गौड़ देश में एक भावनाशील श्रमिक रहता था। जितना कमाता, उतना गुजारे में ही खरच हो जाता। दान−पुण्य के लिए कुछ न बचता। इससे वह दुखी रहने लगा। बिना परमार्थ किए परलोक में कैसे सद्गति मिलेगी। अपनी व्यथा उसने उस क्षेत्र के निवासी एक संत को सुनाई। उनने कहा, इस क्षेत्र में बहुत से तालाब हैं, पर वे समतल हो गए हैं। उनमें गहराई न रहने से पानी भी नहीं टिकता और प्यासे पशु−पक्षी अपनी प्यास बुझाने के लिए दूर−दूर तक जाते हैं। मनुष्यों को भी कम कष्ट नहीं होता। तुम इन तालाबों को जहाँ भी पाओ, वहीं अपना परिवार लेकर रहो और श्रमदान से तालाबों का जीर्णोद्धार करते रहो। जिस प्रकार नए मंदिर बनवाने की अपेक्षा पुरानों का जीर्णोद्धार श्रेष्ठ माना जाता है, बच्चे उत्पन्न करने की अपेक्षा रोगियों को सेवा प्रदान करना श्रेयस्कर हैं, उसी प्रकार तुम श्रमदान के आधार पर तालाबों का जीर्णोद्धार करो और उन्हीं के समीप वृक्ष भी लगाओ। किसान श्रमिक के पास अपनी श्रम−संपदा प्रचुर थी, उसी से वह निर्वाह के अतिरिक्त परमार्थ भी अर्जित करने लग गया और संत के परामर्शानुसार परम श्रेय का अधिकारी बना।