स्वयं से कहो−शिष्योऽहम्

February 2003

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गुरुगीता की भक्ति कथा गुरुभक्तों के लिए अमृत सरोवर है। इसमें अवगाहन से मिलने वाले भक्ति संवेदन गुरुभक्त साधक को सहज ही सद्गुरु कृपा का संस्पर्श करा देते हैं। परम कृपालु सद्गुरु की कृपा साधक के सभी दोष-दुर्मति जन्य विकारों का हरण करके उसे जीवन के परम लक्ष्य की प्राप्ति करा देती है। इसी सत्य को दर्शाते हुए गोस्वामी तुलसी बाबा ने एक स्थान पर कहा है-

तुलसी सद्गुरु त्यागि कै, भंजहि जे पामर भूत। अंत फजीहत होहिं गे, गनिका के से पूत॥

जो पामर मनुष्य परम कृपालु सद्गुरु और उनके बताए साधन मार्ग को छोड़ कर तंत्र-मंत्र भूत-प्रेतों में उलझे रहते हैं, उनकी अन्त में भारी फजीहत होती है। वे गणिका पुत्र की भाँति हर कहीं दुत्कारे और फटकारे जाते हैं।

सद्गुरु की कृपा साधक का परम आश्रय है। इस तत्त्व की अनुभूति कैसे और किस तरह हो यही तो गुरुगीता के प्रत्येक मंत्र में उद्घाटित हो रहा है। पिछली कड़ी में भगवान् सदाशिव ने जगन्माता पार्वती को बताया कि गुरु चरणामृत की महिमा अतुलनीय है। गुरु प्रसाद श्रेष्ठतम है। गुरु का सान्निध्य ही पवित्र काशीधाम है। गुरुदेव ही भगवान् विश्वेश्वर हैं। वही तारक ब्रह्म है। अक्षयवट और तीर्थराज प्रयाग भी वही है। भगवान् महादेव एक ही सत्य को बार-बार सुनाते हैं, बताते हैं, समझाते हैं- अन्यत्र कहीं भटको मत, अन्यत्र कहीं उलझो मत, अन्यत्र कहीं अटको मत। उन्हीं की शरण गहो, जिन्होंने तुम्हें मंत्र का दान दिया, जिन्होंने जीवन की राह दिखाई। जो हर पल, हर क्षण अपनी अजस्र कृपा तुम पर बरसाते रहते हैं।

इस कृपा के धारण व ग्रहण की विधि बताते हुए भगवान् सदाशिव माता पार्वती से कहते हैं-

गुरुमूर्तिं स्मरेन्नित्यं गुरुनाम सदा जपेत्। गुरोराज्ञाँ प्रकुर्वीत गुरोरन्यत्र भावयेत्॥18॥

गुरुवक्त्रस्थितं ब्रह्म प्राप्यते तत्प्रसादतः। गुरोर्ध्यानं सदा कुर्यात् कुलस्त्री स्वपतेर्यथा॥19॥

स्वाश्रयं च स्वजातिं च स्वकीर्तिं पुष्टिवर्धनम्। एतर्त्सवं परित्यज्यं गुरोन्यत्र भावयेत्॥20॥

सद्गुरु कृपा से अपने जीवन में भौतिक, आध्यात्मिक, लौकिक-अलौकिक समस्त विभूतियों को पाने की चाहत रखने वाले साधक को सदा ही गुरुदेव की छवि का स्मरण करना चाहिए। उनके नाम का प्रति पल, प्रति क्षण जप करना चाहिए। साथ ही गुरु आज्ञा का जीवन की सभी विपरीतताओं के बावजूद सम्पूर्ण निष्ठ से पालन करना चाहिए। अपने जीवन में कल्याण कामना करने वाले साधक को गुरुदेव के अतिरिक्त अन्य कोई भावना नहीं रखनी चाहिए॥18॥ गुरु के मुख में ब्रह्म का वास है। इस कारण उनके मुख से बोले हुए शब्द ब्रह्म वाक्य ही हैं। गुरु कृपा प्रसाद से ही ब्रह्म की प्राप्ति होती है। परम पतिव्रता स्त्री जिस तरह से सदा ही अपने पति का ध्यान करती है। ठीक उसी तरह अध्यात्म तत्त्व के अभीप्सु साधक को अपने गुरु का ध्यान करना चाहिए॥19॥ साधक में इस ध्यान की प्रगाढ़ता कुछ इस कदर होनी चाहिए कि उसे अपना आश्रम, अपनी जाति, अपनी कीर्ति का पोषण, वर्धन, सभी कुछ भूल जाय। गुरु के अलावा अन्य कोई भावना उसे न व्यापे॥20॥

इन महामंत्रों का मनन और इनका आचरण साधकों के लिए राजमार्ग है। साधना का यह पथ बड़ा ही सरल, सुगम और निरापद है। श्री रामकृष्ण परमहंस देव के अनेक शिष्य थे। उनमें से कई बहुत पढ़े-लिखे, विद्वान और तपस्वी थे। स्वामी विवेकानन्द जी महाराज की अलौकिक प्रतिभा से तो समूची दुनिया चमत्कृत रह गयी। इन शिष्यों में एक लाटू महाराज भी थे। निरे अपढ़-गंवार, विद्या-बुद्धि का कोई चमत्कार उनमें नहीं था। बस हृदय में भक्ति थी। न वे शास्त्र चर्चा के गाम्भीर्य में डूब सकते थे और न ही किसी से शास्त्रार्थ कर सकते थे। पश्चिमी ज्ञान-विज्ञान तो उन्हें छू भी नहीं गया था। अपनी इस स्थिति पर विचार कर उन्होंने परमहंस देव से कहा- ठाकुर! मेरा कैसे होगा? श्री श्री ठाकुर ने उन्हें आश्वस्त करते हुए कहा- तेरे लिए मैं हूँ न। बस मेरा नाम स्मरण करने से मेरा ध्यान करने से सब कुछ हो जाएगा।

तब से लाटू महाराज का नियम बन गया- अपने गुरुदेव श्री रामकृष्ण परमहंस का नाम स्मरण, उन्हीं का ध्यान और उनकी सेवा। ठाकुर की आज्ञा ही उनके लिए सर्वस्व हो गयी। यह सब करते हुए उनके जीवन में आश्चर्यजनक आध्यात्मिक परिवर्तन हुए। अनेकों दैवी घटनाएँ एवं चमत्कारों ने उनकी साधना को धन्य किया। उनके अद्भुत आध्यात्मिक जीवन और योग शक्तियों के अद्भुत विकास को देखकर स्वामी विवेकानन्द ने उन्हें अद्भुतानन्द नाम दिया। श्री रामकृष्ण संघ में वह इसी नाम से विख्यात हुए। स्वामी विवेकानन्द उनके बारे में कहा करते थे- लाटू ठाकुर का चमत्कार है। वह इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है कि गुरु स्मरण, गुरुसेवा और गुरु की आज्ञापालन से सब कुछ सम्भव हो सकता है। जो जन्म-जन्मान्तरों के तप से सम्भव नहीं, वह सद्गुरु कृपा से सहज ही साकार हो जाता है।

सद्गुरु के मुख में ब्रह्म का वास होता है। उनकी वाणी ब्रह्म वाणी है। उनके द्वारा बोले गए वचन ब्रह्म वाक्य हैं। महान् दार्शनिक योगी भगवान् शंकराचार्य ने कहा है- मंत्र वही नहीं है, जो वेद और तन्त्र ग्रन्थों में लिखे हैं। मंत्र वे भी हैं जिन्हें गुरु कहते हैं। सद्गुरु के वचन महामंत्र हैं। इनके अनुसार साधना करने वाला जीवन के परम लक्ष्य को पाए बिना नहीं रहता। पतिव्रता स्त्री की भाँति मन, वाणी और कर्म की सम्पूर्ण निष्ठ को नियोजित करके गुरुदेव भगवान् का ध्यान करना चाहिए। भावना हो या चिन्तन अथवा फिर क्रिया सभी कुछ सम्मिलित रूप से एक ही दिशा में- सद्गुरु के चरणों की ओर प्रवाहित होना चाहिए।

ध्यान रहे इस महासाधना में अपना कोई बड़प्पन आड़े न आए। अपना कोई क्षुद्र स्वार्थ इसमें बाधा न बने। श्री रामकृष्णदेव कभी-कभी हँसते हुए अपने भक्तों से कहते थे- कुछ ऐसे हैं, जिनके मन में तो भगवान् के प्रति और गुरु के प्रति भक्ति है, परन्तु उन्हें लाज लगती है, शर्म आती है कि लोग क्या कहेंगे? आश्रम एवं कुल की झूठी मर्यादा, अपनी जाति का अभिमान, यश-प्रतिष्ठ का लोभ उन्हें गुरु की सेवा करने में बाधा बनता है। परमहंस देव जब यह कह रहे थे तो उनके एक भक्त शिष्य मास्टर महाशय ने पूछा, तो फिर मार्ग क्या है? इन सबको छोड़ दो, त्यागो इन्हें, तिनके की तरह। सद्गुरु की आज्ञापालन में जो भी बाधाएँ साधने आएँ, उनसे मुँह मोड़ने में कभी कोई संकोच नहीं करना चाहिए।

स्वामी विवेकानन्द महाराज कहा करते थे- तुम अपने से पूछो- कोऽहम्? मैं कौन हूँ? देखो तुम्हें क्या उत्तर मिलता है। हो सकता है तुम्हें उत्तर मिले मैं पुत्र हूँ, पिता हूँ, पति हूँ, अथवा पत्नी हूँ, माँ हूँ, पुत्री हूँ। ऐसे उत्तर मिलने पर और गहराई में उतरो- गुरुचरणों में और ज्यादा स्नेह बढ़ाओ। फिर तुम्हें एक और सिर्फ एक उत्तर मिलेगा- ‘शिष्योऽहम्’ मैं शिष्य हूँ। सारे रिश्ते-नाते इस एक सम्बन्ध में विलीन हो जाएँगे। ध्यान रहे जो शिष्य है, वही साधक हो सकता है। उसी में जीवन की समस्त सम्भावनाएँ साकार हो सकती हैं। और जो सच्चा शिष्य है- उसके सभी कर्त्तव्य अपने गुरु के लिए हैं। ऐसे कर्त्तव्यनिष्ठ शिष्य को सद्गुरु कृपा किस रूप में फलती है, इसका बोध भगवान् भोलेनाथ ने गुरुगीता के अगले मंत्रों में कराया है। यह अगले अंक की पाठ्य सामग्री बनेगी। तब तक साधकगण गुरुमूर्ति का ध्यान करते हुए उपर्युक्त मंत्रों पर निदिध्यासन करें।


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