घृत का दूसरा नाम स्नेह है । स्नेह अर्थात् प्रेम, सहानुभूति, सेवा, संवेदना, दया, क्षमा, ममता, आत्मीयता, करुणा, उदारता, वात्सल्य जैसे सद्गुण इस प्रेम-अभिव्यक्ति के साथ जुड़े हुए हैं । निःस्वार्थ भाव से उच्च आदर्शों के साथ साधना सम्पन्न की जाती है, उसे दिव्य प्रेम कहते हैं । यह दिव्य प्रेम, स्नेह-घृत यदि यज्ञ-परमार्थ के साथ जोड़ दिया जाए, तो वह देवताओं को प्रसन्न करने वाला बन जाता है । वही शिक्षण इन सात घृत आहुतियों में है । सच्चे प्रेम पात्र सात ही हैं । इन सातों को ईश्वररूपी सूर्य की सात किरणें कह सकते हैं । यही ब्रह्म-आदित्य के सात अश्व हैं ।
(१)प्रजापति-परमेश्वर
(२) इन्द्र-आत्मा
(३) अग्नि-वैभव
(४) सोम-शान्ति
(५) भुः- शरीर
(६) भुवः-मन
(७) स्वः- अन्तःकरण ।
इन सात देवताओं को सच्चे मन से प्यार करना चाहिए अर्थात् इनके परिष्कार, अभिवर्धन के लिए सतत प्रयतन करना चाहिए । यही सब देवताओं को दी गई सात आहुतियों का प्रयोजन है ।
१- ॐ प्रजापतये स्वाहा । इदं प्रजापतये इदं न मम॥ १८.२८
२- ॐ इन्द्राय स्वाहा । इदं इन्द्राय इदं न मम॥
३- ॐ अग्नये स्वाहा । इदं अग्नये इदं न मम॥
४- ॐ सोमाय स्वाहा । इदं सोमाय इदं न मम॥ -२२.२७
५- ॐ भूः स्वाहा । इदं अग्नये इदं न मम॥
६- ॐ भुवः स्वाहा । इदं वायवे इदं न मम॥
७- ॐ स्वः स्वाहा । इदं सूर्याय इदं न मम॥ -गो.गृ.सू. १.८.१५