यज्ञ का ज्ञान विज्ञान

प्राणायामः

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कमर सीधी, बायाँ हाथ मुड़ा हुआ, हथेली चौड़ी, दाहिने हाथ की कोहिनी बायें हाथ की हथेली पर बीचो−बीच,चारों अँगुलियाँ बन्द ।।

अँगूठे से दाहिने नथुने को बन्द करके, बायें नथुने से धीरे- धीरे पूरी साँस खींचना- यह पूरक हुआ ।।

साँस को भीतर रोकना, दायें हाथ की तर्जनी और मध्यमा अँगुलियों से बायाँ नथुना भी बन्द कर लेना, अर्थात्दोनों नथुने बन्द ।। यह अन्तः कुम्भक हुआ ।।

अँगूठा हटाकर दाहिना नथुना खोल देना, उसमें से साँस को धीरे- धीरे बाहर निकलने देना, यह रेचक हुआ ।।

इसके बाद कुछ समय साँस बाहर रोक देना चाहिए ।। बिना साँस के रहना चाहिए, इसे बाह्यकुम्भक कहते हैं ।।

इन चार क्रियाओं को करने में एक प्राणायाम पूरा होता है ।। यह क्रिया कठिन लगे, तो दोनों हाथ गोद में रखतेहुए दोनों नथुनों से श्वास लेते हुए पूरक, कुम्भक, रेचक का क्रम नीचे लिखी भावनानुसार पूरा करें ।।

श्वास खींचने के साथ भावना करनी चाहिए कि संसार में व्याप्त प्राणशक्ति और श्रेष्ठता के तत्त्वों को श्वास द्वाराखींच रहे हैं ।। श्वास रोकते समय भावना करनी चाहिए कि वह प्राणशक्ति, दिव्यशक्ति तथा श्रेष्ठता अपने रोम- रोम में प्रवेश करके उसी में रम रही है ।। जैसे मिट्टी पर जल डालने से वह उसे सोख लेती है, उसी तरह शरीरऔर मन ने प्राणायाम की श्वास जो भीतर पहुँची है, उसकी समस्त श्रेष्ठता को अपने में सोख लिया है ।। श्वासछोड़ते समय यह भावना करनी चाहिए कि जितने भी दुर्गुण अपने में थे, वे साथ निकल कर बाहर चले गये ।। इसके उपरान्त कुछ समय बिना श्वास ग्रहण किये रहना चाहिए और भावना करनी चाहिए कि निकलते हुए दोष-दुर्गुणों को सदा के लिए बहिष्कृत कर दिया गया और उनको पुनः वापस न आने देने के लिए दरवाजा बन्द करदिया गया ।।

मन्त्रोच्चार दूसरे लोग करते रहें ।। याज्ञिक केवल प्राणायाम विधान पूरा करें ।। यह प्राणायाम अपने भीतरशरीरबल, मनोबल और आत्मबल की वृद्धि के लिए है ।। दोष- दुर्गुणों के निवारण, निष्कासन के लिए उन्हींभावनाओं के साथ उसे करना चाहिए ।।

ॐ भूः ॐ भुवः ॐ स्वः ॐ महः, ॐ जनः ॐ तपः ॐ सत्यम् ।। ॐ तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि ।। धियो यो नः प्रचोदयात् ।। ॐ आपोज्योतीरसोऽमृतं, ब्रह्म भूर्भुवः स्वः ॐ ।। -तै०आ० १०.२७

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