राजगुरु का पद स्वीकार (kahani)

February 2003

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देव मंदिर का पुजारी भगवान की पूजा तो पूरे विधि−विधान से करता, किंतु सुबह−शाम पूजा करने के बाद बचे समय में वह स्वार्थ के वशीभूत हो, ऐसे कर्म करता जिससे भगवान के बनाए अन्य प्राणी दुःख पाते।

उनके अंतःकरण से एक दिन भगवान बोले, अरे मूर्ख सेवा कर, मेरी पूजा करने के बाद सेवा की इच्छा न हो, तो पूजा व्यर्थ है। पुजारी ने कहा, भगवान, मेरा मन तो आपकी पूजा में लगता है। लोगों की सेवा में नहीं। भीतर से आवाज आई, तू पगला है क्या मैं पत्थर की मूर्ति में ही हूँ। इन जीते−जागते प्राणियों में तुझे मेरा रूप नहीं दिखता? पुजारी को सच्चा ज्ञान हुआ कि सेवा ही पूजा की कसौटी है।

राजा जनक अपनी साज−सज्जा के साथ मिथिलापुरी के राज−पथ पर होकर गूजर रहे थे। उनकी सुविधा के लिए सारा रास्ता पथिकों से शून्य बनाने में राज्यकर्मचारी लगे थे। राजा की शोभायात्रा निकल जाने तक यात्रियों को अपने आवश्यक काम छोड़कर जहाँ−तहाँ रुका रहना पड़ रहा था।

अष्टावक्र को हटाया गया तो उनने हटने से इनकार कर दिया और कहा, “प्रजाजनों के आवश्यक कामों को रोककर अपनी सुविधा का प्रबंध करना राजा के लिए उचित नहीं। राजा अनीति करे तो ब्राह्मण का कर्त्तव्य है कि उसे रोके और समझाए। सो आप राज्याधिकारीगण राजा तक मेरा संदेश पहुँचा दें और कहें कि अष्टावक्र ने अनुपयुक्त आदेश मानने से इनकार कर दिया है। वे हटेंगे नहीं और राज−पथ पर ही चलेंगे।”

राज्याधिकारी कुपित हुए और अष्टावक्र को बंदी बनाकर राजा के पास ले पहुँचे। जनक ने सारा किस्सा सुना तो वे बहुत प्रभावित हुए और कहा, “ऐसे निर्भीक ब्राह्मण राष्ट्र की सच्ची संपत्ति हैं। उन्हें दंड नहीं, सम्मान दिया जाना चाहिए।”

राजा जनक ने अष्टावक्र से क्षमा माँगी और कहा, “मूर्खतापूर्ण आज्ञा चाहे राजा की ही क्यों न हो, तिरस्कार के योग्य है। आपकी निर्भीकता ने हमें अपनी गलती−समझने और सुधारने का अवसर दिया। आज से आप राजगुरु रहेंगे और निर्भीकता से सदा−न्याय−पक्ष का समर्थन करते रहने की कृपा करेंगे।” उन्होंने प्रार्थना स्वीकार कर जनहित हेतु राजगुरु का पद स्वीकार कर लिया।


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