव जी मनुवंश परम्परा का वर्णन करते हैं-
अप्रजस्य मनो पूवर् वशिष्ठो भगवान्किल ।।
मित्रावरुणस्यारिष्ट प्रजाथर्मकरोत्प्रभु॥ 13॥
तत्र श्रद्धा मनोः पत्नीं होतारं समयाचत ।।
दुहितथर्मुपामम्य प्राणिपत्य पयोव्रता॥ 14॥ (भा.न.स्क.प्र.अ.)

अर्थ- इक्ष्वाकु आदि पुत्रों के पहिले मनुजी निःसन्तान थे, इसलिए महर्षि वशिष्ठ जी ने मित्रावरुण का यज्ञ कराया ॥13॥
मनु की भार्या श्रद्धा ने, जो उस यज्ञ में पयोव्रत धारण किये हुई थी, जो विधिपूर्वक केवल दूध पीकर ही यज्ञ में संलग्न थीं, वह होताओं के निकट गई और उन्हें प्रणाम करके प्रार्थना की कि आप ऐसा होम करें, जिससे मुझे कन्या उत्पन्न हो ॥ 14॥

प्रेषिणो अध्वर्युंणा होता यत्तया सुसमाहित ।।
हविषि व्यचरेत् तेन बष्टकारं गृणाद्विजः॥ 15॥
होतुस्यद्वयाभिचारेण कन्येलानाम ससाऽभवत् ।।
तां विलोक्य मनुः प्राह नाति हृष्टमना गुरुम्॥ 16॥
भगवन् किमिदं जातं कमर् वो ब्रह्मवादिनाम् ।।
विपय्यर्महो कण्टं मैवं स्याद् ब्रह्मक्रिया॥ 17॥ (भागवत, न.स्क.प्र.अ.)

अर्थ- श्रद्धा की प्रार्थना से आप यज्ञ करें इस प्रकार अध्वर्यु ने गृरित हो, हवि के ग्रहण हो जाने पर, मन में इस प्रकार का ध्यान और मुख से वष्ट शब्द उच्चारण करके मनु की पत्नी की प्रार्थना को पूर्ण किया ॥15॥

होता के ऐसा आचरण करने के कारण मनु को इला नामिका कन्या की प्राप्ति हुई ।। पुत्र प्राप्त की चाहना पूरी नहीं होने के कारण मनु ने असन्तुष्ट भाव से महर्षि वशिष्ठ से कहा- हे भगवन ! आप ब्रह्मवादी हैं, आप लोगों द्वारा किये यज्ञ का फल विपरीत कैसे हो गया? इस भाँति मन्त्र और यज्ञ के उल्टे परिणाम होने से ओह! मुझे कितना कष्ट है? ऐसा तो नहीं होना चाहिए ॥ 17॥

यूयं मन्त्रविदो युक्तास्तपसा दग्ध किलविषा ।।
कुतः संकल्प वैषम्यमनृतं विबुधेष्विव॥ 18॥
तन्निशम्य वचस्तस्य भगवन् प्रपितामह ।।
होतुव्यतिक्रम ज्ञात्वा वभाषे रविनन्दनम्॥ 19॥ (भागवत् नं.स्क.प्र.अ.)

अर्थ- आप मन्त्र- दाता हैं ।। तप से आपके सभी पाप नष्ट हो गये हैं, देव लोगों के बीच अमृत के समान जो संकल्प है, उसकी सब लोगों के बीच यह विषमता कैसे हुई? मनु की बात सुनकर महर्षि वशिष्ठ जी ने होता के व्यभिचार को जान लिया और मनु से बोले- ॥18

एतत् संकल्प वैषम्य होतुस्ते व्यभिचारतः ।।
तथाऽपि साधयिष्येते सुप्रजस्त्वं स्वतेजसा॥ 20॥ (भागवत, नवम् स्क.प्र.अ.)

अर्थ- हे वत्स! यह संकल्प का वैषम्य तुम्हारे होताओं के व्यभिचार के कारण हुआ है, किन्तु (यज्ञफल की अव्यर्थता के लिये) फिर भी मैं तुम्हें पुत्र ही दूँगा ।।
युवनाश्व के पुत्र नहीं था-

भार्या शतेन निविर्ण्ण्ा ऋषयोऽस्य कृपालवः ।।
इष्टिसमवतर्यांचकुरैन्द्री ते सुसमाहितः॥ 26॥
राजा तदज्ञ सदनं प्रविष्टो निशि तषिर्तः ।।
दृष्ट्वा शयानन् पपौ मन्त्र जलं स्वयम्॥ 27॥
उत्थितास्ते निशम्याथ व्युदकं कलश प्रभो ।।
पप्रच्छु कस्य कमेर्य पीतं पुंसवनं जलम्॥ 28॥
राजा पीतं विदित्वाथ ईश्वर प्रहितेन ते ।।
ईश्वराय नमस्चक्रु रहो दैव बलं बल॥ 29॥ (भाग.न.स्क.प्र.अ.)

अर्थ- युवनाश्व के सौ पत्नियाँ थीं, किन्तु संतान के अभाव से वे शोकाकुल ही रहते थे ।। वनवासी ऋषियों को राजा पर दया आ गयी ।। वे सावधानी पूर्वक राजा से इन्द्र दैत्व यज्ञ कराने लगे ।। हे राजन्! अब आश्चर्य की बात सुनो ।। जब यज्ञ हो रहा था, तभी एक रात में राजा युवनाश्व प्यास से व्याकुल हो, यज्ञशाला में गया ।। उस समय यज्ञ कराने वाले सभी सो रहे थे ।। प्यास की तीव्रता में राजा ने उठाकर वह जल पी लिया जो जल, राजा की पत्नी के पीने के लिये रखा गया था ।। जब ऋषि गण जागे तो देखा कि कलश में जल नहीं है ।। विस्मित हो पूछा- यह कर्म किसका है? किसने पुत्र उत्पन्न करने वाला जल पी लिया? जब ज्ञात हुआ कि ईश्वर प्रेरित हो राजा ने ही पी लिया है, तब सभी भगवान् को प्रणाम करते हुए कहने लगे कि-
भाग्य बड़ा बली है, पुरुष का बल उसके सामने तुच्छ है-

जजान ततःकाल उपावृते कुक्षिं निभिर्द्य दक्षिणम् ।।
युवनाश्वस्य तनयश्चक्रवतीर्जनान ह॥ 30॥ (भाग.न.स्क.प्र.अ.)

अर्थ- समय पूरो होने पर युवनाश्व की दक्षिण कुक्षि फाड़कर चक्रवर्ती के लक्षणों से युक्त पुत्र (मान्धाता )) उत्पन्न हुआ ।।

कौशल देश के देवदत्त नामक ब्राह्मण ने तमसा नदी के किनारे बड़े- बड़े ऋषियों को एकत्रित कर पुत्रेष्टि यज्ञ को विधि- पूर्वक सम्पन्न किया ।। यज्ञ पूर्ण होने पर उसे पुत्र की प्राप्ति हुई ।।
पराशर मुनि कहते हैं-

ततोऽस्य वितथे पुत्र जन्मनि पुत्रथिर्नी मरुत्सोम याजिनो दीघर् तपसः पाष्पष्यं पास्तदा बृहस्पति तीयार्दुतथ्य तत्न्या ममतायां समुत्पन्नों भरद्वाजख्यः मरुद्भिदर्त्तः॥ 16॥ (विष्णु पुराण, च.अं.अ. 19)

अर्थ- पुत्र जन्म के विफल हो जाने से भरत ने पुत्र की कामना से मरुत्सोम नामक यज्ञ किया ।। उस यज्ञ के अन्त में मरुद्गण ने उन्हें भारद्वाज नामक पुत्र दिया, जिसकी उत्पत्ति बृहस्पति के वीर्य और ममता के गर्भ से हुई थी ।।

सर्व समर्थ भगवान भी ऐसा कराके यज्ञ की निश्चित महत्ता का संस्थान ही करते हैं ।।

मनु पुत्र सुद्युम्न, शिव- विहार वन में आने के कारण, एक महीना पुरुष तथा एक महीना नारी बनकर रहने लगे ।। अतः वैवस्वत मनु ने पुनः अन्य पुत्र की कामना की और-

ततोय जन्मनुदेवामय मागर् हरि प्रभुम् ।।
इक्ष्वाकु पूवार्न देवान् मेभे स्वसामान्॥ 2॥ (भाग.न.स्क.दू.अ.)

अर्थ- मनु ने भगवान वासुदेव का यज्ञ, सन्तान की कामना से किया ।। इस यज्ञ को करने से उन्हें दश पुत्रों की प्राप्ति हुई, जिसमे इक्ष्वाकु सबसे बड़े थे ।।

राजा दिलीप के सन्तान नहीं होती थी ।। सन्तान के हेतु वे पत्नी सहित (महर्षि) वशिष्ठ गुरु के आश्रम में रहे ।। वहाँ वे गुरु की गायें चराते थे और आश्रम के यज्ञीय वातावरण में रहकर निरन्तर औषधि सेवन करते रहते वैसा यज्ञ- धूम शरीर में प्रवेश करने के स्वर्णिम अवसर प्राप्त करते थे ।। इस साधना से दिलीप को बड़ा ही प्रतापी पुत्र प्राप्त हुआ ।।

जिनकी सन्तान स्वर्गवासी हो चुकी है, पर जिन्हें अपने स्वर्गीय बालकों से अधिक मोह है, वे यज्ञ के प्रभाव से अपनी सन्तान का स्वप्न आदि में दर्शन और सम्भाषण का अवसर प्राप्त कर सकते हैं तथा अपनी या परिवार की किसी अन्य स्त्री की कुक्षि से उस बालक की आत्मा को पुनः अवतरित कर सकते हैं ।।
राजा उग्रसेन तथा उसकी पत्नी ने अपने मरे हुए पुत्र- प्राप्ति की इच्छा की, यह सुनकर श्रीकृष्ण भगवान् ने कहा-

अश्वमेधं क्रतुवरं कुरु धैय्येर्ण भूपते ।।
दशंयिष्याम्यहं सवार्न्यज्ञास्यां ते च सुतान॥ 36॥ (गर्ग संहिता, अ.ख.अ. 13)

अर्थ- हे भूपते! आप यज्ञश्रेष्ठ अश्वमेध का अनुष्ठान कीजिये ।। इस यज्ञ के प्रभाव से मैं तुम्हारे सभी मरे हुए पुत्रों को पुनः तुम्हारे घर जन्म करा दूँगा ।।

उपरोक्त प्रमाणों से स्पष्ट है कि यज्ञ द्वारा सुसन्तति की प्राप्ति हो सकती है ।। विधिवत् किया गया यजन उस युग में भी पुर्वकाल की ही भाँति स्वस्थ, सुन्दर, प्रतिभावान् एवं सद्गुणी सन्तान उपलब्ध करा सकने में समर्थ हो सकता है ।।

(यज्ञ का ज्ञान- विज्ञान पृ. 3.5)

यूयं मन्त्रविदो युक्तास्तपसा दग्ध किलविषा ।।
कुतः संकल्प वैषम्यमनृतं विबुधेष्विव॥ 18॥
तन्निशम्य वचस्तस्य भगवन् प्रपितामह ।।
होतुव्यतिक्रम ज्ञात्वा वभाषे रविनन्दनम्॥ 19॥ (भागवत नं.स्क.प्र.अ.)

अर्थ- आप मन्त्र- दाता हैं ।। तप से आपके सभी पाप नष्ट हो गये हैं, देव लोगों के बीच अमृत के समान जो संकल्प है, उसकी सब लोगों के बीच यह विषमता कैसे हुई? मनु की बात सुनकर महर्षि वशिष्ठ जी ने होता के व्यभिचार को जान लिया और मनु से बोले- ||18||

एतत् संकल्प वैषम्य होतुस्ते व्यभिचारतः ।।
तथाऽपि साधयिष्येते सुप्रजस्त्वं स्वतेजसा॥ 20॥ (भागवत, नवम् स्क.प्र.अ.)

अर्थ- हे वत्स ! यह संकल्प का वैषम्य तुम्हारे होताओं के व्यभिचार के कारण हुआ है, किन्तु (यज्ञफल की अव्यर्थता के लिये) फिर भी मैं तुम्हें पुत्र ही दूँगा ।।
युवनाश्व के पुत्र नहीं था-

भार्या शतेन निविर्ण्ण्ा ऋषयोऽस्य कृपालवः ।।
इष्टिसमवतर्यांचकुरैन्द्री ते सुसमाहितः॥ 26॥
राजा तदज्ञ सदनं प्रविष्टो निशि तषिर्तः ।।
दृष्ट्वा शयानन् पपौ मन्त्र जलं स्वयम्॥ 27॥
उत्थितास्ते निशम्याथ व्युदकं कलश प्रभो ।।
पप्रच्छु कस्य कमेर्य पीतं पुंसवनं जलम्॥ 28॥
राजा पीतं विदित्वाथ ईश्वर प्रहितेन ते ।।
ईश्वराय नमस्चक्रु रहो दैव बलं बल॥ 29॥ (भाग.न.स्क.प्र.अ.)

अर्थ- युवनाश्व के सौ पत्नियाँ थीं, किन्तु संतान के अभाव से वे शोकाकुल ही रहते थे ।। वनवासी ऋषियों को राजा पर दया आ गयी ।। वे सावधानी पूर्वक राजा से इन्द्रदैत्व यज्ञ कराने लगे ।। हे राजन ! अब आश्चर्य की बात सुनो ।। जब यज्ञ हो रहा था, तभी एक रात में राजा युवनाश्व प्यास से व्याकुल हो, यज्ञशाला में गया ।। उस समय यज्ञ कराने वाले सभी सो रहे थे ।। प्यास की तीव्रता में राजा ने उठाकर वह जल पी लिया जो जल, राजा की पत्नी के पीने के लिये रखा गया था ।। जब ऋषि गण जागे तो देखा कि कलश में जल नहीं है ।। विस्मित हो पूछा- यह कर्म किसका है? किसने पुत्र उत्पन्न करने वाला जल पी लिया? जब ज्ञात हुआ कि ईश्वर प्रेरित हो राजा ने ही पी लिया है, तब सभी भगवान् को प्रणाम करते हुए कहने लगे कि-
भाग्य बड़ा बली है, पुरुष का बल उसके सामने तुच्छ है-

जजान ततःकाल उपावृते कुक्षिं निभिर्द्य दक्षिणम् ।।
युवनाश्वस्य तनयश्चक्रवतीर्जनान ह॥ 30॥ (भाग.न.स्क.प्र.अ.)

अर्थ- समय पूरा होने पर युवनाश्व की दक्षिण कुक्षि फाड़कर चक्रवर्ती के लक्षणों से युक्त पुत्र (मान्धता )) उत्पन्न हुआ ।।

कौशल देश के देवदत्त नामक ब्राह्मण ने तमसा नदी के किनारे बड़े- बड़े ऋषियों को एकत्रित कर पुत्रेष्टि यज्ञ को विधि- पूर्वक सम्पन्न किया ।। यज्ञ पूर्ण होने पर उसे पुत्र की प्राप्ति हुई ।।
पराशर मुनि कहते हैं-

ततोऽस्य वितथे पुत्र जन्मनि पुत्रथिर्नी मरुत्सोम याजिनो दीघर् तपसः पाष्पष्यं पास्तदा बृहस्पति तीयार्दुतथ्य तत्न्या ममतायां समुत्पन्नों भरद्वाजख्यः मरुद्भिदर्त्तः॥ 16॥ (विष्णु पुराण, च.अं.अ. 19)

अर्थ- पुत्र जन्म के विफल हो जाने से भरत ने पुत्र की कामना से मरुत्सोम नामक यज्ञ किया ।। उस यज्ञ के अन्त में मरुद्गण ने उन्हें भारद्वाज नामक पुत्र दिया, जिसकी उत्पत्ति बृहस्पति के वीर्य और ममता के गर्भ से हुई थी ।।

सर्व समर्थ भगवान भी ऐसा कराके यज्ञ की निश्चित महत्ता का संस्थान ही करते हैं ।।

मनु पुत्र सुद्युम्न, शिव- विहार वन में आने के कारण, एक महीना पुरुष तथा एक महीना नारी बनकर रहने लगे ।। अतः वैवस्वत मनु ने पुनः अन्य पुत्र की कामना की और-

ततोय जन्मनुदेवामय मागर् हरि प्रभुम् ।।
इक्ष्वाकु पूवार्न देवान् मेभे स्वसामान्॥ 2॥ (भाग.न.स्क.दू.अ.)

अर्थ- मनु ने भगवान वासुदेव का यज्ञ, सन्तान की कामना से किया ।। इस यज्ञ को करने से उन्हें दश पुत्रों की प्राप्ति हुई, जिसमे इक्ष्वाकु सबसे बड़े थे ।।

राजा दिलीप के सन्तान नहीं होती थी ।। सन्तान के हेतु वे पत्नी सहित (महर्षि) वशिष्ठ गुरु के आश्रम में रहे ।। वहाँ वे गुरु की गायें चराते थे और आश्रम के यज्ञीय वातावरण में रहकर निरन्तर औषधि सेवन करते रहते वैसा यज्ञ- धूम शरीर में प्रवेश करने के स्वर्णिम अवसर प्राप्त करते थे ।। इस साधना से दिलीप को बड़ा ही प्रतापी पुत्र प्राप्त हुआ ।।

जिनकी सन्तान स्वर्गवासी हो चुकी है, पर जिन्हें अपने स्वर्गीय बालकों से अधिक मोह है, वे यज्ञ के प्रभाव से अपनी सन्तान का स्वप्न आदि में दर्शन और सम्भाषण का अवसर प्राप्त कर सकते हैं तथा अपनी या परिवार की किसी अन्य स्त्री की कुक्षि से उस बालक की आत्मा को पुनः अवतरित कर सकते हैं ।।
राजा उग्रसेन तथा उसकी पत्नी ने अपने मरे हुए पुत्र- प्राप्ति की इच्छा की, यह सुनकर श्रीकृष्ण भगवान् ने कहा-

अश्वमेधं क्रतुवरं कुरु धैय्येर्ण भूपते ।।
दशंयिष्याम्यहं सवार्न्यज्ञास्यां ते च सुतान॥ 36॥ (गर्ग संहिता, अ.ख.अ. 13)

अर्थ- हे भूपते ! आप यज्ञश्रेष्ठ अश्वमेध का अनुष्ठान कीजिये ।। इस यज्ञ के प्रभाव से मैं तुम्हारे सभी मरे हुए पुत्रों को पुनः तुम्हारे घर जन्म करा दूँगा ।।

उपरोक्त प्रमाणों से स्पष्ट है कि यज्ञ द्वारा सुसन्तति की प्राप्ति हो सकती है ।। विधिवत् किया गया यजन उस युग में भी पूर्वकाल की ही भाँति स्वस्थ, सुन्दर, प्रतिभावान एवं सद्गुणी सन्तान उपलब्ध करा सकने में समर्थ हो सकता है ।।

(यज्ञ का ज्ञान- विज्ञान पृ. 3.5)



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