यज्ञ का ज्ञान विज्ञान

विसर्जन वसोर्धारा

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घृत की अन्तिम बड़ी आहुति वसोर्धारा अर्थात् स्नेह सौजन्य । प्रारम्भ में घृत की सात आहुतियाँ दी थीं । उस प्रारम्भ का अन्त और भी बढ़ा-चढ़ा होना चाहिए । वसोर्धारा में घृत की अविच्छिन्न धारा टपकाई जाती है और अधिक घृत होमा जाता है । कार्य के प्रारम्भ में जितना उत्साह एवं त्याग हो, अन्त में उससे भी अधिक होना चाहिए । अक्सर शुभ कार्यों के प्रारम्भ में सब लोग बहुत साहस, उत्साह दिखाते हैं; पर पीछे ठण्डे पड़ जाते हैं । मनस्वी लोगों की नीति दूसरी ही है । वे यदि धर्म मार्ग पर कदम बढ़ा देते हैं, तो हर कदम पर अधिक तेजी का परिचय देते हैं और अन्ततः उसी में-याज्ञिक कर्म में तन्मय हो जाते हैं । भावना करें कि यज्ञ भगवान् सत्कृत्यों में अविरल स्नेह की धार चढ़ाने की प्रवृत्ति और क्षमता हमें प्रदान करें ।

ॐ वसोः पवित्रमसि शतधारं , वसो पवित्रमसि सहस्रधारम् । देवस्त्वा सविता पुनातु वसोः, पवित्रेण शतधारेण सुप्वा, कामधुक्षः स्वाहा ।

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