यज्ञ का ज्ञान विज्ञान

अग्निहोत्र से शरीर ही नहीं, मन का भी उपचार

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वनौषधियों के पंचांग को कूटकर खाने में उसे बडी़ मात्रा में निगलना कठिन पड़ता हैं। यही स्थिति ताजी स्थिति में कल्क बनाकर पीने में उत्पन्न होती है। इससे तो गोली या वाटिका बना कर सेवन करने में मनुष्य को कम कठिनाई अनुभव होती है। सूखी स्थिति से भी क्वाथ अर्क, आसव, अरिष्ट अधिक सुविधा जनक रहते हैं और प्रभावी भी होते हैं। ठोस और द्रव की उपरोक्त दोनों विधाओं से बढ़कर वाष्पीकृत औषधि की प्रभाव क्षमता अधिक व्यापक एवं गहरी होती है। नशा करने वाले मुँह से भी गोली या मादक द्रव्य लेते हैं व अपनी नसों में भी इन्जेक्शन लगाते हैं, पर इससे भी अधिक तीव्र व शीघ्र नशा उन्हें नाक से सूंघी हुई औषधि या रोगों में जिन तत्त्वों की कमी पड़ जाती हैं, उन्हें धूम्र में से आसानी से खींच लिया जाता है। साथ ही प्रश्वास द्वारा भीतर घुसी अवांछनीयता को बाहर धकेल कर सफाई का आवश्यक प्रयोजन पूरा कर लिया जाता है। बहुमुखी संतुलन बिठाने का माध्यम हर प्रकार की विकृतियों का निराकरण करने में असंदिग्ध रूप में सफल होता है
           अग्निहोत्र उपचार एक प्रकार की समूह चिकित्सा है, जिससे एक ही प्रकृति की विकृति वाले विभिन्न रोगी लाभान्वित हो सकते हैं। यह सुनिश्चित रूप में त्वरित लाभ पहुँचाने वाली, सबसे सुगम एवं सस्ती उपचार पद्धति है। जब वाष्पीभूत होने वाले औषध तत्वों को साँस के साथ घोल दिया जाता हैं तो रक्तवाही संस्थान के रास्ते ही नहीं, कण- कण तक पहुँचने वाले औषध तत्त्वों को सआँस के साथ घोल दिया जाता हैं तो रक्तवाही संस्थान के रास्ते ही नहीं, कण- कण तक पहुँचने वाले वायु संचार के रूप में भी वहाँ जा पहुँचता है, जहाँ उसकी आवश्यकता है।
           यह बहुविदित तथ्य है कि हाइपॉक्सिया (कॉमा) के रोगी को अथवा वेण्टीलेशन में व्यतिक्रम आने पर, साँस लेने में कठिनाई उत्पन्न होने पर नलिका द्वारा नाक से ऑक्सीजन पहुँचाई जाती है। किन्तु इस आक्सीजन को शुद्ध रूप में नहीं दिया जाता, इसमें कार्बन डायऑक्साइड की लगभग पाँच प्रतिशत मात्रा का भी एक संतुलित अंश रहता है, ताकि मस्तिष्क के केन्द्रों को उत्तेजित कर श्वसन प्रक्रिया नियमित बनायी जा सके। अग्निहोत्र में उत्पन्न वायु ऊर्जा में भी यही अनुपात गैसों के सम्मिश्रण का रहता है। विशिष्ट समिधाओं के प्रयुक्त स्तर का बना देती है। किन समिधाओं व किन वनौषधियों की कितनी मात्रा ऊर्जा उत्पन्न करने हेतु प्रयुक्त की जाय, यह इस विधा के विशेषज्ञ जानते हैं एवं तदनुसार परिवर्तन करते रहते हैं।
           शारीरिक रोगों एवं मनोविकारों से उत्पन्न विपन्नता से छुटकारा पाने के लिये अग्निहोत्र से बढ़कर अन्य कोई उपयुक्त उपचार पद्धति है नहीं, यह सब सुनिश्चित होता जा रहा है। जिस गम्भीरता एवं मनोयोग से वर्तमान शोध प्रयत्न चल रहा है, उसे देखते हुए लगता है कि निकट भविष्य में निश्चित ही एक ऐसी सर्वाङ्गपूर्ण चिकित्सा पद्धति का विकास हो सकेगा जो प्रचलित सभी उपचार पद्धतियों को पीछे छोड़कर अपनी विशिष्टता क्षेत्र की सभी विकृतियों के निराकरण की पूरी- पूरी सम्भावना है। ऐसी दशा में यज्ञोपचार पद्धति का प्रादुर्भाव मानवी भविष्य के लिए एक अभिनव उपलब्धि होगी।

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