यज्ञ का ज्ञान विज्ञान

सकाम यज्ञों का रहस्य मय विज्ञान

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प्राचीन काल में यज्ञ एक महत्वपूर्ण विज्ञान के रूप में प्रचलित था, जो आज हमें प्राप्त नहीं है । राजा नहुष यज्ञों द्वारा ही इन्द्रासन का अधिकारी बना था । शृंङ्गी ऋषि ने राजा दशरथ का पुत्रेष्टि यज्ञ कराया था और उसी के प्रभाव से राम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न, उत्पन्न हुए थे । राक्षसों के उत्पातों से दुखी होकर उन्हें समूल नष्ट करने के लिए विश्वामित्र ऋषि ने एक विशाल यज्ञ-आयोजन किया था । राक्षस लोग अपनी प्राण-रक्षार्थ उस यज्ञ को नष्ट करने के लिए जी-जान से प्रयत्न कर रहे थे । इसी यज्ञ की रक्षा के लिए विश्वामित्र जी राम और लक्ष्मण को ले गये थे ।

जब लंका पर राम ने चढ़ाई की और राक्षसों को यह लगा कि हमारी पराजय होने जा रही है, तो उन्होंने भी एक प्रचण्ड तांत्रिक यज्ञ रचा था, यदि वह सफल हो जाता तो रावण आदि का उस लड़ाई में पराजित होना सम्भव न होता । वानरों ने उस मख को जान हथेली पर रखकर विध्संक किया था । राजा बलि ने इतने यज्ञ किये थे कि वह अपने समय का सर्वोपरि शक्तिवान व्यक्ति बन गया था । यदि उसके एक-दो यज्ञ और हो जाते तो फिर राक्षस-वर्ग की प्रभुता संसार पर अनिश्चित काल के लिए स्थिर हो जाती और विश्व में हाहाकार मच जाता । इस संकट से रक्षा करने के लिए भगवान् को छल तक का आश्रय लेना पड़ा । वामन-रूप बनकर उन्होंने बलि को छला और उसके असफलत बनाकर असुरों का प्रभुत्व स्थापित होने से बचाया ।

राजा जन्मेजय ने अपने पिता परीक्षित का बदला नागों से चुकाने के लिए नाग यज्ञ किया था । इसमें मन्त्रों की आकर्षण शक्ति से असंख्यों नाग आकाश मार्ग से खिचें चले आये थे और यज्ञकुण्ड में अपने-आप आहुति रूप में गिरते थे । इस यज्ञ से अपने प्राण रक्षा के लिए वासुकी इन्द्रासन से जा लिपटा था, जब इन्द्र भी वासुकी के साथ-साथ कुण्ड में गिरने के लिए मन्त्र बल से खिंचने लगा, तब कहीं वह नागयज्ञ समाप्त हो गया ।

राजा द्रुपद ने द्रोणाचार्य को मारने के लिए एक ऐसे बलिष्ठ पुत्र की कामना की थी, जो उनसे अधिक बलवान तथा शस्त्र विद्या का ज्ञाता हो । ऐसा पुत्र प्राप्त करने के लिए उन्होंने यज्ञ कराया । यज्ञ के अन्त में जब पुत्रोत्पादक पुरोडाश (खीर) बन कर तैयार हुई और जो अत्यन्त स्वल्प काल उसे खाने के लिए नियत था, उस समय दुर्भाग्य वश रानी झूठे मुँह थी । मुहूर्त्त व्यतीत होता देख यज्ञ-कर्त्ता ने उस खीर को यज्ञकुण्ड में ही पटक दिया । उसी समय धृष्टद्युम्न और द्रौपदी यज्ञकुण्ड में से निकले और अन्त में उन्हीं से द्रोणाचार्य की मृत्यु हुई ।

इस प्रकार की असंख्यों घटनाएँ प्रत्येक इतिहास-पुराण में भरी पड़ी हैं । स्वयं भगवान ने अपने चौबीस अवतारों में एक अवतार ''यज्ञ-पुरुष'' का धारण किया है । यज्ञों की महिमा का कोई अन्त नहीं । इस युग में जिस प्रकार विभिन्न प्रकार की शक्तियाँ भाप, कोयला, अग्नि, पेट्रोल, बिजली, जल, पवन, एटम आदि के द्वारा उत्पन्न की जाती हैं, उसी प्रकार प्राचीन काल यज्ञकुण्डों और वेदियों में अनेकों रहस्यमय मन्त्रों एवं विधानों द्वारा उत्पन्न की जाती थीं ।

इस समय अनेक प्रकार की मशीनें अनेक कार्य करती हैं, उस समय मन्त्रों और यज्ञों के संयोग से ऐसी शक्तियों का आविर्भाव होता था, जिनमें बिना किसी मशीन के मनुष्य सब कुछ कर सकता था, इसको ऋद्धि-सिद्धियाँ कहते थे । देवता और असुर दोनों ही दल इन शक्तियों को अधिकाधिक मात्रा में प्राप्त करने के लिए निरन्तर प्रयत्नशील रहते थे ।

इस प्रकार के सकाम यज्ञों के अगणित प्रयोग शास्त्रों में भरे पड़े हैं, जिनका विस्तृत विधान एवं रहस्मय विज्ञान हैं, जिनकी पूरी जानकारी उपलब्ध नहीं है । जिस प्रकार प्राचीन काल में विशाल भवनों के खण्डहर अब भी जहाँ-तहाँ मिलते हैं और उसी से उस भूतकाल की महत्ता का अनुमान लगता है, उसी प्रकार यज्ञ-विद्या की अस्त-व्यस्त जानकारियाँ जहा-तहाँ क्षत-विक्षत रूप में प्राप्त होती हैं । अनेक प्रकार के अलग-अलग विधान मिलकर एक स्थान में एकत्रित हो गये हैं और गाय-घोड़े हुए हैं ।

आज ऐसी ही अस्त-व्यस्त यज्ञ-पद्धतियाँ दृष्टिगोचर होती हैं । इनका संशोधन करना, और यथावत् उन विशिष्ट पद्धतियों को अलग-अलग करके उसकी सर्वाङ्गपूर्ण स्थापना भूतकाल की भाँति करना एक ऐसा कार्य है, जो प्राचीन भारतीय विद्याओं की गुप्त शक्तियों के अन्वेषण में रुचि रखने वाले व्यक्तियों को पूरी तत्परता के साथकरना है । इस शोध की जिम्मेदारी ऐसी है, जिसे पूरा करके ही हम ऋषि-ऋण से उऋण हो सकते हैं ।

    
जिस प्रकार गायत्री-विद्या की सर्वाङ्ग पूर्ण शोध के लिए वर्षों से निरन्तर कार्य किया गया है, उसी प्रकार अब यज्ञ विद्या की शोध एवं सुव्यवस्था का कार्य हाथ में लिया गया है । इस विद्या की समुचित खोज होने पर भारतीय सूक्ष्म चैतन्य विज्ञान, पाश्चात्य स्थूल जड़-विज्ञान की तुलना में अपना महान गौरव पुनः प्रतिष्ठापित कर सकता है । यज्ञ विद्या की सहायता से मानव-जीवन के अनेकों कष्ट एवं अभाव दूर हो सकते हैं ।

वेद मन्त्रों में तीन रहस्य हैं- (1) उनकी भाषा का शिक्षात्मक स्थूल अर्थ (2) उनके उच्चारण से उत्पन्न होने वाली शब्द-शक्ति का सूक्ष्म प्रभाव (3)उनमें सन्निहित शक्ति का यज्ञ आदि विशेष विधि-विधानों के साथ उपयोग होने से उत्पन्न होने वाली प्रचण्ड शक्ति । आजकल लोग केवल मन्त्रों की शब्दावली का शिक्षात्मक अर्थ ही समझते हैं, किन्तु वस्तुतः प्रत्येक वेद-मन्त्र अपने गर्भ में महान विज्ञानमयी प्रचण्ड शक्तियों का भण्डार छिपाये बैठा है । जो तत्वदर्शी ऋषि इन मंत्रों की शक्ति से परिचित हैं, वे आगम और निगम सबके पारदर्शी हो जाते हैं ।

विविध प्रकार के यज्ञ विभिन्न वेद-मन्त्रों से होते हैं । उनका विधान ब्राह्मण-ग्रंथों तथा सूत्र ग्रन्थों में दिया हुआ है । अनुभवी याज्ञिक लोग परम्परागत ज्ञान के आधार पर भी उन विधानों को जानते हैं । ऐसे विधानों का वर्णन इन पंक्तियों में नहीं हो रहा है । उनकी एवं जानकारियाँ तो धीरे-धीरे उपस्थित की जाती रहेंगी । इस समय तो गायत्री महामन्त्र तथा उससे सम्बन्धित देव-गायत्रियों के द्वारा होने वाले कुछ हवनों का उल्लेख किया जा रहा है । गायत्री महामन्त्र के अन्तर्गत 24 देव- शक्तियों की अन्तः गायत्री हैं । इन अन्तः गायत्रियों का भी उपयोग होता है ।

देव- गायत्रियों द्वारा सकता यज्ञों का सर्वाङ्गपूर्ण सुनिश्चित विधान, जब तक उपलब्ध न हो, तब तक अपूर्ण प्रयोगों से भी बहुत हद तक लाभ उठाया जा सकता है । नीचे कुछ ऐसे ही प्रयोग दिये जा रहे हैं, जो यद्यपि अपूर्ण हैं, फिर भी इनके द्वारा अनेक बार आशाजनक परिणाम उपस्थित होते देखे गये हैं ।

देव-गायत्रियों को स्वाहाकार के साथ कुछ विशेष प्रयोजनों में अमुक हवन सामग्रियों तथा अमुक समिधाओं का वर्णन है । यह प्रयोग बहुत सरल दिखते हैं, पर वस्तुतः यह उतने सरल नहीं हैं । किसी व्यक्ति को, किस प्रयोजन के लिये , किस स्थिति में, होम करना है, उसे उसी के अनुसार अमुक मुहूर्त में, अमुक नियम पालन करते हुए, अमुक मन्त्रों द्वारा, अमुक वृक्ष के अमुक भाग की, अमुक प्रकार की समिधाएँ लानी होती हैं ओर उनको विशेष मार्जनों, सिंचनों, अभिषेकों के साथ परिशोधन, शक्ति-वर्धन, प्रमाणीकरण किया जाता है । तब वे समिधाएँ अपना प्रयोजन भली प्रकार पूर्ण करती हैं ।

इसी प्रकार जो हवन-सामग्री इसमें लिखी हुई हैं, वे देखने में बहुत सुलभ हैं, पर उनके पौधों को बोने, सींचने, तोड़ने, परिमार्जित करने, सुखाने आदि के विशेष विधान हैं । दूध, दही, घृत आदि का जहाँ वर्णन है, वहाँ गौ, भैंस, बकरी आदि अमुक जाति के पशु को अमुक प्रकार का ही आहार कराना, अमुक स्थानों को जल पिलाना, अमुक मन्त्रों से दूध दुहना, उसे अमुक प्रकार की अग्नि से गर्म करना, अमुक वस्तु के बने हुए पात्र में दही जमाना, अमुक काष्ठ की रई से अमुक मन्त्र बोलते हुए दधि-मंथन करके घी निकालना आदि का विस्तृत विधान छिपा हुआ है ।

हवन करने के दिनों में जो तपश्चर्याएँ करनी पड़ती हैं, उनके नियम भी अलग-अलग हैं । इन सब विधानों के द्वारा ये साधारण समिधाएँ हवन सामाग्रियाँ एवं विधियाँ भी विशिष्ट महत्वपूर्ण बन जाती हैं । उन विधिवों एवं नियमों में देश,काल पात्र के अनुसार कुछ हेर फेर करने पड़ते हैं । इस प्रकार कीजानकारियाँ धीरे धीरे संग्रह हो रही हैं । और समयानुसार उनको छापा भी जायेगा ।

जब तक वैसी सर्वाङ्गपूर्ण जानकारी उपलब्ध न हो, तब तक साधारण रीति से भी नीचे लिखी हुई वस्तुएँ निर्धारित देवगायत्रियों के साथ हवन किये जायँ तो भी उसका परिणाम निश्चित रूप से अच्छा ही होगा । हानि की तो इसमें कोई सम्भावना है ही नहीं ।

(यज्ञ का ज्ञान-विज्ञान पृ.3.28-29)


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