गुरुवर! ऐसी शक्ति हमें दो, सच्चे शिष्य कहाएँ हम, नवयुग के इस नए सृजन में, सहयोगी बन जाएं हम।
हमने किया प्रचार अभी तक, नगर−गाँव−गलियारों में, यज्ञ और गायत्री पहुँचे, घर−आँगन−चौबारों में, यह था पहला चरण, बंदिनी माँ पहुँची संतानों तक, ऐसी दो सामर्थ्य कि पहुँचें हम अगले सोपानों तक,
महाकाल के महाकार्य के उपयोगी बन जाएँ हम। गुरुवर! ऐसी शक्ति हमें दो, सच्चे शिष्य कहाएँ हम।
ऐसी देना दृष्टि, न पल भर लक्ष्य आँख से ओझल हो, हर सूखी धरती पर झरता भावों का गंगाजल हो, ऐसी देना शक्ति कि साहस कभी नहीं चुकने पाए, देख विघ्न−अवरोध, पाँव की गति न कभी रुकने पाए,
कहीं सघन−शीतल अमराई देख, नहीं ललचाएँ हम। गुरुवर! ऐसी शक्ति हमें दो, सच्चे शिष्य कहाएँ हम।
ऐसा भरना भाव कि जग का मन कृतज्ञ बनता जाए, सारा जीवन बने साधना, कर्म यज्ञ बनता जाए, हम पदार्थ की आहुति से, सुख की आहुति देना सीखें, हम समाज के अगणित मनकों में हीरे जैसे दीखें,
प्रभु की अनुकंपा से सागर पर पत्थर तैराएँ हम। गुरुवर! ऐसी शक्ति हमें दो, सच्चे शिष्य कहाएँ हम।
गायत्री की शरणागति से कायाकल्प हमारा हो, मन का मंगलमय विचार अब, दृढ़ संकल्प हमारा हो, रोम−रोम में, मन−प्राणों में उसका तेज झलकता हो, वह चरित्र−चिंतन में बनकर स्वर्णिम सूर्य दमकता हो,
उसका सही स्वरूप मनुजता को साक्षात् दिखाएँ हम। गुरुवर! ऐसी शक्ति हमें दो, सच्चे शिष्य कहाएँ हम।
—शचीन्द्र भटनागर
*समाप्त*