अपने दोषों को देखते रहना, जिनके साथ कुछ अनुचित या अप्रिय व्यवहार बन पड़ा हो, उनके मनोमालिन्य को दूर करना, जिसको हानि पहुँचाई हो, उसकी क्षतिपूर्ति करना, यह सज्जनता का लक्षण है । यज्ञ कार्य के विधि-विधान में कोई त्रुटि रह सकती है, इसके लिए देव-शक्तियों एवं व्यक्तियों से क्षमा याचना कर लेने से जहाँ अपना जी हल्का होता है, वहाँ सामने वाले की अप्रसन्नता भी दूर हो जाती है । यह आत्म-निरीक्षण, आत्म-शोधन की दूसरों के प्रति उदात्त दृष्टि रखने की सज्जनोचित प्रक्रिया है । यज्ञ के अवसर पर इस प्रक्रिया को अपनाये रहने के लिए क्षमा प्रार्थना का विधान यज्ञ आयोजन के अन्त में रहता है । सब लोग हाथ जोड़कर खड़े होकर मन्त्रोच्चारण करें, साथ ही उस स्तर के भाव मन में भरे रहें ।
ॐ आवाहनं न जानामि, नैव जानामि पूजनम् ।
विसर्जनं न जानामि, क्षमस्व परमेश्वर!॥१॥
मन्त्रहीनं क्रियाहीनं, भक्तिहीनं सुरेश्वर ।
यत्पूजितं मया देव! परिपूर्णं तदस्तु मे॥२॥
यदक्षरपदभ्रष्टं, मात्राहीनं च यद् भवेत् ।
तत्सर्वं क्षम्यतां देव! प्रसीद परमेश्वर! ॥३॥
यस्य स्मृत्या च नामोक्त्या, तपोयज्ञक्रियादिषु ।
न्यूनं स्ाम्पूर्णतां याति, सद्यो वन्दे तम्ाच्युतम्॥४॥
प्रमादात्कुर्वतां कर्म, प्रच्यवेताध्वरेषु यत् ।
स्मरणादेव तद्विष्णोः, सम्पूर्णं स्यादितिश्रुतिः॥५॥