क्यों आया विचारों की विकृति का युग

February 2003

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विचारों का इतिहास उतना ही पुराना है जितना मानव का इतिहास। विचार मन से उत्पन्न होता है और इसका सर्वश्रेष्ठ माध्यम है मनुष्य सर्वप्रथम विचार मनुष्य के माध्यम से अभिव्यक्त हुआ। विचारों की स्थिति मन के उसी धरातल पर होती है जिस धरातल पर नर्वस सिस्टम अवस्थित है। अतः मन को सृजनशील कहा गया है। विचारों का इतिहास भी बड़ा अनोखा है।

पूर्व में विचारों का इतिहास वेदों से प्रारम्भ होकर श्री अरविन्द एवं गाँधी जी तक विकसित हुआ। पश्चिम में होमर, साक्रेटीस से सात्र तक आता दिखाई देता है। विचार परस्पर थाली में खटाई-मिठाई के समान विरोधी लगते हुए भी आपस में पूरी तरह निर्भर हैं। इनमें अटूट सम्बन्ध है। इनके सम्बन्ध को भले ही हम ऊपरी दृष्टि से न समझ पायें, परन्तु सम्बन्ध है अवश्य। मनुष्य और सृष्टि का चिंतन भी इसी प्रकार के सम्बन्धों पर आधारित है। इसका बोध जितना व्यापक होगा उतना ही सुसम्बन्धता खोजा जा सकता है।

सृष्टि की थाल में चाँद, तारे, ग्रह, नक्षत्र की गति, मनुष्य की अन्तःप्रकृति तथा जीवन का पर्यावरण से तारतम्य की खोज ही वह सम्बन्ध है। जिसमें विभिन्न विचार एक दूसरे से गुँथे हुए दिखाई पड़ते हैं। इन समस्त तथ्यों का उल्लेख वेद में मिलता है। इसीलिए वेद को एनसाइक्लोपीडिया अर्थात् विश्वकोष कहा गया है। वेद विद् धातु से बना है जिसका अर्थ है जानना याने ज्ञान का कोश। वेदों की भाषा अलंकारिक, लाक्षणिक एवं काव्यमय है। काव्य में तमाम बातों को एक साथ रोचक अंदाज में कहने की सुविधा होती है। इस तरह विचारों की यात्रा कविता के रूप में वेदों से आरम्भ हुई। पश्चिम में भी विचारों का उद्भव कविता के माध्यम से होता प्रतीत होता है।

विचारों का सचेतन विकास कैसे हो? इसके लिए आवश्यक है विचार तंत्र का परिष्कृत, उन्नत एवं पवित्र होना। जिस प्रकार दूध के पात्र की पवित्रता के बिना शुद्ध दूध की कल्पना नहीं की जा सकती है, ठीक उसी प्रकार विचार तंत्र के परिष्कृत हुए बगैर विचारों की उत्कृष्टता सम्भव नहीं है। अतः विचारों की श्रेष्ठता के साथ-साथ विचार तंत्र को भी समुन्नत होना चाहिए।

विचारों का संधान किसने किया? इसके प्रत्युत्तर में वैदिक ऋषि समर्थ और सक्षम जान पड़ते हैं। ऋषियों ने ही विचारों का संधान किया। ऋषि उन्हें कहते हैं जो अपने मन के बाह्य एवं अन्तः प्रकृति का बोध प्राप्त कर चुके होते हैं। उन्होंने सर्वांगीण विचारों की खोज की थी, उनकी यह खोज अधूरी नहीं थी, बल्कि समग्र थी। बाह्य प्रकृति का मौलिक विज्ञान एवं अन्तः प्रकृति का अध्यात्म ज्ञान दोनों का ही समुचित तथा समग्र रूप से विकास हुआ था। वैदिक युग को स्वर्णयुग-सतयुग कहने के पीछे तथ्य यही है कि उन दिनों विचारों का पूर्ण विकास हुआ था एवं इसके परिशोधन तथा परिमार्जन की विधि ज्ञात थी।

पश्चिम में सतयुगी तथ्य को नकार दिया जाता है। इसका कारण है कि इनको विचारों की परिशोधन की विधि विदित नहीं थी। वे मात्र विचारों के विकास से ही वाकिफ हैं। जबकि विचारों के सचेतन प्रयास में विचार उन्नत आयामों को स्पर्श करता है। काव्य इसकी सुन्दर अभिव्यक्ति है। काव्य में मानव प्रकृति का सर्वांगीण अनुभव बोध निहित होता है। उन दिनों मानव प्रकृति की सभी दशायें पूर्णतः काव्य में झलकती थीं। अतः प्राचीन वैदिक सूत्रों में सन्निहित ज्ञान विज्ञान के विभिन्न विचारों को देखकर आज का आधुनिक विज्ञान चमत्कृत हो उठता है। इसके ठीक विपरीत पश्चिम में विकास का सचेतन प्रयास नहीं हुआ। इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि मनुष्य का विकास एकाकी हो गया, जैसे हाथ मोटा तो पैर पतला, नाक छोटी तो कान बड़ा आदि। इस प्रकार पश्चिम में भावना तो पनपी परन्तु प्रयोग नहीं हो सका।

पश्चिम के एकाँगी विकास को कई रूपों में देखा जा सकता है। इमर्सन और वुड्सवर्थ की कविताएँ कालीदास तथा तुलसीदास से कहीं कम नहीं है। वहाँ की कविताओं में भी जादू भरी कल्पना हैं परन्तु इनमें समग्रता का सम्पूर्ण अभाव है। इसी एकाँगीपन के कारण ही वहाँ पर विचारों के दोनों रूपों भौतिक विज्ञान और आत्मविज्ञान का मिलन नहीं हो सका। पूर्व में समग्रता के होने से यह मिलन बिन्दु से सिंधु की तरह दृष्टिगोचर होता है।

विचारों के विकास की यही कड़ी जुड़े कैसे और इसके क्रमिक विकास को कैसे जाना जाय। इसके लिए यह कहा जा सकता है कि भारतीय सभ्यता में विचारों का क्रमिक विकास तो हुआ है परन्तु इसकी सभ्यता अति प्राचीन होने के कारण यह विकास की कड़ी जुड़ी-गुँथी दिखाई नहीं देती। परन्तु पश्चिमी सभ्यता का इतिहास दो से तीन हजार वर्ष पुराना है। फिर भी यहाँ पर विचारों के विकास का तारतम्य मिलना नजर नहीं आता है। अतः पश्चिम में भौतिक ज्ञान और आत्मविज्ञान दो ध्रुव बनकर ही रह गये।

पूर्व में विचार (ज्ञान) (Knowledge) का स्रोत अन्तःप्रज्ञा थी। यह हमारे बौद्धिक सोच का परिणाम नहीं था। वैदिक विचारधारा संश्लेषित (Synthesis) विश्लेषित (Analysis) नहीं है। परन्तु इसमें विश्लेषणात्मक प्रभाव का भी अभाव नहीं है। ऋग्वैदिक ऋचाओं में आत्मविज्ञान से भौतिक विज्ञान तक का संश्लेषण पाया जा सकता है। यह बड़ा ही अद्भुत तथ्य है। परन्तु कतिपय विज्ञजन इस वैदिक विचारधारा से अपरिचित एवं अनभिज्ञ होने के कारण ही इसमें विश्लेषणात्मक प्रभाव का अभाव मानते हैं। हालाँकि इसे जानने के लिए इसकी अलंकारित भाषा की की तह तक उतरने की आवश्यकता है, तभी इसे समझा जाना सम्भव हो सकता है।

इस प्रकार विचारों का क्रमिक विकास वेदों की ऋचाओं से उपनिषद् तक हुआ। दर्शन ग्रन्थों में यह सूत्र के रूप में सूत्रबद्ध हुआ जो विचार व बुद्धि की पराकाष्ठा को दर्शाता है। षड्दर्शनों में विश्लेषणात्मक विचार दृष्टिगोचर होते हैं। कपिल से पतञ्जलि के बीच काफी अन्तर का कारण भी वैचारिक विकास रहा है। पश्चिम में भी ऐसा ही कुछ देखा जा सकता है। होमर का काव्य व ग्रीक देश की कविता तथा काण्ट के बीच बहुत विविधता तथा विभिन्नता मिलती है।

विचारों की यात्रा भावना से प्रारम्भ होकर बुद्धि तक पहुँची है। भावना वह आधार है जो कल्पना को जन्म देती है। कल्पनाशीलता मन की द्योतक है। मन के अनुरूप ही कल्पना उठती है। इसका पोषण भावना द्वारा होता है। यदि इसमें सहृदयता का समावेश हो तो कल्पना में अभिवृद्धि होती है और निष्ठुरता से इसका ह्रास होता है। भावना की अभिव्यक्ति विचारों के माध्यम से ही होती है। इसी कारण पूर्व के ग्रन्थों में भगवत् अर्चन, प्रकृति वर्णन, शृंगार रस, विमान शास्त्र एवं आयुर्वेद सभी कविताओं में समाहित थे। इसी वजह से पहले काव्य को बहुत सम्मान एवं आदर दिया जाता था। और यही कारण है कि आचार्य शंकर का विवेक चूड़ामणि दर्शन होकर भी काव्य में रचा गया। विचारों के पुञ्ज योगवशिष्ठ का आधार भी काव्य है। अनेकों विज्ञान के ग्रन्थ भी कविता में हैं। पूर्व में विचार व भावना लिए समन्वय का अनोखा संगम है। अलगाव तथा विभेद पश्चिम में ज्यादा है। अतः इनके तारतम्य के लिए गहरे प्रयास की जरूरत है।

विकसित होने के पश्चात् विचारों का स्वरूप तीन रूपों में विभक्त होता है। प्रथम है-भाव से उत्पन्न विचार; दूसरा है- मानव मन के परिशोधन एवं परिमार्जन से उत्पन्न विचार और तीसरा है- बौद्धिक कल्पना, अन्वेषण आदि से उद्भूत विचार।

ऋषियों द्वारा दिया गया संश्लेष्णात्मक विचार पूर्व की अनमोल एवं श्रेष्ठ धरोहर है। मौलिक विचारों के कारण यहाँ सच्चा ज्ञान है। विचार की अभिव्यक्ति भाषा के माध्यम से होता है। भाषा संचार एवं संप्रेषण का काम करती है। इस प्रकार भावना का संसार धर्म के नाम से जाना जाता है। भावना का अगला कदम बुद्धि के माध्यम से दर्शन को उजागर करता है। और इस बुद्धि का क्रियात्मक स्वरूप विज्ञान कहलाता है। विज्ञान प्रायोगिक निष्कर्ष है। पहले इन तीनों में ठीक-ठीक तालमेल था। परन्तु पश्चिम में इनके बीच सामञ्जस्य नहीं हो पाने के कारण वहाँ पर सर्वथा भिन्न दृष्टिकोण मिलता है। धार्मिक विचार रहस्यवाद के अंतर्गत देखे जाते हैं क्योंकि यह भावना से उपजी कल्पना का रूपायन है। पश्चिम में भी बुद्धि रहस्यवाद के रूप में दिखाई देती है पूर्वी सभ्यता के अनुसार बुद्धि से उत्पन्न विचार रहस्य नहीं होता है। यह कल्पना की सतरंगी जाल बुनने की अपेक्षा यथार्थ धरातल में रहना अधिक पसन्द करती है। पाश्चात्य गगन में इमेनुअल काण्ट प्रथम बुद्धिवादी दार्शनिक हुए।

इस प्रकार पश्चिम में धर्म, दर्शन एवं विज्ञान अलग-अलग बन गए। परन्तु पूर्व में इनमें एक अपूर्व समन्वय एवं योग झलकता है। विचारों के इतिहास में ये तीनों विद्याएँ एक साथ एक व्यक्ति में पाया जाना बड़ा ही विरल एवं दुर्लभ है। परन्तु उन विरल पुरुषों में एक नागार्जुन ही ऐसे अद्भुत व्यक्ति हैं, जिन्होंने इन तीनों को एक साथ समेट कर अपने रहस्य का प्रकटीकरण किया। वे धर्म से योगी, दर्शन से शून्यवादी तथा विज्ञान से रसायनविद् थे।

कालान्तर में विचारों के बीच की समन्वय की कड़ी टूट गयी और प्रारम्भ हुआ भीषण विग्रह का दौर। इस विग्रह के अन्दर झाँके तो बड़ा ही भयावह स्वरूप दिखाई देता है। धर्म से करुणा का संदेश फैला तो सही परन्तु जीवन को नकार दिया गया। यह बहुत बड़ी विडम्बना है। जीवन को नकारकर भला करुणा की कौन सी कल्पना साकार हो सकेगी। जब बुद्धि को प्रश्रय मिला तो भावना-संवेदना शुष्क हो गयी। बुद्धि के प्रभुत्व का परिणाम ही संवेदनहीनता है, जिसका ज्वलन्त उदाहरण आज का युग है। विचारों की यह एकाँगिता पूर्व तथा पश्चिम दोनों जगह मानव जाति अभिशप्त सिद्ध हुई संस्कृति का लोप इसी एकाँगिता के कारण हुआ। यही इतिहास का सबसे अधिक क्रूर एवं कलंकित क्षण था।

जब से हम विचारों की समग्रता से कट गये तभी से विकृत युग का प्रारम्भ हुआ। हमारे समस्त अनुसंधान एवं खोज प्रकृति को नकारकर शुरू हुए। इस विकृति के लिए कौन जिम्मेदार है, यह तथ्य भले ही बुद्धि में न समाता हो, पर यह सत्य है कि पलायनवादी दृष्टिकोण हावी हो गया और हम पलायन वादी हो गए।

विकृति के इस वैचारिक युग में विचारों के स्वरूप के पुनरुद्धार का साहस की सामर्थ्य कौन जुटायें? कौन अपने सिंहनाद से विकृति के विकृत नींव को हिलाकर रख दे? कौन है जो संस्कृति के भव्य भवन का निर्माण करे? विचार क्रान्ति अभियान में ही इन प्रश्नों के उत्तर निहित हैं। इसी से समग्र विचारों के प्रतीक विचार क्रान्ति का अवतरण हुआ। यह अवतरण विचारों के इतिहास में अभूतपूर्व क्रान्ति है। यह समूचे जीवन के लिए सुख, शान्ति तथा विकासोन्मुखी विचार है। विचार क्रान्ति अभियान से प्रेरित समग्र विचारों के इस नवनीत में धर्म, दर्शन तथा विज्ञान को समुचित स्थान प्राप्त है। इसमें संतुलन और समग्रता का बोध है। इसे देखकर यह कहा जा सकता है कि संवेदना से उपजा चिंतन भावी मनुष्य का मार्गदर्शन करेगा। विचार क्रान्ति अभियान के तत्त्वों से नए मनुष्य के विचारों के ताने-बाने को बुनेंगे।


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