यज्ञ का ज्ञान विज्ञान

यज्ञ का ज्ञान विज्ञान

<<   |   <  | |   >   |   >>
इस समग्र सृष्टि के क्रियाकलाप '' यज्ञ' रूपी धुरी के चारों ओर ही चल रहें हैं ।। ऋषियों ने ''अयं यज्ञो विश्वस्य भुवनस्य नाभिः'' (अथर्ववेद ९. १५. १४) कहकर यज्ञ को भुवन की- इस जगती की सृष्टि का आधार बिन्दु कहा है ।। स्वयं गीताकार योगिराज श्रीकृष्ण ने कहा है-

सहयज्ञाः प्रजाः सृष्टा पुरोवाच प्रजापतिः ।। अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्तविष्ट कामधुक्

अर्थात- ''प्रजापति ब्रह्मा ने कल्प के आदि में यज्ञ सहित प्रजाओं को रचकर उनसे कहा कि तुम लोग इस यज्ञ कर्म के द्वारा वृद्धि को प्राप्त होओ और यह यज्ञ तुम लोगों को इच्छित भोग प्रदान करने वाला हो ।'' यज्ञ भारतीय संस्कृति के मनीषी ऋषिगणों द्वारा सारी वसुन्धरा को दी गयी ऐसी महत्त्वपूर्ण देन है, जिसे सर्वाधिक फलदायी एवं पर्यावरण केन्द्र इको सिस्टम के ठीक बने रहने का आधार माना जा सकता है ।।

गायत्री यज्ञों की लुप्त होती चली जा रही परम्परा और उसके स्थान पर पौराणिक आधार पर चले आ रहे वैदिकी के मूल स्वर को पृष्ठभूमि में रखकर मात्र माहात्म्य परक यज्ञों की शृंखला को पूज्यवर ने तोड़ा तथा गायत्री महामंत्र की शक्ति के माध्यम से सम्पन्न यज्ञ के मूल मर्म को जन- जन के मन में उतारा ।। यह इस युग की क्रान्ति है ।। इसे गुरु गोरखनाथ द्वारा तंत्र साधना का दुरुपयोग करने वालों- यज्ञों को मूर्खों- तांत्रिक यज्ञों के स्तर पर ही प्रयोग करने वालों के विरुद्ध की गयी क्रांति के स्तर से भी अत्यधिक ऊँचे स्तर की क्रांति माना जा सकता है कि आज घर- घर गायत्री यज्ञ संपन्न हो रहे हैं व सतयुग की वापसी का वातावरण स्वतः बनता चला जा रहा है ।।

यज्ञ शब्द के अर्थ को समझाते हुए परमपूज्य गुरुदेव समग्र जीवन को यज्ञमय बना लेने को ही वास्तविक यज्ञ कहते हैं ।। ''यज्ञार्थ् कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः' के गीता वाक्य के अनुसार वे लिखते हैं कि यज्ञीय जीवन जीकर किये गये कर्मों वाला जीवन ही श्रेष्ठतम जीवन है ।। इसके अलावा किये गये सभी कर्म बंधन का कारण बनते हैं व जीवात्मा की परमात्म सत्ता से एकाकार होने की प्रक्रिया में बाधक सिद्ध होते हैं ।। यज्ञ शब्द मात्र स्वाहा- मंत्रों के माध्यम से आहुति दिये जाने के परिप्रेक्ष्य में नहीं किया जाना चाहिए, यह स्पष्ट करते हुए उनने इसमें लिखा है कि यज्ञीय जीवन से हमारा आशय है- परिष्कृत देवोपम व्यक्तित्व ।। वास्तविक देव पूजन यही है कि व्यक्ति अपने अंतः में निहित देव शक्तियों को यथोचित सम्मान देते हुए उन्हें निरन्तर बढ़ाता चले ।। महायज्ञैश्च यज्ञैश्च ब्राह्मीयं क्रियते तनुः की मनुस्मृति की उक्ति के अनुसार सर्वश्रेष्ठ यज्ञ वह है, जिससे व्यक्ति ब्रह्ममय- ब्राह्मणत्व भरा देवोपम जीवन जीते हुए स्वयं- को अपने शरीर, मन, अन्तःकरण को परिष्कृत करता हुआ चला जाता है ।।

यज्ञ परमार्थ प्रयोजन के लिए किया गया एक उच्चस्तरीय पुरुषार्थ है ।। अन्तर्जगत् में दिव्यता का समावेश कर प्राण की अपान में अपना की प्राण में आहुति देकर जीवन रूपी समाधि को समाज रूपी यज्ञ में होम करना ही वास्तविक यज्ञ है ।। भावनाओं में यदि सत्प्रवृत्ति का समावेश होता चला जाय तो यही वास्तविक यज्ञ है ।। युग ऋषि ने यज्ञ की ऐसी विलक्षण परिभाषा कर वैदिक वाङ्मयं के मूलभूत स्वर को ही गुंजायमान किया है ।। यज् धातु से बना यज्ञ देवपूजन, परमार्थ के बाद तीसरे अंतिम अर्थ 'संगतिकरण' सज्जनों के संगठन, राष्ट्र को समर्थ सशक्त बनाने वाली सत्ताओं के एकीकरण के अर्थ परिभाषित करता है ।।

चौबीस अवतारों में एक अवतार यज्ञ भगवान भी है ।। यज्ञ हमारी संस्कृति का आराध्य इष्ट रहा है तथा यज्ञ के बिना हमारे किसी दैनन्दिन क्रिया कलाप की कल्पना तक नहीं की जा सकती ।। यज्ञ का विज्ञान पक्ष समझाते हुए पूज्यवर ने बताया है कि सारी सृष्टि की सुव्यवस्था बनाये रखने के लिए यज्ञ कितनी महत्त्वपूर्ण है ।। देव तत्त्वों की तुष्टि से अर्थ है- सृष्टि संतुलन बनाये रखने वाली शक्तियों का पारस्परिक संतुलन ।। यज्ञ एक प्रकार की टैक्स है- कर है -देव सत्ताओं के प्रति इसे न देने पर जैसे राज्य- प्रशासन, जन समुदाय को दण्डित करता है, उसी प्रकार विभीषिकाएँ भिन्न- भिन्न रूपों में आकर सारी जगती पर अपना प्रकोप मचा देती है ।। दैवी प्रकोपों से बचने का वैज्ञानिक आधार है- यज्ञ ।।

अपने इस प्रतिपादन की पुष्टि में परमपूज्य गुरुदेव ने यज्ञ की महिमा का वेदों में, उपनिषदों में, गीता में, रामायण में, श्रीमद्भागवत में, महाभारत में, पुराणों में, गुरु ग्रन्थ साहब आदि में कहाँ- कहाँ किस प्रकार वर्णन किया गया है- यह प्रमाण सहित विस्तार से इस खण्ड में दिया है ।। यज्ञ मात्र समस्त कामनाओं की पूर्ति का ही मार्ग नहीं है ।। ''यज्ञोऽयं सर्वकामधुक्'' अपितु जीवन जीने की एक श्रेष्ठतम विज्ञानसम्मत पद्धति है, यह जानने- समझने के बाद किसी भी प्रकार का संशय किसी के मन में भारतीय संस्कृति की अनादि काल से मेरुदण्ड रही इस व्यवस्था के प्रति नहीं रह जाता ।।

<<   |   <  | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118