वासंती उल्लास हमारी सक्रियता बढ़ाए, कुहासे को मिटाए
इस वर्ष छह फरवरी को वसंत पर्व है। इस पत्रिका के पहुँचने तक चारों ओर वासंतीय उल्लास भरा वातावरण छा रहा होगा। अपने अखिल विश्व गायत्री परिवार का यह सबसे बड़ा त्योहार है। परमपूज्य गुरुदेव का यह आध्यात्मिक जन्मदिवस (बोध दिवस) भी है। इसी से हमारे नववर्ष की शुरुआत होती है। 1926 का वसंत पर्व परमपूज्य गुरुदेव के जीवन में उनके सूक्ष्मशरीरधारी गुरु से साक्षात्कार का दिवस था। 18 जनवरी, 1926 वह ऐतिहासिक तारीख है, जहाँ से जमाने को बदलने का संकल्प उभरा एवं वह जन−जन तक फैलता चला गया। आज दस करोड़ उत्साही प्राणवान परिजन उसके साक्षी हैं।
वसंत हेमंत की ठिठुरन के पलायन एवं सुखद उमंगों का संचार करने वाली हलकी सी गरमाहट के स्पंदनों के आगमन का प्रतीक पर्व भी है। ठंडक में चारों ओर घना कुहासा छा जाता है, कहीं पाला गिरता है, कहीं लोग दुबके हाथ सेंकते दिखाई देते हैं। थोड़ी−सी तेज सूरज की धूप भी सुखद लगती है। जैसे जैसे बसंत () आता है, वह प्रकृति पर भी छा जाता है, सूक्ष्म जगत पर भी, प्राणी जगत पर भी एवं जन जन के मन में नूतन उत्साह हिलोरें लेने लगता है। वसंत कड़कड़ाती ठंडक को तो भगाता ही है, उस कुहासे को भी मिटाता है, जो चारों और संव्याप्त नजर आता था। आज दृश्य कुहासे के बारे में नहीं कहता, जो जन-जन के चिंतन पर छाता चला जा रहा है। बाहर का वसंत आ भी जाए व अपने मन-मस्तिष्क पर छाया अंदर का कुहासा यथावत् रहे, भ्राँतियाँ वैसी की वैसी ही बनी रहें, तो क्या लाभ! इसीलिए इस वसंत पर्व पर यह संकल्प भी लेना है कि गुरुसत्ता की तरह अपने अंदर से भी वासंती उल्लास उमंग भरी सक्रियता फूट-फूटकर निकलेगी। हर परिजन स्वयं को और अधिक सक्रिय एवं स्फूर्तिवान बनाएँगे। आशावादी चिंतन लेकर कुछ नया कर दिखाने हेतु तत्पर होंगे।
वसंत पर्व ज्ञान की देवी भगवती सरस्वती का जन्मदिवस भी है। सृष्टि के आदिकाल में मनुष्य को इसी शुभ अवसर पर विद्या बुद्धि का, ज्ञान संवेदना का अनुदान प्राप्त हुआ था। मनुष्य अन्य प्राणियों से भिन्न है। उसे सोद्देश्य चिंतन का वरदान मिला है। इस धरती पर जो शोभा-सौंदर्य भरा व्यवस्था−क्रम चल रहा है, उसमें मानवी बुद्धि-वैभव का योगदान कुछ कम नहीं है। विश्व-वसुधा की शोभा-गरिमा में भगवती सरस्वती के ही अनुग्रह ने चार चाँद लगाए है। मनुष्य को सृष्टि के अन्य प्राणियों की तुलना में जो गौरव मिला है, उसके पीछे भगवती वीणा-पाणि की अनुकंपा ही झाँक रही है।
ज्ञान के अवतरण ने ही इस वसंत पर्व नामक त्योहार को अतिपावन बना दिया। नरपशु में विभूतिवान मानव का उदय जिस माँ सरस्वती के अनुग्रह से हुआ, वह निश्चित ही बड़ा सौभाग्य भरा दिन है ज्ञान ही वह निधि है, जो मानव के साथ जन्म-जन्माँतरों तक की यात्रा करती है। शेष सब यहीं रह जाता है। सृष्टि के आदि में अनगढ़ मनुष्य इसी ज्ञान (विद्या) के आधार पर बुद्धि को और कला के आधार पर भावनाओं को समुन्नत बनाने हेतु तत्पर हुआ था। अब तक वही क्रम निरंतर क्रमिक विधि-व्यवस्था के साथ बढ़ता चला आ रहा है। इन चेतनात्मक उपलब्धियों के बिना मनुष्य न तो कुछ बन सकता था और न भविष्य में कुछ बन सकता है। वसंत पर्व को इसीलिए विशिष्ट गौरव के साथ मनाया जाता है। संपत्तिवान दीपावली को, शक्तिवान विजयादशमी को, विनोदी होली को, तपस्वी श्रावणी को एवं छात्र-शिष्य गुरुपूर्णिमा को अधिक मान देते है, पर जिन्हें विद्या और कला की गरिमा का ज्ञान है, वे सभी सरस्वती पूजन को इनसे भी बड़ा महत्त्व देते है। विज्ञ-समाज में इसे प्रमुखता इसीलिए दी गई है।
अपने मिशन का जन्मदिन भी होने के कारण युगनिर्माण परिवार के लिए यह दुहरी प्रेरणा का पर्व हो गया है। हम इस सभी संजीवनी विद्या, जीवन कला के उपासक−आराधक हैं, साथ ही प्रबुद्ध वर्ग की उस श्रेणी में आते हैं, जिसमें विवेकबुद्धि और सद्भाव−संवेदनाओं को सर्वोपरि माना जाता है। उपयुक्त अवसर पर उपयुक्त कार्य करने के निर्णय जिस आधार पर किए जाते हैं, उसी आधार पर युगपरिवर्तन का ब्राह्ममुहूर्त भी किसी उपयुक्त घड़ी में ही किया जाना उपयुक्त माना जाना चाहिए। युगसंध्या का मंगलाचरण यदि वसंत पर्व को हुआ तो इसे सुवर्ण−सुयोग ही कहा जाना चाहिए।
इसी दिन से पंद्रह वर्ष की आयु में परमपूज्य गुरुदेव ने अपनी चौबीस वर्षों में संपन्न होने वाली उग्र गायत्री तपश्चर्या आरंभ की। एकनिष्ठ भाव से वे समग्र श्रद्धा नियोजित कर उसी प्रकार तत्पर रहे, जिस प्रकार कि गंगावतरण का लक्ष्य लेकर भगीरथ ने कठोर तप−साधना की अग्नि में प्रवेश किया। प्रायः सत्ताईस वर्ष में यह कठोर साधना, जिसमें चौबीस−चौबीस लक्ष के चौबीस महापुरश्चरण किए गए, संपन्न हुई। तीन वर्ष अतिरिक्त इसलिए लगे कि बीच में उन्हें स्वतंत्रता संग्राम में भी भाग लेना पड़ा। जप−तप तो वहाँ भी चलता रहा, पर नियमानुसार एक आसन पर बैठे जप को पूर्ण मानकर उनने तीन वर्ष अतिरिक्त साधना की। यह प्रयास सोने को अग्नि में तपाकर निर्मल और तेजस्वी बनाने जैसा ही था। इसी के आधार पर उन्हें महत्त्वपूर्ण क्षमताएँ, प्रतिभाएँ, विभूतियाँ एवं ऋद्धि−सिद्धियां प्राप्त हो सकीं। युगपरिवर्तन की प्रचंड धाराएँ इसी आधार पर द्रुतगति से प्रवाहित हो सकीं।
ज्ञान के अवतरण के इस पावन वसंत पर्व पर हमेशा पूज्यवर अपनी आगामी एक वर्ष की योजनाएँ बनाते रहे हैं। इस दिन वे अपने ऊपर ही नहीं, सभी उनको मानने वाले साधकों पर दिव्य प्रेरणा की प्रकाश किरणों का अवतरण होना स्वीकार करते रहे हैं। यह एक प्रकार से हर युगनिर्माण मिशन के सदस्य के उसका एक अंग होने के नाते अपनी दिव्य चेतना की स्फुरणा का भी जन्मदिन बन जाता है। इस दृष्टि से वसंत पर्व मनाना अपने उज्ज्वल भविष्य की संभावना का ही एक प्रकार से वार्षिक अभिनंदन−अभिवंदन है। इस अवसर पर हमें अपनी मुख्य अभिव्यक्तियों को अवरुद्ध न कर उन्हें ऊँचा उठाने व आगे बढ़ाने के लिए उत्साह भरे प्रयास अधिकाधिक करने चाहिए। सीप की तरह यदि हम तनिक भी मुँह खोल सके तो इन दिनों झर रही अनुदानों रूपी स्वाति बूँदें अगणित मात्रा में उसमें गिर सकती हैं व कई मोती गर्भ में आ सकते हैं।
साधना−संगठन−सशक्तीकरण का यह उत्तरार्द्ध वाला वर्ष तो है ही, विद्या−विस्तार का भी वर्ष है यह। इस पावन दिन हम सभी आत्मचिंतन करें कि कितनी कुछ ‘साधना’ अपनी विगत एक वर्ष में जीवन में निखर पाई। हमारी उपासना जो वैयक्तिक हुआ करती थी, क्या जीवनसाधना में बदली एवं यदि बदली तो क्या हमने व औरों ने उसकी अनुभूति की? यही जीवनसाधना जब सामूहिक स्तर पर होती है एवं विराट् ब्राह्मीसत्ता की सेवा−साधना में नियोजित होती है तो आराधना बन जाती है। संगठन इसी आधार पर सशक्त एवं परिणाम देने वाले बनते चले जाते हैं।
2003 का यह पूरा वर्ष हमारी जीवनसाधना को और अधिक निखारने एवं संगठन को सशक्त बनाने हेतु नियोजित होना चाहिए। गंगा निरंतर बहती रहती है। सृष्टि के सारे क्रियाकलाप चलते रहते हैं। रुटीन तो स्वतः ही निभता चला जाता है। नौकरी करने वाले, व्यवसाय करने वाले पहले की तरह इस वर्ष भी उसी कार्य को करेंगे व पदोन्नति, अधिक धनराशि या व्यवसाय में सफलता की कामना करेंगे। पर हम सभी, संभव है हममें से कई नौकरी−पेशा व व्यवसायी भी हों, सबसे अलग हैं। हमें यह चिंतन करना है कि क्या हम साधना, शिक्षा, स्वास्थ्य, स्वावलंबन, पर्यावरण संरक्षण, कुरीति उन्मूलन, व्यसन मुक्ति तथा नारी जागरण अभियान रूपी सप्त आँदोलनों की दिशा में क्या कुछ गति पकड़ पाए? यदि नहीं, तो हमें किन्हीं भी दो आँदोलनों को इस वर्ष प्रमुखता देकर साधना की धुरी पर गतिशील कर देना है। 2004 के वसंत पर्व पर जब हम आत्मावलोकन करें तो अमुक दो आँदोलनों में स्वयं की गति परिपूर्ण, संतोषदायी मानें। फिर इसी तरह 2004 के पूरे वर्ष व 2005 के पूरे वर्ष में हम दो−दो आँदोलन हाथ में लेकर सप्ताँदोलनों को पूर्णता तक पहुँचा सकते हैं।
संगठन की दृष्टि से पूरे भारत को सात जोनों में बाँटा गया है। पश्चिमोत्तर, पूर्वोत्तर, तराई क्षेत्र एवं नेपाल राष्ट्र, उड़ीसा, छत्तीसगढ़, राजस्थान, गुजरात, दक्षिण भारत (चारों प्राँत + महाराष्ट्र) एवं मध्य जोन। इनके सघन दौरे व मंथन का प्रथम दौर समाप्त हो गया है। अब प्रत्येक जोन के मुख्यालयों पर, उपकेंद्रों पर केंद्र के प्रतिनिधिगणों व क्षेत्र के समयदानियों के बैठने का क्रम आरंभ होने जा रहा है। यहाँ प्रशिक्षण का क्रम चलेगा, जिसमें संगठन−सशक्तीकरण कार्यशालाएँ चलेंगी। ट्रेनिंग ऑफ ट्रेनर्स (शिक्षकों का प्रशिक्षण) यहीं होगा। समयदान का क्षेत्रीय नियोजन भी यहीं होगा। आज के वैज्ञानिक युग की तकनीकी का लाभ, लेकर सभी जोनल केंद्रों व केंद्र के बीच सीधे कंप्यूटर, इंटरनेट, सेटेलाइट लिंक से जुड़ने की व्यवस्था बनेगी, ताकि संगठन सुचारु रूप से चल सके व समय पर युगानुकूल मार्गदर्शन किया जा सके।
प्रस्तुत वसंत इन सभी निर्धारणों के साथ−साथ परमपूज्य गुरुदेव के साहित्य, उनकी प्राणचेतना की संवाहक पत्रिकाओं (अखण्ड ज्योति हिंदी व अन्य भाषाएँ, युगनिर्माण योजना, युगशक्ति गायत्री, प्रज्ञा पाक्षिक) को जन−जन तक पहुँचाने के संकल्प को भी लेकर आया है। जितना अधिक युगसाहित्य घर−परिवारों तक, विद्यालयों व अन्य संगठनों के बीच पहुँचेगा, उतना ही मिशन का विस्तार होगा। प्रस्तुत वसंत आत्मबोध एवं आत्मोत्कर्ष के लिए अधिक गहन चिंतन−मनन, अपने स्तर पर अपने यहाँ छोटा दीपयज्ञपरक आयोजन, संगठन−सशक्तीकरण की दिशा में आत्ममंथन एवं विद्याविस्तार के निमित्त हमारे सुनिश्चित संकल्प, इन चारों को पूरा करने के निमित्त मनाया जाए, तो ही हमारी गुरुसत्ता के प्रति समर्पण की सार्थकता है।