भगवान की उपस्थिति (kahani)

February 2003

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पाँडव वनभ्रमण कर रहे थे कि उन्हें प्यास लगी। नकुल कुछ दूर पर बने तालाब से पानी लेने गए। तालाब पर यक्ष का आधिपत्य था। वह केवल उसी को जल लेने देता था, जो उसके प्रश्नों का उत्तर दे सकता था। यक्ष ने नकुल से कुछ प्रश्न पूछे, वे उसका उत्तर न दे सके, तो शाप से मूर्च्छित होकर गिर पड़े।

नकुल को न आया देखकर एक−एक करके सब पाँडव वहाँ गए और वे भी उसी प्रकार मूर्च्छित हो गए। अंत में युधिष्ठिर गए और उनने यक्ष का समाधान पूरे संतोष से किया। इस पर यक्ष ने एक भाई को जीवित करा लेने को कहा। युधिष्ठिर ने नकुल को जीवित करने की प्रार्थना की, क्योंकि भीम, अर्जुन तो उनकी संगी माँ के पुत्र थे। माद्री पुत्रों में से एक रहना आवश्यक था, ताकि माद्री को भी कुँती की तरह ही पुत्रवती रहने का सुख मिले। यक्ष तो स्वयं धर्मराज थे एवं परीक्षा हेतु यक्ष रूप में आए थे, उनकी उच्च भावना से बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने चारों को जीवित कर दिया।

“मैं तो इतने दिनों से भगवान की भक्ति कर रही हूँ”, एक स्त्री ने संत को बताया, “पर मुझे तो आज तक उन्होंने कभी स्वप्न में भी दर्शन नहीं दिया, आप कहते हैं कि वे आप से कभी अलग ही नहीं होते?” बात यह थी कि वह स्त्री भक्ति तो करती थी, पर अपने परिवार पड़ोसी और संबंधियों के साथ उसका व्यवहार बहुत रूखा एवं अहंकारपूर्ण था। घर वाले भी उसके आचार से दुखी थे।

संत बोले, “आज भगवान से पूछकर बताएँगे, आपसे क्यों नहीं मिलते?” दूसरे दिन स्त्री मिली, तो वह बोले, “भाई भगवान तुम पर नाराज हैं। कह रहे थे—वह हमारे बच्चों से लड़ती, मारती, पीटती और द्वेष रखती है, उससे मिलने का मन नहीं करता।” स्त्री समझ गई। उस दिन से उसने अपना व्यवहार मीठा बना लिया। फलस्वरूप दूसरे लोग उसे इतना प्यार और आदर देने लगे कि वह उस शाँति में ही भगवान की उपस्थिति अनुभव करने लगी।


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