यज्ञ का ज्ञान विज्ञान

रक्षाविधानम्

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जहाँ उत्कृष्ट बनने की, शुभ कार्य करने की आवश्यकता है, वहाँ यह भी आवश्यक है कि दुष्टों की दुष्प्रवृत्ति से सतर्क रहा जाए और उनसे जूझा जाए । दुष्ट प्रायः सज्जनों पर ही आक्रमण करते हैं, इसलिए नहीं कि देवतत्त्व कमजोर होते हैं, वरन् इसलिए कि वे अपने समान ही सबको सज्जन समझते हैं और दुष्टता के घात-प्रतिघातों से सावधान नहीं रहते, संगठित नहीं होते और क्षमा- उदारता के नाम पर इतने ढीले हो जाते हैं कि अनीति से लड़ने का साहस, शौर्य और पराक्रम ही उनमें से चला जाता है । इससे लाभ अनाचारी तत्त्व उठाते हैं ।

यज्ञ जैसे सत्कर्मों की अभिवृद्धि से ऐसा वातावरण बनता है, जिसकी प्रखरता से असुरता के पैर टिकने ही न पाएँ । इस आश्शंका में असुर-प्रकृति के विघ्न सन्तोषी लोग ही ऐसे षड्यन्त्र रचते हैं, जिसके कारण शुभ कर्म सफल न होने पाएँ ।

इस स्थिति से भी धर्मपरायण व्यक्ति को परिचित रहना चाहिए और संयम-उदारता, सत्य-न्याय जैसे आदर्शों को अपनाने के साथ-साथ ऐसी वैयक्तिक और सामूहिक सार्मथ्य इकट्ठी करनी चाहिए, जिससे दुष्टता को निरस्त किया जा सके । इसी सतर्कता और तत्परता का नाम रक्षा विधान है । दसों दिशाओं में विघ्नकारी तत्त्व हो सकते हैं, उनकी ओर दृष्टि रखने, उन पर प्रहार करने की तैयारी के रूप में सब दिशाओं में मन्त्र-पूरित अक्षत फेंके जाते हैं । भगवान् से उन दुष्टों से लड़ने की शक्ति की याचना भी इस क्रिया-कृत्य में सम्मिलित है । बायें हाथ में अक्षत रखें, जिस दिशा की रक्षा का मन्त्र बोला जाए, उसी ओर अक्षत चड़ायेँ ।

ॐ र्पूवे रक्षतु वाराहः, आग्नेय्यां गरुडध्वजः । दक्षिणे पद्मनाभ्ास्तु, नैर्ऋत्यां मधुसूदनः॥१॥ पश्चिमे चैव गोविन्दो, वायव्यां तु जनार्दनः । उत्तरे श्रीपती रक्षेद्, ऐशान्यां हि महेश्वरः॥२॥ र्ऊध्वं रक्षतु धाता वो, ह्यधोऽनन्तश्च रक्षतु । अनुक्तमपि यत् स्थानं, रक्षत्वीशो ममाद्रिधृक्॥३॥ अपसर्पन्तु ते भ्ाूता, ये भूता भ्ाूमिसंस्थिताः । ये भूता विघ्न्रकर्तारः, ते गच्छन्तु शिवाज्ञया॥४॥ अपक्रामन्तु भूतानि, पिशाचाः सर्वतो दिशम् । र्सवेषामविरोधेन, यज्ञकर्म समारभे॥५॥

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