आ रहा है ‘योग‘ युग

February 2003

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योग की परंपरा अत्यंत प्राचीन है। यह प्राचीन भारत की बहुमूल्य संपत्ति रही है। समस्त ज्ञान−विज्ञान की धाराएँ इसी परंपरा की परिणाम हैं। योग ऐसी महाशक्तियों का आगार है, जिससे शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक एवं आध्यात्मिक आदि सभी प्रकार की शक्तियों का विकास होता है तथा सुख शाँति एवं स्वास्थ्य के अन्वेषण में सफलता मिलती है। इसी कारण आज विश्वमानव शाँति एवं स्वास्थ्य की खोज में योग का आश्रय ले रहा है। अतः आज के युग को विज्ञान युग की भाँति ‘योग‘ युग कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।

शाब्दिक अर्थों में देखा जाए तो ‘योग‘ शब्द ‘युज्’ धातु से बना है। संस्कृत में दो ‘युज्’ धातुओं का उल्लेख हुआ है। इनमें एक का अर्थ जोड़ना या संयोजित करना, सम्मिलित होना अथवा एक होना है तथा दूसरे का समाधिमनः स्थिरता है अर्थात् सामान्य रूप से योग का अर्थ जीवात्मा तथा परमात्मा का एकीकरण है। मानवीय चेतना का भगवत् चेतना में मिल जाना ही ‘योग‘ है। योग से परब्रह्म के साथ एकात्मता स्थापित करने का अवसर मिलता है। गीता ने समत्व और कर्म की कुशलता को योग कहा है। गीता के अनुसार हमारे जीवन में जो दुःख का संयोग है, उसका वियोग ही योग है अर्थात् दुःख के संयोग का वियोग ही योग है। पतंजलि के अनुसार चित्तवृत्तियों का निरोध ही योग है। पतंजलि की परिभाषाओं में शाब्दिक भेद होने के बावजूद भावार्थ की समानता है, क्योंकि पातंजल योग के अनुसार जब चित्तवृत्तियों का निरोध हो जाता है, तो साधक को प्रकृति और पुरुष का भेदज्ञान हो जाता है। इस ज्ञान से वह समस्त दुःखों से रहित हो जाता है अर्थात् दुःखों से वियोग हो जाता है।

योग का सामान्य अर्थ युक्ति है। इसी अर्थ के अनुसार योगवासिष्ठ में योग शब्द का अर्थ संसार सागर के पार होने की युक्ति बताया गया है। योगी याज्ञवल्क्य ने भी कुछ इसी प्रकार की व्याख्या की है। वे कहते हैं कि जीवात्मा और परमात्मा का समान रूपात्मक संयोग ही योग है। यहाँ पर समान रूपात्मक का अर्थ है कि जीवात्मा परमात्मा के समान होकर उसमें समर्पित हो जाए। जैनाचार्यों के अनुसार जिन−जिन साधनों से आत्मा की सिद्धि और मोक्ष का योग होता है, उन सब साधनों को योग कहते हैं। युगऋषि गुरुदेव योग को जीवन−साधना के रूप में स्वीकार करते हैं।

अपने मूल स्वरूप में योग मुख्यतः तत्त्वानुभूति, मनोनिर्वाण, शाँति एवं आनंदानुभूति का उपाय है। वस्तुतः भारतीय योगी दार्शनिक तत्त्वज्ञान के उपराँत तत्त्वानुभूति के लिए तत्पर व तैयार रहते थे। वे केवल कोरे तत्त्वज्ञान से संतुष्ट नहीं रहते थे, बल्कि उसकी अनुभूति के लिए उपाय और साधन भी जुटाते थे। भारतीय ऋषियों ने ज्ञान की अनुभूति के इस साधन को विज्ञान कहा है। इस प्रकार प्राचीन भारत में ज्ञान और विज्ञान की दो धाराएँ प्रवाहित हुई। इस संदर्भ में आदिगुरु शंकराचार्य ने स्पष्ट किया है कि ज्ञान का तात्पर्य है—शास्त्रों से या आचार्यों से आत्मा आदि पदार्थों का ज्ञान प्राप्त करना और विज्ञान का अर्थ है—इन ज्ञान पदार्थों का उसी रूप में स्वयं अनुभव करना। इस प्रकार की अनुभूति सदा आनंदमय मानी गई है। ऋषियों ने इसी अनुभूति के लिए योग विज्ञान का आविष्कार किया था। आचार्य शंकर के शब्दों में अनुभवयुक्त ज्ञान ही विज्ञान सहित ज्ञान है। गीता में विज्ञान सहित गुह्यतम ज्ञान को मोक्ष का साधन बताया गया है। वेदाँत परंपरा में योग को स्वानुभूति का प्रमुख साधन माना गया है। इसके अतिरिक्त वैदिक साहित्य में योग शब्द का प्रयोग तत्त्वानुभूति की स्थिति (साध्य) तथा उसके साधन, दोनों अर्थों में किया गया है। इस तरह प्राचीन भारतीय योग−परंपरा का लक्ष्य केवल ज्ञानप्राप्ति का ही नहीं, विज्ञान प्राप्ति का भी है।

प्राचीन साहित्य में सर्वप्रथम ऋग्वेद में ‘योग‘ शब्द मिलता है। इस प्रकार वैदिक काल से ही योग परंपरा आरंभ हो गई थी, जिसे योगमाया नाम से प्रयोग किया गया है। ऋग्वेद में योग सिद्धि के लिए परमात्मा से प्रार्थना की गई है। यहाँ पर योग शब्द कई बार प्रयुक्त होकर जोड़ना या मिलाना अर्थ को रेखाँकित करता है, जो योग की विद्यमानता का ही प्रमाण है। योग द्वारा ज्ञानप्राप्ति के संदर्भ में यजुर्वेद में उल्लेख मिलता है कि हम सभी लोग योग द्वारा समाहित स्थिरचित्त से सर्वोत्पादक परमदेव परमेश्वर के उत्पादित जगत में अपनी शक्ति से उत्पन्न सुख−लाभ के लिए उस परमज्ञान को प्राप्त करें। यजुर्वेद में योगाभ्यास का वर्णन मिलता है। सामवेद के कई मंत्रों में योग का संकेत मिलता है। अथर्ववेद में योग को मुक्ति का साधन माना गया है। योगी पुरुषों की तपस्या की सफलता की कामना की गई है। अथर्ववेद में मोक्ष मार्ग का उपदेश देने का उल्लेख मिलता है। इस प्रकार वेदों के मंत्रों से स्पष्ट हो जाता है कि वेदों में योग निरूपण, योग के पारिभाषिक शब्दों में क्रमबद्धता का थोड़ा अभाव होने के बावजूद भी उसमें मंत्र वाक्यों, प्राकृतिक वस्तुओं तथा प्रतीकों के आधार पर योग का वर्णन मिलता है। यह अवश्य ही योग के अस्तित्व का सूचक है। ऋषि योगी होते थे। इन अर्थों में देखा जाए तो योग−परंपरा का विकास वैदिक काल में दिखाई देता है, जो कि ऋग्वैदिक काल से भी कहीं अधिक प्राचीन है। योग−परंपरा के बीज अगर भारत के चिरप्राचीन प्राक् ऐतिहासिक युग में न छिपे होते तो इनका प्रस्फुटन एवं पल्लवन प्रारंभिक वैदिक युग में देखने को न मिल पाता।

इतिहासवेत्ता जॉन मार्शल ने सिंधु घाटी सभ्यता के पुरावशेषों में किन्हीं योगी की मूर्ति के मिलने की बात स्वीकारी है। उनके अनुसार इस मूर्ति में विशेष मुद्रा पर त्रिशूल, मुकुट, विन्यास, नग्नता, कायोत्सर्ग मुद्रा, योगचर्या, बैल का चिह्न आदि का समावेश है, जिससे सिद्ध होता है कि वह मूर्ति किसी योगी की ही है। वी0 एन0 लुनियाँ के मतानुसार इस तरह के कुछ अन्य योग−प्रतीक वहाँ पाई गई मुहरों, मुद्राओं में भी देखने को मिले हैं। इन मुहरों का उल्लेख करते हुए लुनियाँ कहते हैं कि चीनी मिट्टी से बनी एक मुहर पर योगासीन व्यक्ति अंकित है। उसके दोनों ओर एक−एक नाग और सामने दो नाग बैठे हुए हैं। डॉ0 राधाकुमुद मुखर्जी की मान्यता है कि सिंधु घाटी सभ्यता में ध्यान अथवा योग के अभ्यास करने वाले व्यक्तियों की सत्ता के पुरातात्त्विक एवं असंदिग्ध प्रमाण दृष्टिगोचर होते हैं। सच तो यह है कि भारत में योग परंपरा का इतिहास जितना पुरातन है, उसका स्वरूप उतना ही विस्मयकारक है। योग−परंपरा का प्रारंभिक स्वरूप प्रतीकात्मक रहा है। इन प्रतीकों की उपनिषद् काल में विधिवत् व्याख्या की गई तथा इसकी साधना का विस्तृत वर्णन किया गया।

उपनिषदों में प्रयुक्त योग शब्द आध्यात्मिकता की ओर संकेत करता है, क्योंकि योग, ध्यान, तप आदि शब्द समाधि के ही अर्थ में प्रयोग हुए हैं। श्वेताश्वेतर उपनिषद् में योग एवं उसकी क्रियाओं का तथा परिणाम का विवेचन किया गया है, जो योग−परंपरा को स्पष्ट करता है। अमृत उपनिषद् में षडंग योग की चर्चा हुई है, जबकि कुछ उपनिषद् योग के नौ अंग मानते हैं। इस प्रकार योग परंपराएँ क्रमशः विकसित होती हुई स्वतंत्र अस्तित्व रखने लगी। सूत्रों, स्मृतियों और महाकाव्यों में इसके इस विकसित रूप का उल्लेख मिलता है। पातंजल योगसूत्र में योग के आठ अंगों का जिक्र मिलता है, जो वर्तमान योग का आधारभूत तत्त्व हैं। पतंजलि ने योग को महनीय स्वरूप प्रदान किया। मनुस्मृति में यम−नियम को गिनाया नहीं गया है, परंतु याज्ञवल्क्य स्मृति में दस यम और दस नियम का उल्लेख मिलता है। रामायण में योग के ही समानार्थक तप शब्द का संकेत मिलता है, जिससे परम लक्ष्य की प्राप्ति संभव है। महाभारत में योग की अक्षय निधि संचित है। इसमें प्रायः योग शब्द का प्रयोग उपाय के रूप में हुआ है।

ऐतिहासिक सत्य है कि योग की उर्वर भूमि भारत देश के चिरअतीत में प्रारंभ की गई। योग− परंपरा की बहती कालसरिता न तो कभी बंद हुई, न कभी मंद पड़ी। उत्तरोत्तर योग−परंपरा के विविध रूपों का विकास होता गया और इसका महत्व भी बढ़ने लगा। बौद्ध और जैन साहित्यों में भी इसकी छाप पड़ने लगी। भगवान बुद्ध के चार आर्य−सत्यों में योग−वर्णित चार व्यूहों− बंधनों का पत्य झिलमिलाने लगा। बौद्ध योग में बोधिसत्व की स्थिति प्राप्त करना परम लक्ष्य बताया गया है। जैन योग एक साधना पद्धति का नाम है। जैन योग अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रहरूपी पाँच व्रतों का वर्णन किया गया है, जिनका पालन करना महाव्रत कहलाता है। इस प्रकार बौद्ध−जैन साहित्य में योग की परंपरा समान रूप से विकसित होती है। शुँग, शक, कुषाण, गुप्त एवं पूर्व मध्ययुग में योग−परंपरा उन्नति के शिखर पर पहुँच गई। अष्टाँगहृदय, अष्टाँगसंग्रह तथा चरम संहिता में योग−सूत्रों की व्याख्या की गई है। इसमें पंचभूत सिद्धाँत का उल्लेख मिलता है। पुराणों में योगविषयक चर्चा विशद रूप में मिलती है। योगशास्त्र के इतिहास की दृष्टि से भागवत पुराण का स्थान औपनिषद् योग तथा पातंजल योग के बीच के काल में है। इसमें ज्ञानयोग, क्रियायोग तथा भक्तियोग, तीनों साधनों का वर्णन मिलता है। अग्नि पुराण में पद्मासन का तथा गरुड़पुराण में स्वस्तिकासन, पद्मासन, असित आदि की गणना है। विष्णु पुराण में प्राणायाम का उल्लेख मिलता है।

इसी काल (650−1200 ई0) में योग के क्षेत्र में कुछ आचार्यों ने योग संबंधी अन्य साहित्य की रचना की। वाचस्पति मिश्र ने ‘तत्त्ववैशारदी’ नामक ग्रंथ का प्रणयन किया, जो व्यास भाष्य पर टीका थी। विज्ञानभिक्षु ने ‘योगवार्तिक’ और ‘योगसार संग्रह’ के नाम से दो ग्रंथ लिखे। राघवानंद ने ‘पातंजल रहस्य’ नामक ग्रंथ का सृजन किया। भोज ने ‘राजमार्तंड’ लिखी। भावागणेश ने ‘वृत्ति’ नामक पुस्तक लिखी। रामनंदपति ने ‘मणिप्रभा’ नामक किताब लिखी। अनंतपंडित ने ‘योग चंद्रिका’ तथा सदाशिव सरस्वती ने ‘त्याग सुधाकर’ नामक ग्रंथ का निर्माण किया। नागोभट्ट ने भी इसी क्षेत्र में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया। इस काल में बहुत−सी योग संबंधी टीकाएँ लिखी गई।

कतिपय विद्वानों ने योग−परंपरा का केवल साँस्कृतिक दृष्टि से विचार किया है तथा इस कार्य में संलग्न रहे हैं, परंतु अभी भी इस कार्य के कई पहलू अपूर्ण एवं एकाँगी हैं। इन पर विशद−व्यापक एवं विस्तृत शोधपूर्ण कार्य की अपेक्षा एवं अनिवार्यता है, ताकि प्राचीन भारत के इतिहास एवं संस्कृति की प्रेरक−पथप्रदर्शक योग−परंपरा का सर्वांग स्वरूप विश्व दृष्टि के समक्ष उजागर एवं प्रकाशित हो सके। देवसंस्कृति विश्वविद्यालय के योग विभाग में इसके व्यापक अनुसंधान की व्यवस्था बनाई गई है, ताकि योग का समग्र स्वरूप विश्वमानस के समक्ष उजागर हो और योग के द्वारा साँस्कृतिक नवजागरण की संभावना साकार की जा सके।


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