यज्ञ का ज्ञान विज्ञान
यज्ञ शब्द के अर्थ को समझाते हुए परमपूज्य गुरुदेव समग्र जीवन को यज्ञमय
बना लेने को ही वास्तविक यज्ञ कहते हैं ।। ''यज्ञार्थ् कर्मणोऽन्यत्र
लोकोऽयं कर्मबन्धनः' के गीता वाक्य के अनुसार वे लिखते हैं कि यज्ञीय जीवन
जीकर किये गये कर्मों वाला जीवन ही श्रेष्ठतम जीवन है ।। इसके अलावा किये
गये सभी कर्म बंधन का कारण बनते हैं व जीवात्मा की परमात्म सत्ता से एकाकार
होने की प्रक्रिया में बाधक सिद्ध होते हैं ।। यज्ञ शब्द मात्र स्वाहा-
मंत्रों के माध्यम से आहुति दिये जाने के परिप्रेक्ष्य में नहीं किया जाना
चाहिए, यह स्पष्ट करते हुए उनने इसमें लिखा है कि यज्ञीय जीवन से हमारा आशय
है- परिष्कृत देवोपम व्यक्तित्व ।। वास्तविक देव पूजन यही है कि व्यक्ति
अपने अंतः में निहित देव शक्तियों को यथोचित सम्मान देते हुए उन्हें
निरन्तर बढ़ाता चले ।। महायज्ञैश्च यज्ञैश्च ब्राह्मीयं क्रियते तनुः की
मनुस्मृति की उक्ति के अनुसार सर्वश्रेष्ठ यज्ञ वह है, जिससे व्यक्ति
ब्रह्ममय- ब्राह्मणत्व भरा देवोपम जीवन जीते हुए स्वयं- को अपने शरीर, मन,
अन्तःकरण को परिष्कृत करता हुआ चला जाता है ।।
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