धरम मत छोड़ो, यह जीवन है दिन चार

February 2003

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स्वामी परमानन्द जी महाराज की आँखें भीग गयी। उन्होंने बड़ी कातर दृष्टि से आकाश की ओर निहारा और शिव-शिव कहते हुए दोनों हाथ जोड़ लिए। उनके शिष्य स्वामी कृष्णानन्द पास में ही खड़े थे। उन्होंने महाराज जी को प्रिन्स ऑफ वेल्स के भारत आने की खबर सुनायी थी। साथ ही अंग्रेज सरकार के कुचक्रों-षड़यन्त्रों की कथा भी बतायी। ये सारी बातें बताते हुए कृष्णानन्द जी ने कहा- गुरुदेव! भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस तो अपने फैसले पर अडिग है। उसका निश्चय है कि वह इस सरकारी समारोह का बहिष्कार करेगी। परन्तु गोरी सरकार हिन्दू समाज की आपसी फूट का लाभ उठाकर इस अवसर पर हजारों-हजार की संख्या में अछूत भाइयों को ईसाई बनाने पर तुली हुई है।

अपने शिष्य की इन बातों को सुनकर परमानन्द जी महाराज की भाव-वेदना छलक उठी। वह बड़े विकल स्वरों में बोले-आखिर कब तक ठगा जाता रहेगा हिन्दू समाज। फिर थोड़ा संयत स्वर में उन्होंने कहा- कृष्णानन्द तुम अपने आश्रम की हरिजन पाठशाला के बच्चों को लेकर जाओ। और वहाँ दिल्ली में आयोजन स्थल पर पहुँच कर उनसे वही भजन गवाओ जो अभी पिछले दिनों मैंने उन्हें तैयार करवाया है।

परन्तु गुरुदेव, लोग हमें गद्दार कहेंगे। फिर अंग्रेजों का विरोध करने पर अंग्रेज लोग अपने आश्रम को तहस-नहस कर सकते हैं। इसके अलावा रेवाड़ी से दिल्ली का सफर, खर्च कहाँ से आएगा। ये 1921 ई. के दिन थे। उन दिनों गोरी सरकार का सूर्य प्रचण्डता से चमक रहा था। कृष्णानन्द की ये शंकाएँ गैर वाजिब नहीं थी। लेकिन परमानन्द जी महाराज भी अडिग थे। उन्होंने स्थिर स्वर में कहा- बेटा! यह आश्रम भगवान्, भगवद्भक्ति एवं धर्म के लिए है, अंग्रेजों के लिए नहीं। भगवान् इसे रखना चाहेंगे, रखेंगे, मिटाना चाहेंगे तो मिटा देंगे। तुम बिना डरे वही करो जो मैंने तुमसे कहा है।

अपने गुरु के आदेश को शिरोधार्य करके कृष्णानन्द जी चल पड़े। राह की कठिनाइयों और गोरी सरकार के चापलूसों, जमींदारों, बड़े अफसरों का विरोध सहते हुए बड़ी मुश्किल से आयोजन स्थल तक पहुँच गए। वहाँ हजारों की संख्या में हरिजन परिवार ईसाइयत अपनाने के लिए खड़े किए गए थे। कृष्णानन्द जी और उनके साथ आए हरिजन बच्चों ने खंजरी बजाकर परमानन्द जी महाराज का यह भजन गाना शुरू किया-

धरम मत हारो रे, यह जीवन है दिन चार।

सीधे-सरल शब्द। उतने ही सीधे-सरल सुनने वाले। एक-एक शब्द सुनने वालों के हृदय में समाने लगा-

धरम राज को जाना होगा, सारा हाल सुनाना होगा। फिर पीछे पछताना होगा, कर लो सोच-विचार॥

एक झुर्रीदार चेहरे वाले वृद्ध ने पूछा- ये कौन हैं? और क्या गा रहे हैं। मन में उसे सौम्य स्वरों में कहा गया- ये भगवद्भक्ति आश्रम, रेवाड़ी में पढ़ने वाले अछूतों के बच्चे हैं। और ये गा रहे हैं-

धरम मत छोड़ो रे, जगत में जीना है दिन चार।

वृद्ध व्यक्ति के माथे पर आश्चर्य की लकीरें गहरी हो गयीं। उसने अटकते हुए कहा- ‘अछूतों के बच्चे और इतने साफ-सुथरे। और ये पढ़ते भी हैं।’ दिव्यद्रष्टा परमानन्द जी महाराज इस स्थिति से पहले से ही परिचित थे। इसी कारण उन्होंने कुछ बच्चों के माता-पिता को भी साथ भेज दिया था। वे आगे आकर बोले- हाँ भाई ये हमारे बच्चे हैं। स्वामी जी अपने आश्रम में इन्हें पढ़ाते हैं।

इस पर वह वृद्ध व्यक्ति जो जाति से भंगी था, अपने सभी हरिजन भाइयों से हाथ जोड़कर बोला- भाइयों, मेरी एक बात ध्यान से सुनो, जब हमारे समाज में ऐसे साधु-महात्मा हैं, जो हमारे बच्चों को और हम सबको पढ़ाने-लिखाने, ऊँचा उठाने के लिए तत्पर हैं, तो हमें धरम बदलने की भला क्या पड़ी है। वृद्ध की यह बात एक पल में सबको समझ में आ गयी। गोरी सरकार और पादरियों का सारा षड़यन्त्र धरा का धरा रह गया।


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