यज्ञ का ज्ञान विज्ञान

न्यासः

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बायें हाथ की हथेली पर जल लेना, दाहिने हाथ की पाँचों अँगुलियों को इकट्ठा करना, उन एकत्रित अँगुलियोंको हथेली वाले जल में डुबोना ।। अब जहाँ- जहाँ मन्त्रोच्चार के संकेत हों, वहाँ पहले बायीं ओर फिर दाहिनीओर के क्रम से स्पर्श करते हुए हर बार में एकत्रित अँगुलियाँ डुबोते और लगाते चलना, यह न्यास कर्म है ।।

इसका प्रयोजन है- शरीर के अति महत्त्वपूर्ण अंगों में पवित्रता की भावना भरना, उनकी दिव्य चेतना को जाग्रत्करना ।। अनुष्ठान काल में उनके जाग्रत् देवत्व से सारे कृत्य पूरे करना तथा इसके अनन्तर ही इन अवयवों को, इन्द्रियों को सशक्त एवं संयत बनाये रहना ।।

भावना करें कि इन्द्रियों -अंगों में मन्त्र शक्ति के प्रभाव से दिव्य प्रवृत्तियों की स्थापना हो रही है ।। ईश्वरीय चेतनाहमारे आवाहन पर वहाँ विराजित होकर अशुभ का प्रवेश रोकेगी, शुभ को क्रियान्वित करने की प्रखरताबढ़ायेगी ।।

ॐ वाङ् मे आस्येऽस्तु ।। (मुख को) ॐ नसोर्मे प्राणोऽस्तु ।। (नासिका के दोनों छिद्रों को) ॐ अक्ष्णोर्मे चक्षुरस्तु ।। (दोनों नेत्रों को) ॐ कर्णयोर्मे श्रोत्रमस्तु ।। (दोनों कानों को) ॐ बाह्वोर्मे बलमस्तु ।। (दोनों भुजाओं को) ॐ ऊर्वोर्मे ओजोऽस्तु ।। (दोनों जंघाओं को) ॐ अरिष्टानि मेऽङ्गानि, तनूस्तन्वा मे सह सन्तु ।। (समस्त शरीर पर) -पा. गृ. सू. १.३.२५

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