वेदाँत दर्शन ने संसार को माया बताया और उसको स्वप्न कहा है। इसका अर्थ यह नहीं कि जो कुछ दीखता है, उसका अस्तित्व ही नहीं अथवा जो सामने हैं, वह झूठ है। वर्तमान स्वरूप एवं स्थिति में वे सत्य भी हैं। यदि ऐसा न होता तो कर्मफल क्यों मिलते? पुण्य और तप−तितिक्षा करने की क्या आवश्यकता होती? कर्त्तव्य और अकर्त्तव्य में क्या अंतर रह जाता? धर्मकृत्यों की क्या उपयोगिता रह जाती और पापकर्मों से डरने, बचने की क्या आवश्यकता होती?
माया का अर्थ वेदाँत ने उस अर्थ में किया है, जिसमें जो भासित होता हो, वह तत्त्वतः यथार्थ न हो। जगत को इसी स्थिति में, इसी स्तर का माना गया है। वह जैसा कुछ प्रतीत होता है, क्या वह वैसा ही है? इस प्रश्न पर जब गंभीरतापूर्वक विचार किया जाए तो प्रतीत होगा कि संसार में हम जो कुछ इंद्रियों द्वारा देखते हैं, अनुभव करते हैं, वह सब वास्तव में वैसा ही नहीं होता। इंद्रिय छिद्रों के माध्यम से मस्तिष्क में होने वाली अनुभूतियों का नाम ही जानकारी है। यह जानकारी तभी सत्य हो सकती है, जब वस्तुओं के यथार्थ स्वरूप को सही रूप में इंद्रियाँ समझ सकें। यदि वे धोखा खाने लगें तो मस्तिष्क गलत अनुभव करेगा और वस्तुस्थिति उलटी दिखाई पड़ने लगेगी।
नशा पी लेने पर मस्तिष्क और इंद्रियों का संबंध लड़खड़ा जाता है, फलस्वरूप कुछ−का−कुछ अनुभव होता है। शराब के नशे में धुत्त व्यक्ति जैसा कुछ सोचता, समझता, देखता, अनुभव करता है, वह यथार्थता से बहुत भिन्न होता है। अधिक ऊँचे नशे उस उन्मत्तता की स्थिति को और भी अधिक बढ़ा लेते हैं। एल. एस. डी. जैसे नशे तो इतने तीव्र होते हैं कि उनके सेवन के उपरांत ऐसे विचित्र अनुभव मस्तिष्क को होते हैं, जिनकी उपयोगिता के साथ कोई संगति नहीं होती।
साधारणतः दैनिक जीवन में भी ऐसे कितने ही अनुभव होते हैं, जिन्हें यथार्थ नहीं कहा जा सकता। सिनेमा के परदे पर जो दीखता है, सही कहाँ है! एक के बाद एक आने वाला अलग−अलग तसवीरें इतनी तेजी से घूमती हैं कि उस परिवर्तन को आँखें ठीक तरह समझ नहीं पातीं और ऐसा भ्रम होता है, मानो फिल्म में पात्र चल−फिर रहे हों। लाउडस्पीकर से शब्द अलग−अन्यत्र निकलते हैं और परदे पर तसवीर के ओंठ अलग चलते हैं, पर दर्शकों को ऐसा ही आभास होता रहता है, जैसे अभिनेताओं के मुख से ही वार्त्तालाप एवं संगीत निकल रहा है। प्रकाश की विरलता और सघनता भर परदे पर उतरती है, पर उसी से पात्रों एवं दृश्यों का स्वरूप बन जाता है। और मस्तिष्क यह अनुभव करता है। कि यथार्थ में ही वह घटनाक्रम घटित हो रहा है।
सिनेमा के दृश्यक्रम को देखकर आने वाला यह नहीं अनुभव करता कि उसे यांत्रिक जाल−जंजाल से ढाई तीन घंटे उलझा रहना पड़ा है। उसे जो दुःखद, सुखद, रोचक, भयानक अनुभूतियाँ उतने समय होती रही हैं, वे सर्वथा भ्राँत थीं। सिनेमाहॉल में कोई घटनाक्रम नहीं घटा, कोई प्रभावोत्पादक परिस्थिति नहीं बनी, केवल प्रकाश−यंत्र या ध्वनि−यंत्र अपने−अपने ढंग की कुछ हरकतें ही करते रहे। इतने भर से दर्शक अपने सामने अति महत्वपूर्ण घटनाक्रम उपस्थित होने का आभास करते रहे। इतना ही नहीं, उससे हर्षातिरेक एवं अश्रुपात जैसी भाव भरी मनःस्थिति भी बनी रही। इस इंद्रिय भ्रम को ‘माया’ कहा जाता है। मोटी दृष्टि से यह माया सत्य है। यदि सत्य न होती तो फिल्म उद्योग, सिनेमाहॉल, उसमें युक्त हुए यंत्र, दर्शकों की भीड़, उनकी अनुभूति का क्या महत्त्व रह जाता! थोड़ी विवेचनात्मक गहराई से देखा जाता तो यंत्रों की कुशलता और वस्तुस्थिति को समझ न सकने की नेत्र−असमर्थता के आधार पर इस फिल्म दर्शन को मायाचार भी कह सकते हैं। दोनों ही तथ्य अपने−अपने ढंग से सही हैं। संसार चूँकि हमारे सामने खड़ा है, उसके घटनाक्रम को प्रत्यक्ष देखते हैं, इसलिए वह सही है, किंतु गहराई में प्रवेश करने पर वे दैनिक अनुभूतियाँ निताँत भ्रामक सिद्ध होती हैं। ऐसी दशा में उन्हें भ्रम, स्वप्न या माया कहना भी अत्युक्ति नहीं है।
स्पष्ट है, सभी दृश्य पदार्थ एक विशेष प्रकार के परमाणुओं का एक विशेष प्रकार का संयोग मात्र हैं। प्रत्येक परमाणु अत्यंत तीव्र गति से गतिशील हैं। इस प्रकार हर पदार्थ अपनी मूल स्थिति में आश्चर्यजनक तीव्र गति से हरकत कर रहा है, पर खुली आँखें यह सब कुछ देख नहीं पातीं और वस्तुएँ सामने जड़वत् स्थिर खड़ी मालूम पड़ती हैं। ऐसा ही अपनी पृथ्वी के बारे में भी होता हैं। भूमंडल अत्यंत तीव्र गति से (1) अपनी धुरी पर, (2) सूर्य की परिक्रमा के लिए अपनी कक्ष पर, (3) सौरमंडल सहित महासूर्य की परिक्रमा के पथ पर, (4) घूमता हुआ लट्टू जिस प्रकार इधर−उधर लहकता रहता है, उस तरह लहकते रहने के क्रम पर, (5) ब्रह्माँड के फैलते−फूलते जाने की प्रक्रिया के कारण अपने यथार्थ आकाश स्थान को छोड़कर फैलता स्थान पकड़ते जाने की व्यवस्था पर—निरंतर एक साथ पाँच प्रकार की चालें चलता रहता है।
इस उद्धत नृत्य को हत तनिक भी अनुभव नहीं करते और देखते हैं कि जन्म से लेकर मरणकाल तक धरती अपने स्थान पर जड़वत् जहाँ−की−तहाँ पड़ी रही है। आँखों के द्वारा मस्तिष्क को इस संबंध में जो जानकारी दी जाती है और जैसी कुछ मान्यता आमतौर पर बनी रहती है, उसका विश्लेषण किया जाए तो प्रतीत होगा कि हम भ्रम−अज्ञान की स्थिति में पड़े रहते हैं और कुछ−का−कुछ अनुभव करते रहते हैं। यह मायाग्रस्त स्थिति कही जाए तो गलत क्या होगा!
निरभ्र आकाश हमेशा नीला दीखता है, जबकि हम यह भली भाँति जानते हैं कि उस महाशून्य को नीलवर्णी आभा देने के लिए वहाँ कोई महाचितेरा नहीं बैठा है, लेकिन फिर भी आँखें उसे नीला देखती हैं। यह भ्रम नहीं तो और क्या है!
गगनमंडल को मेघ रहित स्थिति में जब रात्रि में निहारते हैं तो अगणित तारे टँगे दिखाई पड़ते हैं। उन्हें देखकर ऐसा लगता है, मानो वे छोटे−छोटे टिमटिमाते असंख्य प्रकाश−कण हों, पर यथार्थ में ऐसा नहीं है। उनमें से अनेक हमारे सौरमंडल के सूर्य से भी अनेक गुना बड़े प्रकाशपिंड हैं, किंतु प्रत्यक्ष नेत्रों को भासता कुछ और है। वे अपने चाँद से भी छोटे और मंद प्रकाशपुँज दीखते हैं।
जल में सूर्य−चंद्र में प्रतिबिंब पड़ते हैं और लगता है कि पानी में वे प्रकाशपिंड जगमगा रहे हैं। प्रतिबिंब पड़ने से हर लहर पर चंद्रमा नाचता−थिरकता मालूम पड़ता है। रेल में बैठने वाले देखते हैं कि वे, अपने स्थान पर स्थिर बैठे हैं और केवल बाहर तार के खंभे और पेड़ आदि भाग रहे हैं। क्या वे अनुभूतियाँ सत्य हैं?
रात्रि को स्वप्न देखते हैं। उस स्वप्नावस्था में दिखाई पड़ने वाला घटनाक्रम यथार्थ मालूम पड़ता है। देखते समय दुःख−सुख भी होता है। यदि वास्तव में संदेह होता, तो कई बार मुख से कुछ शब्द निकल पड़ना, स्वप्नदोष आदि हो जाने की बात क्यों होती? जागने पर स्पष्ट हो जाता है कि जो सपना देख गया था, उसमें सचाई कुछ भी नहीं थी, केवल कल्पनाओं की उड़ान को निद्रित मस्तिष्क ने यथार्थता अनुभव कर लिया। उतने समय की मूर्च्छित मनःस्थिति अपने को भ्रम−जंजाल में फँसाए रहकर बेसिर−पैर की उड़ानों में उड़ाती रही।
आँखों की तरह ही अन्य इंद्रियों की बात है। वे एक सीमा तक ही वस्तु स्थिति का ज्ञान कराती हैं और जो बताती−जताती हैं, उनमें से अधिकाँश भ्राँत होता है। बुखार आने पर गरमी की ऋतु में शाँत का और शीत की ऋतु में गरमी का अनुभव होता है। मुँह का जायका खराब होने पर हर चीज कड़वी लगती है। जुकाम हो जाने पर चारों ओर बदबू का अनुभव हो है। पीलिया रोग होने पर आँखें पीली हो जाती हैं और हर चीज पीले रंग की दिखाई पड़ती है। क्या ये अनुभूतियाँ सही हैं?
जिस वस्तु का जैसा स्वाद प्रतीत होता है, वह वास्तविक नहीं है। यदि ऐसा होता तो मनुष्य को जो नीम के पत्ते कड़ुए लगते हैं, वे ऊँट को भी वैसा ही क्यों न लगते! वह उन्हें रुचिपूर्वक स्वादिष्ट पदार्थों की तरह क्यों खाता! खाद्य पदार्थों का स्वाद हर प्राणी की जिह्वा से निकलते रहने वाला अलग−अलग स्तर के रसों तथा मुख से निकलते रहने वाला अलग−अलग स्तर के रसों तथा मुख के ज्ञान−तंतुओं की बनावट पर निर्भर होता है। भोजन मुँह में गया, वहाँ के रसों का सम्मिश्रण हुआ और उस मिलाप की जैसी कुछ प्रतिक्रिया मस्तिष्क पर हुई, उसी का नाम स्वाद की अनुभूति है। खाद्य पदार्थ की वास्तविक रासायनिक स्थिति इस स्वाद अनुभूति से सर्वथा भिन्न है। जो कुछ चखने पर अनुभव होता है, वह वास्तविक नहीं है।
शरीरविज्ञानी जानते हैं कि काया का निर्माण अरबों−खरबों कोशिकाओं के सम्मिलन से हुआ है। उनमें से प्रतिक्षण लाखों मरती हैं और नई उपजती हैं। यह क्रम बराबर चलता रहता है और थोड़े ही दिनों में कुछ समय पूर्व वाली समस्त कोशिकाएं मर जाती हैं और उनका स्थान नई ग्रहण कर लेती हैं। इस तरह एक प्रकार से शरीर का बार−बार कायाकल्प होता रहता है। पुरानी वस्तु एक भी नहीं रहती। उसका स्थान नए जीवकोश ग्रहण कर लेते हैं। देह के भीतर एक प्रकार श्मशान जलता रहता है और दूसरी ओर प्रसूतिगृह में प्रजनन की धूम मची रहती है। इतनी बड़ी हलचल का हमें तनिक भी बोध नहीं होता और लगता है देह जैसी−की−तैसी रहती है। जिन इंद्रियों के सहारे हम अपना काम चलाते हैं, उनमें इतना भी दम नहीं होता कि बाहरी वस्तुस्थिति बताना तो दूर, अपने भीतर की इतनी महत्त्वपूर्ण हलचलों का तो आभास दे सकें। ऐसी इंद्रियों के आधार पर यथार्थ जानकारी का दावा कैसे किए जाए। जिस मस्तिष्क को अपने कार्यक्षेत्र शरीर के भीतर होने वाले रोगों में क्या स्थिति बनी हुई है, इतना तक ज्ञान नहीं है और घर की बात को बाहर वालों से पूछना पड़ता है, वैद्य−डॉक्टरों का दरवाजा खटखटाना पड़ता है, उस मस्तिष्क पर यह भरोसा कैसे किया जाए कि वह इस ज्ञान को वस्तुस्थिति में सही रूप में अवगत करा देगा।
ज्ञान जीवन का प्राण है, पर वह होना यथार्थ स्तर का चाहिए। यदि कुछ−का−कुछ समझा जाए, उलटा देखा और जाना जाए, भ्रम और विपर्यय हमारी जानकारियों का आधार बन जाएँ तो समझना चाहिए कि वह ज्ञान प्रतीत होने वाली चेतना वस्तुतः अज्ञान ही है। उससे जकड़े रहने पर हमें विविधविध त्रास ही उठाने पड़ेंगे, पग−पग पर ठोकरें खानी पड़ेंगी, इसी स्थिति को ‘माया’ कहते हैं। माया कोई बाहरी संकट नहीं, मात्र भीतरी भ्राँति भरी मनः स्थिति भर है। यदि उसे सुधार लिया जाए तो समझना चाहिए कि माया के बंधनों से मुक्ति मिल गई। यह मुक्ति वस्तुतः हर किसी को हस्तगत हो सकती है।