तंत्र : एक समग्र विज्ञान

February 2003

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तंत्र क्या है? इस पर विचार करने से ज्ञात होता है कि इसमें वह शक्ति निहित है, जो अन्य उपायों से हस्तगत तो की जा सकती है, लेकिन वह पूर्णतः सात्विक होती है। तंत्र द्वारा उपार्जित शक्ति तामसिक होती है। जो तम को तक महत्व दे, वह तामसिक है। इस दृष्टि से विचार करने पर तंत्र एक ऐसी साधन−प्रणाली प्रतीत होती है, जिसमें पैशाचिक क्रियाओं द्वारा भौतिक शक्तियों को वशवर्ती कर कार्य की संसिद्धि की जाती है। इस प्रणाली में साधना−विधान की पवित्रता पर उतना जोर नहीं दिया जाता, जितना इस बात पर कि माध्यम कितना सशक्त है। निर्भीकता इसकी सफलता की आवश्यक शर्त है। जो निडर नहीं होते, उन्हें तंत्रशास्त्र के अयोग्य माना जाता है।

वेद को ज्ञान−विज्ञान का आधार माना गया है, इसलिए अंतिम प्रमाण के रूप में वेद की चर्चा होती है, किंतु तंत्रों का आधार वेदों में खोजना निष्फल है। केवल अथर्वण द्वारा रचित ग्रंथों में तंत्र का नहीं, तंत्र के विषयों का, कर्म का विवरण उपलब्ध होता है, अतएव यह निश्चित है कि तंत्र वेदों में नहीं है। इतने पर भी उसके प्रभाव एवं प्रामाणिकता को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। सहस्राब्दी से भी अधिक का समय ऐसा रहा है, जिसमें तंत्र का वर्चस्व संपूर्ण भारत में ही नहीं, सुदूर एशिया में व्याप्त था। हाथों में लगाई जाने वाली मेंहदी, आँगन में और द्वारों पर चित्रित की जाने वाली रंगोली और कल्पना, बालक होने पर लगाए जाने वाले स्वस्तिक और डलिया की आकृतियाँ—ये सब तंत्र के प्रतीक हैं। इन आकृतियों का प्रतीकार्थ तंत्र के गुह्यज्ञान से प्रभावित है और मेल रखता है।

स्मृति−संहिता की चौदह विद्याओं में तंत्र का उल्लेख नहीं है। पुराणों में भी यह नहीं है। संभावना इस बात की है कि उस युग का तंत्र का जन्म भले हो चुका हो, पर उसका प्रचार−प्रसार उतना न हुआ हो। वास्तविकता तो यह है कि वेद का विषय ही उपनिषद्, पुराण और तंत्र के रूप में परिवर्तित होता गया। वेदों का समझना जब वेदोत्तर काल में कठिन हो गया तो उनकी व्याख्या के रूप में उपनिषदों की रचना हुई। बाद में उपनिषद्, ब्राह्मण, आरण्यक भी जब दुरूह लगने लगे तो पुराण उनके सरल संस्करण के रूप में ड्डद्गष्द्बड्ड हुए और पुराणों की सामयिक व्याख्या करने के लिए तंत्र का प्रतिपादन किया गया। शंकराचार्य के नृसिंह तापनीय उपनिषद् के भाष्य में जिन तंत्रों का उल्लेख किया गया है, वे ईसा पूर्व की सातवीं सदी की रचनाएँ हैं। यही है कि प्राप्त साक्ष्यों के आधार पर तंत्रों का काल−निर्णय।

तंत्र का व्यापक विस्तार ईसा पूर्व से लेकर तेरहवीं शताब्दी तक बड़े प्रभावशाली रूप में भारत, चीन, तिब्बत, थाईलैंड, मंगोलिया, कंबोडिया आदि देशों में रहा। तंत्र को तिब्बती भाषा में ‘ऋगयुद्’ कहा जाता है। समस्त ऋगयुद् 78 भागों में है, जिनमें 2640 स्वतंत्र ग्रंथ हैं। इनमें कई ग्रंथ भारतीय तंत्र−ग्रंथों के अनुवाद है और कई तिब्बती तपस्वियों द्वारा रचित। मूलतः तंत्र का प्रतिपाद्य विषय एक ही है, अंतर सिर्फ उसके वर्णन, प्रकार और शैली में है। बाराही तंत्र के अनुसार तंत्र के नौ लाख श्लोकों में एक लाख श्लोक भारत के हैं। भारत के बाहर शेष श्लोक इन्हीं के व्याख्या−विस्तार हैं। उपलब्ध सूचनाओं के अनुसार भारत के बाहर 181 तंत्र−ग्रंथ हैं, जिनमें अधिकाँश अनुपलब्ध हैं। बाराही तंत्र के अनुसार इन ग्रंथों में कुल 157950 श्लोक हैं। तंत्र का वर्ण्य विषय एक होने के कारण भारत के एक लाख श्लोक भारत से बाहर 9 लाख श्लोकों में विकसित हुए और तिब्बत के ऋगयुद् के ढाई हजार ग्रंथों में प्रतिपादित हुए। इसमें कोई संशय नहीं कि भारत के अनुपलब्ध तंत्रों का विषय तिब्बत के ऋगयुदों में अविकल या रूपांतरित रूप में मिल सकता है, किंतु आज इसकी संभावना भी समाप्त हो गई है कि तिब्बत में ऋगयुद् के सारे ग्रंथ मिल जाएँ।

बुद्धावतार के बाद बौद्ध धर्म के प्रचार के साथ तंत्रों को एक नया क्षेत्र मिला। नया इस अर्थ में कि तंत्र का लक्ष्य अब दूसरे प्रकार से भी सिद्ध होने लगा। तत्त्वतः भारतीय तंत्र के मूल तत्त्व ही बौद्ध−साधना का अंग बने। इस दृष्टि से बुद्ध स्वयं ताँत्रिक थे। बुद्ध की घुँघराले बालों वाली प्रतिमा विशुद्ध रूप से उनके ताँत्रिक स्वरूप की परिकल्पना है। उनके बालों का गुँजलक सहस्रार के अगणित दलों का प्रतीक है। यों बुद्ध के वचनों और बौद्ध शास्त्रों में ब्रह्मचर्य का पूरा महत्त्व है। वे मानते हैं कि मनुष्य का वीर्य ही सब तरह की शक्तियों का आधार है, इसलिए उसे रोकने और ऊर्ध्वरेता बनने में ही निर्वाण का मार्ग प्रशस्त होता है। इतने पर भी सारे आदर्शों को एक ओर रखते हुए वज्रयान वामाचार से भी कई कदम आगे बढ़ गया। इस क्रम में एक समय ऐसा आया, जब संघाराम बौद्ध विहार बन गए थे। यहाँ कहने का आशय यह नहीं है कि बौद्ध साधक लंपट बनकर विषयासक्ति के मोह में पड़ गए थे। यह संभव है कि भौतिक सिद्धियों, साँसारिक मान−सम्मान की लालसा ने उनकी चमत्कारों पर केंद्रित कर दिया था और वे भी ताँत्रिक की भाँति, मंत्र, मद्य, मैथुन और हठयोग को अपनी साधना−विधि में सम्मिलित कर चुके थे। ताँत्रिकों की चक्रपूजा में माँ, बेटी, बहू की नारी प्रतीक के रूप में उपस्थितिमात्र की मान्यता भर है, शिव−संयोग (उनके साथ संभोग) का आदेश नहीं, पर वज्र यानी बौद्ध इसे भी स्वीकृति प्रदान करते हैं। कहने का तात्पर्य मात्र इतना है कि उन दिनों तंत्र का इतना व्यापक प्रचार हुआ कि प्रभाव से सात्विक बौद्ध साधक भी अछूते न रह सके।

तंत्र का विषय इतना विस्तृत है कि उससे मारण, मोहन, उच्चाटन, वशीकरण, विद्वेषण जैसे गर्हित कार्य भी किए जाते हैं और आत्मशुद्धि जैसा कल्याणकारी प्रयोजन भी सिद्ध किया जा सकता है। तंत्र वस्तुतः रेखाओं का समाहार है। यों रेखाएँ अपने आप में निरपेक्ष होती हैं, किंतु उनका संयोजन हमारी अनुभूति और चेतना के केंद्रों को उद्दीप्त करता है। कई बार रेखाओं के संयोजन से बनी आकृति हमें भयभीत कर देती है तो चक्रव्यूह का रेखाचित्र हमें भूलभुलैया में डाल देता है। इसके समानाँतर कई आकृतियाँ हमें प्रसन्न भी कर देती हैं। चित्रों की रंगीन सृष्टि वैसी ही है, जैसी मनुष्य की माँसल काया, किंतु चित्र मूलतः रेखाओं का विस्तार और समायोजन भर होता है।

समायोजन का यह सिद्धाँत तंत्र में भी आदरणीय है, पर तंत्र चित्रकला नहीं है, इसलिए वह मानवीय या प्राकृतिक आकृतियों या दृश्यों को अपना आधार नहीं बनाता। वह एक प्रकार का रेखागणित है, अतएव वह कुछ कोणों, वलयों, त्रिभुजों के प्रतीकों के माध्यम से प्रकृति पर नियंत्रण करता है। इसलिए उन प्रतीकों में भी वही शक्ति आ जाती है, जो शब्द में रहती है। तंत्र में बीज मंत्रों का प्रयोग होता है और प्रयोजन के अनुसार विभिन्न फलकों पर विभिन्न पदार्थों से, विभिन्न लेखनी या उपकरणों द्वारा लिखा जाता है। ये पदार्थ जो तंत्र में काम आते हैं, तंत्र के ही विषय हैं। जिन द्रव्यों को शारीरिक व्याधि की शाँति के लिए आयुर्वेद काम में लाता है, वह उनका स्थूल प्रभाव है और वात, पित्त, कफ के रूप में ज्ञात दोषों पर नियंत्रण करता है। तंत्र के रूप में प्रयोग किए जाने पर ये ही पदार्थ गुणात्मक जगत पर नियंत्रण करते हैं। विष और अमृत के रूप में प्राणहरण और जीवनदान देने वाली औषधियाँ गुण−दोषों के माध्यम से अपना प्रभाव दिखलाती हैं। तंत्र के रूप में प्रयुक्त होने पर यही औषधियाँ गुणात्मक चक्र को और तत्त्वों के अनुपात को प्रभावित करती हैं।

ताँत्रिक प्रक्रियाओं द्वारा काम, क्रोध, लोभ, मोह जैसी व्यक्तिगत बुराइयों पर भी विजय प्राप्त की जा सकती है।

इस दृष्टि से तंत्र दुधारी तलवार की तरह व्यवहार करता है। इससे किसी व्यक्ति में इन दोषों को उद्दीप्त एवं उत्तेजित कर उसे दुर्गुणी बनाना सरल हो जाता है। दूसरी ओर इसमें ऐसी ताँत्रिक क्रियाएँ भी हैं, जिनसे व्यक्ति के इन दुर्गुणों को शमित कर उसे सद्गुणी बनाया जा सके। इसलिए यह कहना उचित ही है कि तंत्र स्वयं में बुरा नहीं है। प्रयोक्ता और प्रयोग उसे बुरा बना देते हैं। दुनिया की कोई वस्तु केवल अच्छी या केवल बुरी नहीं होती। वह द्वैत गुण वाली होती है। जहाँ तम होगा, वहाँ प्रकाश की भी सत्ता निश्चित रूप से विद्यमान होगी, अन्यथा उस एकाकी सत्ता का बोध ही नहीं हो सकेगा। यहाँ सब कुछ सापेक्ष है। अंधकार के कारण ही हम प्रकाश को जान समझ पाते हैं। दोष न हो तो मनुष्य को गुण का औचित्य ही समझ में न आएगा। इसलिए तंत्र को अकल्याणकारी कहने वालों को यह समझ लेना चाहिए कि वह भी अद्वैत गुणसंपन्न नहीं है, उसमें भी भले−बुरे के दोनों भाव विद्यमान हैं। जहर केवल मारने का काम करता है, सो बात नहीं है, विषस्य विषमौषधम्’ इस सूत्र के अनुसार वह जीवनदाता भी है। यही बात तंत्र पर लागू होती है। उससे हानि पहुँचाने के साथ−साथ आत्मपरिष्कार का प्रयोजन भी सिद्ध किया जा सकता है, यह बात और है कि सदा से उसका बुरा पक्ष ही प्रकाशित और प्रयुक्त होता रह है। उसके मंगलकारी पहलू की हमेशा उपेक्षा होती रही है। किसी भी विधा के लिए यह बहुत ही निराशाजनक बात है।

तंत्र और ज्योतिष का परस्पर गहन संबंध है। भौतिक शरीर पर ग्रहों से आ रही रश्मियों का क्या प्रभाव पड़ेगा, यह ज्योतिष का विषय है, किंतु यह अध्ययन केवल मनुष्य वर्ग तक ही सीमित नहीं है। किस समय में वारों, ग्रहों, नक्षत्रों की युति में क्या विशेषता होती है, वनस्पति जगत पर इनका क्या प्रभाव पड़ेगा, किस समय में कौन−सा कर्म करना उपयुक्त रहेगा, यह सारा विवरण ज्योतिष देता आया है। तंत्र इन उल्लेखों से लाभ उठाता है। ताँत्रिक प्रयोगों में व्यक्ति के आत्मबल का तो महत्त्व है ही, इसके साथ ही अनुष्ठान−काल में ग्रहों की युतियाँ विशिष्ट हों, नक्षत्र तदनुरूप स्वभाव वाला हो, वार की और तिथि की प्रकृति भी यदि उससे साम्य रखती हो, विशिष्ट ग्रह−युतियों से विशिष्ट प्रकृति की किरणें विकीर्ण हो रही हों, तो इन सबका सम्मिलित प्रभाव अनुष्ठान की सफलता सुनिश्चित करता है। अतएव ताँत्रिक प्रयोगों में ज्योतिष का सदा सम्मान किया जाता और उसका सहारा लिया जाता है।

ज्योतिष काल पर चलता है। हमारे दैनिक जीवन में भी समय का महत्त्व और प्रभाव है। बाहर बजे छूटने वाली ट्रेन, पाँच बजे बंद होने वाले कार्यालय और मध्यरात्रि में मनाया जाने वाला स्वतंत्रता दिवस काल की ही विशेषता है। ठीक बारह बजे गाड़ी में बैठने वाला अपने गंतव्य पर पहुँच जाएगा, उससे इधर−उधर होने वाला नहीं। यही स्थिति ज्योतिषशास्त्र की मर्यादा की है। रविवार पुष्य नक्षत्र में ग्रहण की जाने वाली औषध में कौन−सा गुण है, उस गुण का व्यक्ति के शरीर−मन पर क्या प्रभाव पड़ेगा, यह बात ज्योतिष के आधार पर ही जानी जाती है। इसलिए ताँत्रिक प्रयोगों का विशद विवेचन और विस्तृत अनुष्ठान विधि ज्योतिष की मर्यादा का सम्मान करते हुए तदनुरूप करने की व्यवस्था देती है। ताँत्रिक अनुष्ठानों में आसान, माला, होम और हवि तथा भोजनादि द्रव्यों का निश्चय ज्योतिषशास्त्र की देन है। साँसारिक पदार्थों पर सूर्य, चंद्र और अग्नितत्त्व का किस अनुपात में प्रभाव पड़ता है, किस द्रव्य में इनके कारण कौन−सा विशेष गुण उत्पन्न होता है, यह ज्योतिष का क्षेत्र है, जिसे तंत्र में पूरी तरह मान्यता दी गई है।

अनुष्ठान एक महत्वपूर्ण ताँत्रिक प्रक्रिया है। यह दक्षिणमार्गी भी होता है, पर यहाँ उल्लेख वाममार्गी साधना का हो रहा है। यह अनुष्ठान जिस तर का हो, उसी तरह की तिथि, नक्षत्र, वार और लग्न का विचार किया जात है, उदाहरणार्थ, अनुष्ठान के लिए मेष लग्न—धन—धान्य का देने वाला, वृष—साधक का विनाश करने वाला, कर्क—सर्वसिद्धिदाता, कन्या—लक्ष्मीप्रदाता, मकर—पुण्यप्रद, कुँभ—समृद्धिकारक, ऐसा समझना चाहिए।

इसी तरह आसन का भी अपना महत्त्व है। ताँत्रिक अनुष्ठानों में बाँस का आसन—व्याधि एवं दरिद्रतादायक, तिनकों का—यशनाशक, पत्रों का—चित्तविक्षेप, काले मृग का—ज्ञान एवं सिद्धि, सिंह का—मोक्ष तथा लक्ष्मीप्रदाता, रेशम—पुष्टिकारक, कंबल—दुःखनाशक, सूती आसन—

सौभाग्यसूचक, व्याघ्र—ज्ञान, काठ का—दुर्भाग्य, पत्थर का—बीमारीदायक, धरती—दुःखानुभवकारक होता है। आसन में प्रयुक्त होने वाले इन पदार्थों का अपना स्वभाव और गुण−धर्म है, जिसमें चंद्र−सूर्य की रश्मियाँ प्रत्यक्ष−परोक्ष रूप में प्रभावशाली कारण के रूप में उपस्थित रहती हैं।

माला भी ताँत्रिक साधना में विशेष महत्त्व रखती है। वह किस द्रव्य की है, यह बात भी साधना की सफलता को प्रभावित करती है। स्फटिक सूर्य का प्रतीक है। मोक्षकामी साधनाओं के लिए यह प्रयुक्त होती है। रक्त चंदन और मूँगे की मालाएं आकर्षण, वशीकरण और श्री−प्राप्ति आदि कामों के लिए उपयोगी मानी गई हैं। रुद्राक्ष की माला पापनाशक भी है और सर्वसिद्धि प्रदाता भी। यही एक ऐसी माला है, जो हर क्षेत्र में हर प्रकृति के कार्य के लिए प्रयोग में आती है। वैष्णवों के लिए भी यह उतनी ही महत्वपूर्ण है, जितनी शैवों, मोक्षकामियों और साँसारिक कामना वाले व्यक्तियों के लिए। रुद्राक्ष के मुखों के अनुसार उसे विभिन्न अंगों में धारण करने का निर्देश तंत्रशास्त्र देता है, जो ज्योतिष की दृष्टि से भी सामंजस्य रखता है। नो मुखों वाला बाएँ हाथ में, छह मुखों वाला दाहिने हाथ (भुजा) में तथा चौदह मुख वाला शिखा में धारण करना चाहिए। इनके भिन्न−भिन्न लाभ निम्न हैं—आरोग्यलाभ, सात्विक प्रवृत्ति का उदय, शक्ति आविर्भाव और विघ्ननाश। भिन्न−भिन्न स्थानों में धारण करने योग्य माला की मणियों की संख्या के संबंध में भी शास्त्रीय निर्देश हैं। सत्ताईस मणियों (रुद्राक्ष के) की माला गले के गिर्द, बत्तीस की कंठ प्रदेश में (जिससे झूलकर वह हृदय क्षेत्र का स्पर्श करती रहे। रुद्राक्ष माला से हृदय रोग का नाश होता है।), बाईस मणियों वाली मस्तक में, छह की कान में, बारह की कलाई में, पंद्रह की भुजा में धारण करनी चाहिए। अलग−अलग मुखों वाली माला से अलग−अलग प्रकार की शारीरिक−मानसिक व्याधियों का नाश होता है। कोई स्वस्थ व्यक्ति की पूर्ण मनोयोगपूर्वक साधना−अनुष्ठान कर सकता है। व्याधि उसमें विक्षेप पैदा करती है। अतएव तंत्रशास्त्र रुद्राक्ष माला को धारण करने का निर्देश करता है।

इस प्रकार तंत्र एक पूर्ण विज्ञान है। उसकी भारी प्रक्रियाएँ वैज्ञानिक हैं। यह अपरा प्रकृति को नियंत्रित कर शक्ति का उपार्जन करता है। शक्ति−संग्रह का तरीका यहाँ तामसिक है और सीधे भौतिक परमाणुओं को नियमित कर ऐसा किया जाता है। भौतिक शक्तियों पर नियंत्रण स्थापित करना साधारण बात नहीं, सावधानी और साहस का काम है। उसमें तनिक भी असावधानी हुई नहीं कि प्राण−संकट सामने आ उपस्थित होते हैं। इसलिए यह विधा हर एक के लिए सुलभ नहीं, वह सत्पात्रों के निमित्त ही सुरक्षित है। किसी श्रेष्ठ सद्गुरु के मार्गदर्शन में ही किए जाने योग्य है। सर्वसामान्य के लिए तो सौम्य गायत्री साधना ही सर्वश्रेष्ठ है।


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