हर महत्त्वपूर्ण कर्मकाण्ड के पूर्व सङ्कल्प कराने की परम्परा है, उसके कारण इस प्रकार हैं- अपना लक्ष्य, उद्देश्यनिश्चित होना चाहिए ।। उसकी घोषणा भी की जानी चाहिए ।। श्रेष्ठ कार्य घोषणापूर्वक किये जाते हैं, हीन कृत्यछिपकर करने का मन होता है ।। संकल्प करने से मनोबल बढ़ता है ।। मन के ढीलेपन के कुसंस्कार पर अंकुशलगता है, स्थूल घोषणा से सत्पुरुषों का तथा मन्त्रों द्वारा घोषणा से सत् शक्तियों का मार्गदर्शन और सहयोगमिलता है ।। संकल्प में गोत्र का उल्लेख भी किया जाता है ।। गोत्र ऋषि परम्परा के होते हैं ।। यह बोध कियाजाना चाहिए कि हम ऋषि परम्परा के व्यक्ति हैं, तद्नुसार उनके गरिमा के अनुरूप कार्यों को करने का उपक्रमउन्हीं के अनुशासन के अन्तर्गत करते हैं ।। संकल्प बोलने के पूर्व मास, तिथि, वार आदि सभी की जानकारीकर लेनी चाहिए ।। बीच में रुक- रुककर पूछना अच्छा नहीं लगता ।। यहाँ जो संकल्प दिया जा रहा है, वहकिसी भी कृत्य के साथ बोला जा सकता है, इसके लिए 'पूजनपूर्वकं' के आगे किये जाने वाले कृत्य का उल्लेखकरना होता है ।। जैसे गायत्री यज्ञ, विद्यारम्भ संस्कार, चतुर्विंशति सहस्रात्मकगायत्रीमन्त्रानुष्ठान आदि ।। जिसकृत्य का संकल्प करना है, उसे हिन्दी में ही बोलकर 'कर्म सम्पादनार्थं' के साथ मिला देने से संकल्प कीसंस्कृत शब्दावली पूरी हो जाती है ।। वैसे भिन्न कृत्यों के अनुरूप संकल्प, नामाऽहं के आगे भिन्न- भिन्ननिर्धारित वाक्य बोलकर भी पूरा किया जा सकता है ।। सामूहिक पर्वों, साप्ताहिक यज्ञों आदि में संकल्प नहीं भीबोले जाएँ, तो कोई हर्ज नहीं ।।
ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णुः श्रीमद्भगवतो महापुरुषस्य विष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्य, अद्य श्रीब्रह्मणो द्वितीये परार्धेश्रीश्वेतवाराहकल्पे, वैवस्वतमन्वन्तरे, भूर्लोके, जम्बूद्वीपे, भारतवर्षे, भरतखण्डे, आर्यावर्त्तैकदेशान्तर्गते, .......... क्षेत्रे, .......... विक्रमाब्दे .......... संवत्सरे .......... मासानां मासोत्तमेमासे .......... मासे .......... पक्षे .......... तिथौ .......... वासरे .......... गोत्रोत्पन्नः .......... नामाऽहं सत्प्रवृत्ति- संवर्द्धनाय, दुष्प्रवृत्ति- उन्मूलनाय, लोककल्याणाय, आत्मकल्याणाय, वातावरण -परिष्काराय, उज्ज्वलभविष्यकामनापूर्तये चप्रबलपुरुषार्थं करिष्ये, अस्मै प्रयोजनाय च कलशादि- आवाहितदेवता- पूजनपूर्वकम् .......... कर्मसम्पादनार्थंसङ्कल्पम् अहं करिष्ये ।।