यज्ञ का ज्ञान विज्ञान

देवदक्षिणा- पूर्णाहुतिः

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मनुष्य की गरिमा इस बात में है कि जो श्रेष्ठ संकल्प करे, उसे पूर्णता तक पहुँचाए । मनुष्य अपूर्ण है । उसे अपनी पूर्णता के लिए प्रयतन करना चाहिए । यज्ञीय जीवन में रुचि रखने वाले आदर्शवादी को अग्नि की साक्षी में यह व्रत लेना चाहिए कि पूर्णता की दिशा में निरन्तर अग्रसर रहेंगे और लक्ष्य को प्राप्त करके ही चैन लेंगे । मनुष्य से अपेक्षा की जाती है कि वह पशुता की ओर न बढ़े, हीन प्रवृत्तियों से बचे तथा देवत्व की दिशा में बढ़े । यज्ञ से देवत्व की प्राप्ति होती है । यज्ञ से उत्पन्न ऊर्जा का, यज्ञ भगवान् के आशीर्वाद का उपयोग हीन प्रवृत्तियों के विनाश के लिए करना चाहिए । इसके लिए अपने किसी दोष-र्दुगुण के त्याग तथा किसी सद्गुण को अपनाने का संकल्प मन में करना चाहिए । देवशक्तियाँ श्रेष्ठ संकल्पों को पूरा करने के लिए विशेष आश्शीर्वाद एवं शक्ति प्रदान करती हैं । पूर्णाहुति के साथ देव शक्तियों के सामने अपने सुनिश्चित संकल्प घोषित करते हुए उनकी पूर्ति की प्रार्थना सहित पूर्णाहुति सम्पन्न करनी चाहिए ।

देव दक्षिणा के संदर्भ में छोड़े जाने वाले दोषों एवं अपनाये जाने योग्य गुणों, नियमों का उल्लेख समय एवं परिस्थितियों के अनुसार किया जा सकता है । उनकी सूची आगे दी गयी है ।

सब लोग खड़े हों । सबके हाथ में एक-एक चुटकी सामग्री हो । घृत होमने वाले स्रुचि में सुपारी अथवा नारियल का गोला तथा घृत लें, स्वाहा के साथ आहुति दें ।

ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं, पूर्णात् पूर्णमुदच्यते । पूर्णस्य पूर्णमादाय, पूर्णमेवावशिष्यते॥ ॐ पूर्णादर्वि परापत, सुपूर्णा पुनरापत । वस्नेव विक्रीणा वहा, इषमूर्ज शतक्रतो स्वाहा॥ ॐ सर्वं वै पूर्ण स्वाहा॥ -बृह. उ. ५.१.१; यजु. ३.४९

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