यज्ञ का ज्ञान विज्ञान

विसर्जन -भस्मधारणम्

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जीवन का अन्त भस्म की ढेरी के रूप में होता है । मुट्ठी भर भस्म बनकर हवा में उड़ जाने वाले अकिंचन मनुष्य का लोभ, मोह, अहंकार में निरत रहना मूर्खतापूर्ण है । इस दूरगामी किन्तु नितान्त सत्य स्थिति को यदि वह समझ सका होता, तो उसने अपनी गतिविधियों का निर्धारण ऐसे आधारों पर किया होता, जिसे सुरदुर्लभ मानव जीवन व्यर्थ और अनर्थ जैसे कार्यों में गँवा देने का पश्चात्ताप न करना पड़ता । मृत्यु कभी भी आ सकती है और इस सुन्दर कलेवर को देखते-देखते भस्म की ढेरी बना सकती है । यह बात मस्तिष्क में भली प्रकार बिठा लेने के लिए यज्ञ भस्म मस्तक पर लगाई जाती है । इस भस्म को मस्तक, कण्ठ, भुजा तथा हृदय पर भी लगाते हैं, मस्तक अर्थात् ज्ञान, कण्ठ अर्थात् वचन, भुजा अर्थात् कर्म । मन, वचन, कर्म से हम ऐसे विवेकयुक्त कर्म करें, जो जीवन को सार्थक कृतकृत्य बनाने वाले सिद्ध हों ।
स्फ्य की पीठ पर भस्म लगा ली जाती है और सभी लोग अनामिका अँगुली में लेकर मन्त्र में बताये हुए स्थानों पर क्रमशः लगाते हैं ।

ॐ त्र्यायुषं जमदग्नेः, इति ललाटे ।
ॐ कश्यपस्य त्र्यायुषम्, इति ग्रीवायाम् ।
ॐ यद्देवेषु त्र्यायुषम्, इति दक्षिणबाहुमूले ।
ॐ तन्नो अस्तु त्र्यायुषम्, इति हृदि । -३.६२


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