यज्ञ का ज्ञान विज्ञान

देवावाहनम्

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देव शक्तियाँ-आदि शक्ति की, परब्रह्म की विभिन्न धाराएँ हैं । शरीर एक है, उसमें रक्त परिभ्रमण संस्थान, पाचन संस्थान, वायु संचार संस्थान, विचार संस्थान आदि अनेक संस्थान हैं । वे सब स्वतन्त्र हैं और आपस में जुडे़ हुए भी । इसी प्रकार सृष्टि सन्तुलन व्यवस्था के लिए इस विराट् सत्ता की विभिन्न चेतना धाराएँ विभिन्न उत्तरदायित्व सँभालती हैं । उन्हें ही देव शक्तियाँ कहा जाता है । ईश्वरेच्छा, दिव्य योजना के अनुरूप हर कार्य में उनका सहयोग अपेक्षित भी है और वह प्राप्त भी होता है । इसलिए सत्कार्यों में देव शक्तियों के आवाहन पूजन का विधि-विधान सम्मिलित रहता है । साधकों के पुरुषार्थ के साथ वह दिव्य सहयोग भी जुड़ सके, इसके लिए श्रद्धा भाव युक्त देव पूजन किया जाता है ।

सभी उपस्थित जनों से निवेदन किया जाए कि वे पूजा में सम्मिलित रहें । पूजन कृत्य भले ही एक प्रतिनिधि करें, परन्तु देवों की प्रसन्नता सबकी भावना के संयोग के बिना नहीं पायी जा सकती है । 'भावे हि विद्यते देवाः तस्माद् भावो हि कारणम्' के अनुसार भाव संयोग से ही पूजन में शक्ति आती है । सबका ध्यान आकर्षित करते हुए उन्हें भाव सूत्र में बाँधकर पूजन क्रम चलाया जाए । हर देवशक्ति का भाव चित्रण करके मन्त्र बोलें । मन्त्र के साथ पूजा करें, सभी भावनापूर्वक आवाहन, ध्यान एवं नमस्कार करते रहें ।

यहाँ प्रत्येक मन्त्र के पूर्व उससे सम्बद्ध देवशक्ति का स्वरूप एवं महत्त्व समझाया गया है और अन्त में आवाहन-स्थापना का निवेदन किया गया है । बड़े यज्ञों में इस क्रम को चलाने से वातावरण अधिक प्रखर और भावभरा बनता है । यदि संक्षिप्त आयोजन है, तो उसमें संक्षिप्त हवन पद्धति के ढंग से केवल मन्त्र बोलते हुए आगे बढ़ा जा सकता है । समय और परिस्थितियाँ देखते हुए विस्तार या संक्षिप्तीकरण का निर्णय विवेकपूर्वक कर लेना चाहिए ।

गुरु- परमात्मा की दिव्य चेतना का वह अंश जो साधकों का मार्गदर्शन और सहयोग करने के लिए व्यक्त होता है ।

ॐ गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः, गुरुरेव महेश्वरः । गुरुरेव परब्रह्म, तस्मै श्री गुरवे नमः॥१॥ अखण्डमण्डलाकारं, व्याप्तं येन चराचरम् । तत्पदं दर्शितं येन, तस्मै श्री गुरवे नमः॥२॥ -गु०गी० ४३,४५

मातृवत् लालयित्री च, पितृवत् मार्गदर्शिका । नमोऽस्तु गुरुसत्तायै, श्रद्धा-प्रज्ञायुता च या॥३॥ ॐ श्री गुरवे नमः । आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि ।

गायत्री- वेदमाता, देवमाता, विश्वमाता-सद्ज्ञान, सद्भाव की अधिष्ठात्री सृष्टि की आदि कारण मातेश्वरी । ॐ आयातु वरदे देवि! त्र्यक्षरे ब्रह्मवादिनि । गायत्रिच्छन्दसां मातः, ब्रह्मयोने नमोऽस्तु ते॥४॥ -सं०प्र०

ॐ श्री गायत्र्यै नमः । आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि । ततो नमस्कारं करोमि । ॐ स्तुता मया वरदा वेदमाता, प्रचोदयन्तां पावमानी द्विजानाम् । आयुः प्राणं प्रजां पशुं, कीर्तिं द्रविणं ब्रह्मवर्चसम् । मह्यं दत्त्वा व्रजत ब्रह्मलोकम् । -अथर्व० १९.७१.१

गणेश- विवेक के प्रतीक, विघ्नविनाशक प्रथम पूज्य अभीप्सितार्थसिद्ध्यर्थं, पूजितो यः सुरासुरैः । सर्वविघ्नहरस्तस्मै, गणाधिपतये नमः॥५॥

गौरी- श्रद्धा, निर्विकारिता, पवित्रता की प्रतीक मातृशक्ति सर्वमङ्गलमांगल्ये, शिवे सर्वार्थसाधिके! शरण्ये त्र्यम्बके गौरि, नारायणि! नमोऽस्तु ते॥६॥

हरि- हृदयस्थ सत् प्रेरणा के स्रोत खोलने वाले करुणानिधान शुक्लाम्बरधरं देवं, शशिवर्णं चर्तुभुजम् । प्रसन्नवदनं ध्यायेत्, सर्वविघ्नोपशान्तये॥७॥ सर्वदा सर्वकायर्ेषु, नास्ति तेषाममंगलम् । येषां हृदिस्थो भगवान्, मंगलायतनो हरिः॥८॥

सप्तदेव- सप्तलोकों एवं सप्तद्वीपा वसुन्धरा का सन्तुलन रखने वाली सात महाशक्तियों का युग्म विनायकं गुरुं भानुं, ब्रह्मविष्णुमहेश्वरान् । सरस्वतीं प्रणौम्यादौ, शान्तिकार्यार्थसिद्धये॥९॥

पुण्डरीकाक्ष- कमल जैसी निर्विकार, निर्दोष भावना एवं अन्तदर्ृष्टि देने वाले भक्तवत्सल मंगलं भगवान् विष्णुः, मंगलं गरुडध्वजः । मंगलं पुण्डरीकाक्षो, मंगलायतनो हरिः॥१०॥

ब्रह्मा- सृष्टिकर्त्ता, निर्माण की क्षमता के आदि स्रोत त्वं वै चतुर्मुखो ब्रह्मा, सत्यलोकपितामहः । आगच्छ मण्डले चास्मिन्, मम सर्वार्थसिद्धये॥११॥

विष्णु- पालन करने वाले, साधनों को सार्थक बनाने वाले प्रभु शान्ताकारं भुजगशयनं, पद्मनाभं सुरेशं, विश्वाधारं गगनसदृशं, मेघवर्णं शुभांगम् । लक्ष्मीकान्तं कमलनयनं, योगिभिर्ध्यानगम्यं, वन्दे विष्णंु भवभयहरं, सर्वलोकैकनाथम्॥१२॥

शिव- परिवर्तन, अनुशासन के सूत्रधार, कल्याण के दाता वन्दे देवमुमापतिं सुरगुरुं, वन्दे जगत्कारणम्, वन्दे पन्नगभूषणं मृगधरं, वन्दे पशूनाम्पतिम् । वन्दे सूर्यशशाङ्कवह्निनयनं, वन्दे मुकुन्दप्रियम् , वन्दे भक्तजनाश्रयं च वरदं, वन्दे शिवं शंकरम्॥१३॥

त्र्यम्बक-बन्धन-मृत्यु से ऊपर उठाकर मुक्ति प्रदात्री सत्ता ॐ त्र्यम्बकं यजामहे, सुगन्धिम्पुष्टिवर्धनम् । उर्वारुकमिव बन्धनान्, मृत्यर्ोमुक्षीय माऽमृतात्॥१४॥

दुर्गा- संगठन, सहकार, सत्साहस आदि की अधिष्ठात्री मातृशक्ति र्दुगे स्मृता हरसि भीतिमशेषजन्तोः, स्वस्थ्ौः स्मृता मतिमतीव शुभां ददासि । दारिद्र्यदुःखभयहारिणि का त्वदन्या, सर्वोपकारकरणाय सदादर््रचित्ता॥१५॥

सरस्वती- अज्ञान, नीरसता हटाने वाली, ज्ञान-कला की देवी माँ शुक्लां ब्रह्मविचारसारपरमाम्, आद्यां जगद्व्यापिनीं, वीणापुस्तकधारिणीमभ्ायदां, जाड्यान्धकारापहाम् । हस्ते स्फाटिकमालिकां विदधतीं, पद्मासने संस्थिताम्, वन्दे तां परमेश्वरीं भगवतीं, बुद्धिप्रदां शारदाम्॥१६॥

लक्ष्मी- साधनों तथा धन-वैभव की अधिष्ठात्री माँ आदर््रां यः करिणीं यष्टिं, सुवर्णां हेममालिनीम् । सूर्यां हिरण्मयीं लक्ष्मीं, जातवेदो मऽआवह॥१७॥

काली- अकल्याणकारी वृत्तियों का संहार करने में समर्थ चेतना कालिकां तु कलातीतां, कल्याणहृदयां शिवाम् । कल्याणजननीं नित्यं, कल्याणीं पूजयाम्यहम्॥१८॥

गंगा- अपवित्रता एवं पापवृत्तियों का हरण तथा शमन करने वाली दिव्यधारा विष्णुपादाब्जसम्भूते, गङ्गे त्रिपथगामिनि । धर्मद्रवेति विख्याते, पापं मे हर जाह्नवि॥१९॥

तीर्थ- मानवी अन्तःकरण में सत्प्रवृत्तियों, सदिच्छाओं का बीजारोपण एवं विकास करने में समर्थ दिव्य प्रवाह पुष्करादीनि तीर्थानि, गंगाद्याः सरितस्तथा । आगच्छन्तु पवित्राणि, पूजाकाले सदा मम॥२०॥

नवग्रह- विश्व की जड़-चेतन प्रकृति में तालमेल, सूत्रबद्धता प्रदान करने वाली सामथ्र्यों के प्रतीक ब्रह्मामुरारिस्िापुरान्तकारी, भानुः शशीभूमिसुतो बुधश्च । गुरुश्च शुक्रः शनिराहुकेतवः, सर्वेग्रहाः शान्तिकरा भवन्तु॥२१॥

षोडशमातृका-अन्तरंग एवं अन्तरिक्ष में विद्यमान १६ कल्याणकारी शक्तियों का युग्म गौरी पद्मा शची मेधा, सावित्री विजया जया । देवसेना स्वधा स्वाहा, मातरो लोकमातरः॥२२॥

धृतिः पुष्टिस्तथा तुष्टिः, आत्मनः कुलदेवता । गणेशेनाधिका ह्येता, वृद्धौ पूज्याश्च षोडश॥२३॥

सप्तमातृका- सात महाशक्तियाँ, जिनका नियोजन मंगल कार्यों में करने से वे माता की तरह संरक्षण देती हैं कीर्तिर्लक्ष्मीधर्ृतिमर्ेधा, सिद्धिः प्रज्ञा सरस्वती । मांगल्येषु प्रपूज्याश्च, सप्तैता दिव्यमातरः॥२४॥

वास्तुदेव- वस्तुओं में अदृश्य रूप से सन्निहित चेतनाशक्ति नागपृष्ठसमारूढं, शूलहस्तं महाबलम् । पातालनायकं देवं, वास्तुदेवं नमाम्यहम्॥२५॥

क्षेत्रपाल-विभिन्न क्षेत्रों में देवत्व का संचार करने वाली सूक्ष्म सत्ता क्षेत्रपालान्नमस्यामि, सर्वारिष्टनिवारकान् । अस्य यागस्य सिद्ध्यर्थं, पूजयाराधितान् मया॥२६॥

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