यज्ञ का ज्ञान विज्ञान

समिधाधानम्

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यज्ञपुरुष अग्निदेव के प्रकट होने पर पतली छोटी चार समिधाएँ घी में डुबोकर एक-एक करके चार मन्त्रों के साथ चार बार में समर्पित की जाएँ ।

ये चार समिधाएँ चार तथ्यों को अग्निदेव की साक्षी में स्मरण करने के लिए चढ़ाई जाती हैं ।

(१) ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ व संन्यास की व्यवस्था को पूर्ण करना ।

(२) धर्म, अर्थ, काम मोक्ष को प्राप्त करा सकने वाला जीवनक्रम अपनाना ।

(३) साधना, स्वाध्याय, संयम, सेवा-इन चारों का अवलम्बन ।

(४) शरीरबल, मनोबल, आत्मबल, ब्रह्मबल-इन चारों विभूतियों के लिए प्रबल-पुरुषार्थ ।

इन चारों उपलब्धियों को यज्ञ-रूप बनाना, यज्ञ के लिए समर्पित करना चार समिधाओं का प्रयोजन है । इस लक्ष्य को चार समिधाओं द्वारा स्मृतिपटल पर अंकित किया जाता है । स्नेहसिक्त, चिकना, लचीला, सरल अपना व्यक्तित्व हो, यह प्रेरणा प्राप्त करने के लिए स्नेह-घृत में डुबोकर चार समिधाएँ अर्पित की जाती हैं । भावना की जाए कि घृतयुक्त समिधाओं में जिस प्रकार अग्नि प्रदीप्त होती है, उसी प्रकार उर्पयुक्त क्षमताएँ अपने संकल्प और देव अनुग्रह के संयोग से साधकों को प्राप्त हो रही हैं ।

समिधाधान वह करता है, जो घी की आहुति देने के लिए मध्य में बैठता है । जल प्रसेचन तथा आज्याहुति की सात घृत आहुतियाँ भी वही देता है ।

१-ॐ अयन्त इध्म आत्मा, जातवेदस्तेनेध्यस्व वर्धस्व । चेद्ध वर्धय चास्मान् प्रजया, पशुभिबर््रह्मवर्चसेन, अन्नाद्येन समेधय स्वाहा । इदं अग्नये जातवेदसे इदं न मम । -आश्व०गृ०सू० १.१० २- ॐ समिधाऽग्निं दुवस्यत, घृतैर्बोधयतातिथिम् । आस्मिन् हव्या जुहोतन स्वाहा । इदं अग्नये इदं न मम॥

३- ॐ सुसमिद्धाय शोचिषे, घृतं तीव्र जुहोतन । अग्नये जातवेदसे स्वाहा । इदं अग्नये जातवेदसे इदं न मम॥ ४- ॐ तं त्वा समिद्भिरङ्गिरो, घृतेन वर्धयामसि । बृहच्छोचा यविष्ठ्य स्वाहा । इदं अग्नये अंगिरसे इदं न मम॥ -३.१.३

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